क्षितिज के उस पार कहीं दूर,
जहाँ मिल जाती होंगी सारी राहें,
खुल जाते होंगे द्वार सारे मौन के,
क्या तू रहता है दूर वहीं कही?
क्षितिज के पार गगन मे उद्भित,
ब्रम्हांड के दूसरे क्षोर पर उद्धृत,
शांत सा सन्नाटा जहां है छाता,
मिट जाती जहां जीवन की तृष्णा,
क्या तू रहता क्षितिज के पार वहीं?
कोई कहता तू घट-घट बसता,
हर जीवन हर निर्जीव मे रहता,
कण कण मे रम तू ही गति देता,
क्षितिज, ब्रह्मान्ड को तू ही रचता,
मैं कैसे विश्वासुँ तू हैं यहीं कहीं?
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