जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Saturday 30 January 2016
होली
Friday 29 January 2016
नेह निमंत्रण
ईश्वर विनती
मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग
निःस्वार्थ
निहारता किसी छाँव की ओर,
देख विशाल एक वटवृक्ष,
बढ पड़े कदम उस ओर।
विश्राम कुछ क्षण का मिला,
मिली चैन की छाँव भी,
कुछ वाट वटोही मिले,
हुई कुछ मन की बात भी।
मंद हवा के चंद झौंके मिले,
कांत हृदयस्थल हुआ,
कुछ अनोखे भाव जगे,
प्रश्न अनेंकाें फिर मन में उठे।
विशाल वटवृक्ष महान कितना,
ताप धूप की खुद सहकर,
निःस्वार्थ छाँव पथिक को दे गया,
शीतल तन को कर मन हर ले गया।
पटकथा
Thursday 28 January 2016
पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ
मिलना तुम उस मोड़ पे जीवन के वहाँ,
राहें उम्मीदों के सारे छूट जाते हैं जहाँ,
सूझता नही जब कुछ हाथों को,
आँखें की पुतलियाँ भी थक जाती हैं जहाँ।
पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म वहाँ।
इन्तजार करता मिलूँगा तुमको वहीं,
राहे तमाम गुजरती हो चाहे कही,
शिथिल पड़ जाएं चाहें सारी नसें मेरी,
दामन छूटे सासों का या लहु प्रवाह थक जाए मेरी।
पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म सभी।
पुकारता क्षितिज
मन के सन्निकट ही कहीं,
पुकारता है तुझको बाहें पसारे।
तिमिर सा गहराता क्षितिज,
हँसता हैं उन तारों के समीप कहीं,
पुकारता अपने चंचल अधरों से ।
मधुर हुए क्षितिज के स्वर,
मध टपकाते उसके दोनो अधर,
हास-विलास करते काले बालों से।
आ मिल जा क्षितिज पर,
कर ले तू भी अपने स्वर प्रखर,
तम क्लेश मिट जाए सब जीवन के।
मान लो मेरा कहा
गीत कोई प्रीत का,
गुनगनाऊँ तेरे संग आज चल,
तार तेरे हृदय का,
छेड़ जाऊँ आज तू साथ चल।
आ चलें उन मंजिलों पर,
गम के बादल न पहुँचते हों जहाँ,
संग दूर तक चलते रहें,
अन्त रास्तों के न मिलते हों जहाँ।
मान लो तुम मेरा कहा,
संगीत की धुन तू इक नई बना,
लय, सुर, ताल कुछ मैं भरूँ,
नया तराना रोज तू मुझको सुना।
अब मान लो तुम मेरा कहा!
खुशियों के क्षण
भटकता मन
मन तू सच क्युँ न बोलता?
जीवन का दर्पण दिखा मुँह क्युँ फेरता?
तू ही तो मेरा इक निज है,
दर्पण तू ही दिखलाता जीवन को,
फिर तू क्युँ छलता रहता है मुझको?
निज मन तू क्युँ भटकता रहता नित दिन!
चंचल सा चितवन तेरा,
एकाग्रचित्त तू कभी रह नही सकता,
समझेगा तू मेरी दुविधा कैसे?
तू मेरा अपना पर तू मुझको ही छलता,
मन तू इतना क्युँ बोलता?
निज मन तू किस भुलावे में रहता नित दिन?
Wednesday 27 January 2016
इंतजार एकाकीपन का
कौन किसका इंतजार करता इस जग में,
क्षणिक इंतजार भी डसता इस मन को,
पार इंतजार की उस क्षण के,
इक एकाकीपन रहता जीवन में,
फिर क्युँ किसी का इंतजार करूँ इस जग में।
वक्त इंतजार नही करता किसी का जग में,
वक्त अथक आजीवन चलता ही रहता,
इंतजार उसे पार उस क्षण का,
कब एकाकीपन मिलता उससे जीवन में,
फिर क्युँ वो इंतजार करे किसी का इस जग में।
अथक इंतजार जो भी करता इस जग में,
पागल उस मानव सा ना कोई मैं पाता,
घड़ियाँ गिनता वो उस क्षण का,
जो लौट कर वापस ना आता जीवन में,
फिर क्युँ करता वो इंतजार बेजार इस जग में।
स्वप्न स्मृति
विस्मृत होती मानस पटल पे,
अंकित कर जाते कितने ही,
स्मृतियों की धुँधली रेखायें इनमें।
स्वर लहर मधुर स्वप्नों की,
नित अटखेलियाँ करती तट निद्रा पर,
सुसुप्त मन हिलकोर जाती,
खीच जाती स्मृतियों की रेखायें इनमे।
ओ स्वप्न वीणा के संगीत,
नित छेड़ते क्युँ तुम निद्रा के तार,
छेड़ते धुन मधु स्मृतियों की,
बनती स्मृति की कई श्रृंखलाएं इनमें।
प्रभात कोहरे में मिट जाती,
स्वप्न छाया का विस्मृत कारागार,
रह जाती क्षणिक स्मृति शेष सी,
विस्तृत स्मृतियों की लघु रेखाएँ इनमे।
उम्मीद
Tuesday 26 January 2016
क्षणिक पतंगे की जलती कहानी
था लघु,
पर उम्र सारी,
कह सकुंगा,
मेरे ठंढ़े हृहय में,
मैं भूलना चाहता,
जिऊ कैसे,
क्या तुम कह पाओगी,
क्या तेरे हृदय,
क्षणिक पतंगे की,
मेरे ठंढ़े हृहय में,
मौसम सा एहसास
तू लम्हों मे रह
बनी है कहानी कायनात की,
दो लम्हा प्यार का मैं भी गुजार लूँ,
इक कहानी प्यारी सी बन जाए मेरी भी!
लम्हा ठहर गया अगर,
रुक जाएगी सारी कायनात भी,
दो पल संग-संग चल साथ गुजार लूँ,
संग तेरे गुजर जाए रास्ते जिन्दगी की मेरी भी!
लम्हा लम्हा लम्हों मे रह,
रच रच सृष्टि करता कायनात की,
दो लम्हा तू भी मुझमें गुजर बसर ले,
रच सँवर जाए छोटी सी कायनात कही मेरी भी!
तू मेरा सुखद लम्हा वही,
तू कहानी मेरे अमिट प्यार की,
दो घड़ी सुख के फिर संग तेरे गुजार लूँ,
रच बस जाएंगी यादें अन्तस्थ तुझमे कही मेरी भी!
धड़कनों की सदाएँ
धड़कने किसी की सुनाई दे रही मुझको यहाँ फिर,
क्या हृदय किसी विरहन का व्यथित हो गया है फिर?
या याद में किसी के कोई रो रहा है फिर?
ठहरो जरा संगीत धड़कनों की सुन लूँ मैं भी
अपने सुरमंदिर की तानपूरा का तार बुन लूँ मैं भी,
सुर चुरा लू दर्द का आज व्यथित हो रहा मैं भी,
या याद मे किसी की आज रो रहा हूँ मैं भी?
व्यथित हृदय की धड़कनें बेसुरी सी आज क्युँ,
भूल गए हैं लय सारे इस वीणा के तार क्युँ,
विरहन की संगीत को आज मिलते नही हैं साज क्युँ,
या याद मे विरहन की मैं बिसर गया संगीत ज्युँ?
तेरा अस्तित्व
अस्तित्व तेरा! व्योम के धूल कण सा भी नहीं!
इक लघुक्षण भी तो नही तू इस अनंतकाल का,
फिर क्यूँ भला इतना अभिमान तुझमें पल रहा।
अपनी लघुता का सत्य, तू स्वीकार कर यहाँ,
अस्तित्व की रक्षा को, तू संघर्ष कर रहा यहाँ,
पराशक्ति तो बस एक जो राज हमपे कर रहा,
फिर क्युँ भला तू नाज इतना खुद पे कर रहा।
उस दिव्य अनन्त की प्रखर से तो है तू खिला,
उस व्योम की ही किसी शक्ति ने तुझको जना,
इस धरा को उस शक्ति ने तेरी कर्मस्थली चुना,
फिर क्यूँ भला उस कर्मपथ से तू विमुख रहा।
Monday 25 January 2016
यादों की शाम
संग तेरे गाए गजल जो उन लम्हों में,
डूबते हैं ख्याल, अब उन रुबाईयों मे,
लम्हा लम्हा तन्हा रह गई हैं शाम कीा
मिश्री की डलियों सी अनकही बातें,
मासूम चेहरा मोहिनी मुस्कान समेटे,
नशीली आँखों पे झुकी तैरती पलकें,
संग गायी ग़ज़ल बन गई हैं शाम की।
जुल्फों की धुंध सी छाये काले बादल,
आसमाँ पे दूर उड़ता तुम्हारा आँचल,
पुकारता हुआ तुम्हारे हाथों का दामन,
चिलमन बन घटा सी छाती शाम की।
व्यथा की कथा
छलके जो नीर
अन्तर्द्वन्द
Sunday 24 January 2016
वो प्रगति किस काम का?
मानवीय मुल्यों का ह्रास हो जब,
सभ्यता संस्कृति का विनाश हो जब,
आदरभाव अनादर से हो तिरस्कृत,
जहाँ सम्मान, अपमान से हो प्रताड़ित,
अमिट कर्म की सत्यनिष्ठा घट जाए,
वो प्रगति किस काम का?
विमुख मानव कर्मपथ से हो जाए,
नाशवान वक्त को धरोहर न बन पाए,
मिट पाए न अग्यान का तिमिर अंधकार,
द्वेश-कलेश, ऊँच-नीच मन से न निकले,
जन-मानस की जीवन आशा मिट जाए,
वो प्रगति किस काम का?
विनाश क्रिया का न हो मर्दन,
विलक्षण प्रतिभा का न हो संवर्धन,
सद्गुण सद्गति संन्मार्ग न निखरे,
जन जन मे विश्वास का मंत्र न बिखरे,
मानव प्रगति के नव आयाम न छू ले।
वो प्रगति किस काम का?
नैनों की पनघट
श्रृष्टि की मादकता
Saturday 23 January 2016
क्षणभंगुर जीवन की नाव
तुम गीत मेरी
मिट्टी का कर्ज
बादल की वेदना
सागर की वेदना
मौन धरा की वेदना
Friday 22 January 2016
सांध्य झंझावात
रूठा अक्श मेरा
स्नेहिल जन्मदिन
नववस्त्र का उपहार मिलता मिष्ठान्न खाता हूँ,
जीवन चक्र मे जन्मदिन प्रेम का बिता पाता हूँ।
मधुपान
मेरा ही अक्श
झांकता हूँ बंद झरोखों के परदों से,
आ पहुँचा हूँ कहाँ जीवन पथ पर इतनी दूर?
धुंधली सी इक तस्वीर उभरती,
स्याह चादरों सी कुछ लिपटी दिखती,
जिग्याशावश पूछता हूँ मैं, कौन हो तुम?
कुछ क्षण वो मौन धारण कर गया,
कौतुहलवश आँखें फार उसे मैं देखता रह गया,
जिग्याशा बढ़ गई मेरी उस साए में।
संकोचवश फिर मौन तोड़ वो बोला.....!
कब से खड़ा हूँ मैं इस राह पर!
दुनियाँ ने भी ना पहचाना मुझको!
एक आस बस तुझसे बंधी थी पर!
तूमने भी ना पहचाना मुझको?
जिग्याशा और बढ़ गई थी मेरी,
मैंने फिर पूछा, बोलो तो कौन हो तुम?
रूंझी सी वाणी में वो बोला...आँखे खोल के देख,
बंद झरोखों के परदों को पूरी तरह खोल,
पहचान खुद को, अक्श हूँ मैं तुम्हारा ही, अब बोल?
जीवन के पथ पर साथ किसी का कौन दे पाता?
अक्श हूँ तेरा, साथ सदा मै तेरे ही रहता!
दर्द किसी को मुझसे न पहुँचे,
सपना किसी का मुझसे ना टूटे,
चुप इसीलिए मैं रह जाता हूँ,
अतीत के गर्भ में तुझे बार-बार ले चलता हूँ
अक्श हूँ तेरा! साथ सदा मै तेरे ही रहता हुूँ।
जब तेरा कोई सपना टूटा, टूटा हूँ मैं भी थोड़ा,
मेरी आँख भी बरसी है तड़पा हूँ मैं भी थोड़ा,
अक्श हूँ तेरा, साथ कभी तेरा मैंने ना छोड़ा।
हठात, हतप्रभ, विस्मित मैं देखता रह गया!!!!!
Thursday 21 January 2016
सांझ मधुक्षण
विषमता
Wednesday 20 January 2016
हसीन लम्हात
तुम्हारी यादों के संग
माँ का आशीर्वचन
उतरे किरण स्वर्ग की भू पर,
सपनों का उजियारा लेकर,
पुलक उठे जन-जन का अन्तर,
यह नववर्ष तुम्हारे जीवन को,
खुशियों से पूरित कर दे,
गुरुजन का आशीष कवच बन,
प्रतिक्षण तेरी रक्षा कर दे,
परमपिता परमेश्वर से यही विनती,
तेरी प्रगति के पथ को विस्तृत कर दे,
मंगलमय हो नया सवेरा।
(यह मेरी माँ, श्रीमति सुलोचना वर्मा, के द्वारा अपनी आवाज में भेजी गई आशीर्वचन का रुपान्तरण है)
माता जी विदुषी तथा हिन्दी की अध्यापिका थी और अब 70 वर्ष से अधिक की हैं। मेरी शिक्षा उन्हीं के सानिध्य में हुई।
पीड़ा सृष्टि के कण-कण में
लक्ष्य
पतवार जीवन का
जोगन और बटोही
युगों से द्वार खड़ी वाट जोहती वटोही का वो!
शायद भूल चुका वादा अपना चितचोर वो वटोही,
मुड़कर वापस अबतक वो क्युँ ना आया?
यही सोचती वो जोगन वाट जोहती!
वो निष्ठुर हृदय उसको तनिक भी दया न आई,
मैं अबला उसने मेरी ही क्युँ चित चुराई?
चित चुराने ही आया था वो सोचती!
फिर सोचती! होगी कोई मजबूरी उसकी भी,
चितचोर नही हो सकता मेरा परदेशी!
समझाती मन को फिर राह देखती!
मेरे विश्वास का संबल बसता हिय उस परदेशी के,
बल मेरे संबल का क्या इतना दुर्बल?
वाट जोहती जोगन रहती सोचती!
भाग्य रेखा मेरे ही हाथों की है शायद कमजोर,
कर नही पाती मदद जो ये मेरे प्रीतम की,
बार-बार अपने मन को समझाती!
अब तो बाल भी सफेद हो गए आँखें कमजोर,
क्या मेरा वटोही अब देखेगा मेरी ओर?
झुर्रियों को देख अपनी सिहर जाती!
युगों तक बस वाट जोहती रही उस वटोही का वो!
जोगन की विश्वास का संबल दे गया अथाह खुशी,
वक्त की धूंध से वापस लौट आया वो परदेशी!
अश्रुपूर्ण आखें एकटक रह गई खुली सी।
हिय लगाया उस जोगन को काँपता वो परदेशी,
व्यथा जीवन सारी आँखों से उसने कह दी,
निष्ठुर नहीं किश्मत का मारा था वो वटोही!
खिल उठी विरहन सार्थक उसकी तपस्याा हुई!
युगों युगों तक फिर वो जोगन, उस वटोही की हो गई।
अब सोचती! मेरा प्रीतम चितचोर था, पर निष्ठुर नही!
Tuesday 19 January 2016
निशा स्नेह निमंत्रण
रंग
मुझे सींचकर तुम क्या पाओगे?
पनिहारिन की पीड़ा
बवंडर व्योम का
Monday 18 January 2016
कोमल हृदय
टूटा हृदय
अब क्युँ रोक रही हो राह उसकी?
मंडराते बादलों की तरह टूटा है हृदय उसका,
अश्रुबूँद क्या भर सकेंगे घाव उसकी?
टूटा हृदय बादलों सा नभ में व्याकुल मंडराता,
गर्जना कर व्यथा अपनी सबको सुनाता,
चीर जाती पीड़ा उसकी हृदय व्योम के भी,
निष्ठुर तुझे न आयी क्या दया जरा भी?
अब व्यर्थ किसलिए तुम पश्चाताप करती,
आँसुओं के सैलाब क्युँ बरबाद करती,
प्यास हृदय की बुझ चुकी खुद की आँसुओं से ही,
शेष बरस रहे अब झमाझम बारिश की बुंदों सी।
Sunday 17 January 2016
इंतजार प्यार का
शाम के स्वर
इन सुरमई लम्हों के कदम अभी रूके नहीं,
साधना के स्वरों से पुकारती ये तुम्हे।
ये लम्हे हैं सुनहरी चंपई शाम के,
गुजरते क्षितिज पर इस तरह,
जैसे सृष्टि के हर कण से,
मिलना चाहते क्षण भर ये।
तुम भी इनसे मिलने आ जाओ,
प्रीत की रीत वही तुम भी निभा जाओ।
ये संध्या है सुरमई मदहोशियों के,
अनथक छेड़ रहे सुर इस तरह,
जैसे धरा के कण कण मे,
भरना चाहते मीठे स्वर ये।
तुम भी धुन कुछ इनसे ले लो,
प्रीत के गीत वही तुम भी सुना जाओ।
साधना के स्वरों से रातों के तम हर जाओ ।
पिघलते शब्दों के नश्तर
पिघलते लम्हे
गुजरता रहा वक्त की आगोश से,
अरमाँ लिए दिल में हम देखते रहे खामोश से।
लम्हें फासलों से गुजरते रहे,
दिलों के बेजुबाँ अरमाँ पिघलते रहे,
आरजू थी गुनगुनाती पिघलती शाम की,
पिघलती सी रास्तों पे बस शाम ढ़लते रहे ।
पिघलते लम्हों का बेवश कारवाँ,
बस गुजरता गया कोहरों की ओट से,
हसरतें दिल मे लिए हम देखते रहे खामोश से।
कोहरों की धूंध मे ये चलते रहे,
बेवश जज्बातों के निशाँ पिघलते रहे,
पिघलती रही शाम हसरतों के जाम की,
पिघलते नयनों से बस आँसू निकलते रहे ।
पिघलते लम्हों का तन्हा कारवाँ,
बस गुजरता गया वक्त की आगोश से,
हसरतें दिल मे लिए हम देखते रहे खामोश से।
Saturday 16 January 2016
चिड़ियाँ का जीवन
विपरीत रेखाएँ
सपनों का भ्रमजाल
सरसों के फूल
लुभा गए मन को,
धरा पर,
प्रीत बन,
पीली चादर फैला गए,
लहलहा गए,
मन को मेरे भा गए।
श्रृंगार
वसुधा को दे गए,
आच्छादित हुए
अंग-अंग,
गोद भराई कर गए,
मधुर धार,
भौरों को दे गए,
सरसों की
मन को हर गए।
मैं भी संग बिताऊँ,
कोमलता
तनिक
स्पर्श मैं भी कर जाऊँ,
भर लूँ,
निमित्त हुए
चित मेरे विस्मित,
कर गए,
कौन सी भाषा
समझ सकूँ न नैनों की मूक भाषा,
व्यथा भावना दृष्टि की समझ से परे,
अभिलाषा की भाषा अब कौन पढ़े?
किस भाषा मे वेदना लिख गए तुम?
मन की पीड़ा व्यथा क्या कह गए तुम?
अंकित मानस-हृदय पर ये आड़े-टेढ़े,
वेदना पीड़ा की भाषा अब कौन पढ़े?
हृदय भावविहीन पाषाण हो चुका!
मन के भीतर का मानव सो चुका!
भावनाओं का साहित्य जटिल हो चुका!
भाव-संवेदना की भाषा अब कौन पढ़े?
Friday 15 January 2016
कौन रहा पुकार?
कानों मे गूंजती एक पुकार,
रह रहकर सुनाई देती वही पुकार,
सम्बोधन नहीं होता किसी का उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास
कोई पुकार रहा मुझे बार-बार!
आह! यह किसकी वेदना कर रही चित्कार?
हल्की सी भीनी सुगन्ध चली कहाँ से,
बढ़ती जाती सुगंध हवाओं के साथ,
पहचानी सी खुशबु पर आमंत्रण नहीं उसमें,
फिर भी जाने क्यों होता एहसास,
कोई बुला रहा मुझको उधर से बार-बार!
आह! यह किसकी खुशबु मुृझको रही पुकार?