Sunday, 6 March 2016

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईनें में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
अमिट प्रीत की स्पष्ट हो रही वाणी अब।

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