Friday, 22 January 2016

मेरा ही अक्श


झांकता हूँ बंद झरोखों के परदों से,
आ पहुँचा हूँ कहाँ जीवन पथ पर इतनी दूर?

धुंधली सी इक तस्वीर उभरती,
स्याह चादरों सी कुछ लिपटी दिखती,
जिग्याशावश पूछता हूँ मैं, कौन हो तुम?

कुछ क्षण वो मौन धारण कर गया,
कौतुहलवश आँखें फार उसे मैं देखता रह गया,
जिग्याशा बढ़ गई मेरी उस साए में।

संकोचवश फिर मौन तोड़ वो बोला.....!
कब से खड़ा हूँ मैं इस राह पर!
दुनियाँ ने भी ना पहचाना मुझको!
एक आस बस तुझसे बंधी थी पर!
तूमने भी ना पहचाना मुझको?

जिग्याशा और बढ़ गई थी मेरी,
मैंने फिर पूछा, बोलो तो कौन हो तुम?

रूंझी सी वाणी में वो बोला...आँखे खोल के देख,
बंद झरोखों के परदों को पूरी तरह खोल,
पहचान खुद को, अक्श हूँ मैं तुम्हारा ही, अब बोल?

जीवन के पथ पर साथ किसी का कौन दे पाता?
अक्श हूँ तेरा, साथ सदा मै तेरे ही रहता!
दर्द किसी को मुझसे न पहुँचे,
सपना किसी का मुझसे ना टूटे,
चुप इसीलिए मैं रह जाता हूँ,
अतीत के गर्भ में तुझे बार-बार ले चलता हूँ
अक्श हूँ तेरा! साथ सदा मै तेरे ही रहता हुूँ।

जब तेरा कोई सपना टूटा, टूटा हूँ मैं भी थोड़ा,
मेरी आँख भी बरसी है तड़पा हूँ मैं भी थोड़ा,
अक्श हूँ तेरा, साथ कभी तेरा मैंने ना छोड़ा।

हठात, हतप्रभ, विस्मित मैं देखता रह गया!!!!!

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