Thursday, 28 September 2017

दुर्गे निशुम्भशुम्भहननी

अग्निज्वाला अनन्त अनन्ता अनेकवर्णा, पाटला,
अनेकशस्त्रहस्ता अनेकास्त्रधारिणी अपर्णा,अप्रौढा,
अभव्या अमेय अहंकारा एककन्या आद्य आर्या,
इंद्री करली पाटलावती मन ज्ञाना कलामंजीरारंजिनी ।

कात्यायनी कालरात्रि यति कैशोरी कौमारी क्रिया,
कुमारी घोररूपा चण्डघण्टा चण्डमुण्ड विनाशिनि ,
क्रुरा  चामुण्डा  चिता  चिति चित्तरूपा चित्रा चिन्ता,
बहुलप्रेमा प्रत्यक्षा जया जलोदरी ज्ञाना तपस्विनी।

त्रिनेत्र दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी दुर्गा देवमाता,
बुद्धि नारायणी निशुम्भशुम्भहननी पट्टाम्बरपरीधाना
पुरुषाकृति प्रत्यक्षा प्रौढा बलप्रदा बहुलप्रेमा बहुला
नित्या परमेश्वरी पाटला पाटलावती पिनाकधारिणी ।

बुद्धि बुद्धिदा ब्रह्मवादिनी ब्राह्मी भद्रकाली लक्ष्मी,
भाव्या मधुकैटभहंत्री महाबला महिषासुरमर्दिनि,
महातपा महोदरी मातंगमुनिपूजिता मातंगी माहेश्वरी,
मुक्तकेशी यति रत्नप्रिया रौद्रमुखी बहुला वाराही,
युवती विष्णुमाया वनदुर्गा विक्रमा विमिलौत्त्कार्शिनी।

वृद्धमाता वैष्णवी शाम्भवी शिवप्रिया शिबहुला,
शूलधारिणी सती सत्ता सत्या सत्यानन्दस्वरूपिणी
सर्वदानवघातिनी सर्वमन्त्रमयी सर्ववाहनवाहना,
सदागति  सर्वविद्या सर्वशास्त्रमयी सर्वासुरविनाशा
साध्वी सावित्री सुन्दरी सुरसुन्दरी सर्वास्त्रधारिणी।

Sunday, 24 September 2017

किंकर्तव्यविमूढ

गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार!
मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार,
झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर,
किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार!

हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार!
जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली!
झुंझलाहट होती दिशाहीन मन की गति पर,
ठिठककर दबे पाँवों फिर देखता, समय का विस्तार!

हूँ मैं इक लघुकण, क्या पाऊँगा अभिसार?
निर्झर है यह समय, कर पाऊँगा मैं केसे अधिकार?
अकुलाहट होती संहारी समय की नियति पर,
निःशब्द स्थिरभाव  फिर देखता, समय का विस्तार!

रच लेता हूँ मन ही मन इक छोटा सा संसार,
समय की बहती धारा में मन को बस देता हूँ उतार,
सरसराहट होती, नैया जब बहती बीच धार,
निरुत्तर भावों से मैं फिर देखता, समय का विस्तार!

Saturday, 23 September 2017

सैकत

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल,
ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल,
झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल,
डाली पे झूलते हुए ये नव दल,
मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल?

उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के सैकत!
ज्यूँ वो पल, यहीं कहीं रहा हो ढल!
मुरझाते हों जैसे झील में कमल,
सूखते हो डाल पे वो कोमल से दल,
हृदय कह रहा धड़क, चल आ तू कहीं और चल!

उड़ रही हर दिशा में, रंगीन से असंख्य सैकत,
बिंधते हृदय को, यादों के ये तीक्ष्ण सैकत,
नैनों में आ धँसे, कुछ हठीले से ये सैकत,
अभ्र पर छा चुके है नुकीले से ये सैकत,
जाऊँ किधर! ऐ दिल आता नही  कुछ भी नजर?

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

Wednesday, 20 September 2017

प्रीत

मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब....

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईने में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
मुखरित हो रही प्रीत की परछाई अब।

Tuesday, 19 September 2017

निशिगंधा

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ,
अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें,
बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें,
महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा?
प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ?
मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

है कोई चाँद खिला, या है वो कोई रजनीचर?
या चातक है वो, या और कोई है सहचर!
क्युँ निस्तब्ध निशा में खुश्बू बन रही वो बिखर!
शायद ये हैं उसकी निमंत्रण के आस्वर!
क्या प्रतीक्षा के ये पल अब हो चले हैं दुष्कर?
मन कहता है जाकर देखूँ, बिखरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

यूँ हर रोज बिखरती है टूटकर वो निशिगंधा?
जैसे कोई विरहन, महकती गीत विरह की हो गाती!
आशा के दीप प्राणों में खुश्बू संग जलाती,
सुबासित नित करती हो राहें उस निष्ठुर साजन की,
प्रतीक्षा में खुद को रोज ही वो सजाती....
मन कहता है जाकर देखूँ, सँवरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

Friday, 15 September 2017

छाए हैं दृग पर


छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

वो मिल रहा पयोधर,
आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर,
रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन।

छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

वो झुक रहा वारिधर,
युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर,
ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर।

छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

अति रम्य यह छटा,
बिखरे हैं मन की अम्बक पर,
खिल उठे हैं सरोवर में नैनों के असंख्य मनोहर।

छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण!

Wednesday, 13 September 2017

दूभर जीवन

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?
चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,
मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर....

मीलों होगे आज फिर उड़ने,
अधूरे काम बहुत से पूरे होंगे करने,
आबो-दाना है कहाँ न जाने?
मिटेगी भूख न जाने किस दाने से?
चैन की नींद! रही अब आने से!

दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती!

फिर घोंसले की करती फिकर!
न जाने किस डाल सुरक्षित रह पाऊँगी?
कोटरों में हैं बसते आस्तीन के साँप,
मैं तिनके कहाँ सजाऊँगी?
क्रूर बहेलियों की दुष्ट नजर से,
दूर कैसे रह पाऊँगी?

उस छोटी सी चिड़ियाँ को भविष्य का डर?

आनेवाली बारिश की फिकर!
आँधियों मे अपनों से बिछड़ने का डर!
डाली टूट गई थी पिछली बार,
उजड़ चुका था उसका छोटा सा संसार,
सपने हो चुके थे तितर बितर,
"अन्डे कैसे बचाऊँगी?" अब यही फिकर!

उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?
चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,
मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर....

Thursday, 7 September 2017

निशा प्रहर में

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

बुझती साँसों सी संकुचित निशा प्रहर में,
मिले थे भाग्य से, तुम उस भटकी सी दिशा प्रहर में,
संजोये थे अरमान कई, हमने उस प्रात प्रहर में,
बीत रही थी निशा, एकाकी मन प्रांगण में...

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

कहनी है बातें कई तुमसे अपने मन की!
संकुचित निशा प्रहर अब रोक रही राहें मन की!
चंद घड़ी ही छूटीं थी फुलझरियाँ इस मन की!
सीमित रजनी कंपन ही थी क्या मेरे भाग्यांकण में?

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

मेरी अधरों से सुन लेना तुम निशा वाणी!
ये अधर पुट मेरे, शायद कह पाएँ कोई प्रणय कहानी!
कुछ संकोच भरे पल कुछ संकुचित हलचल!
ये पल! मुमकिन भी क्या मेरे इस लघु जीवन में?

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

शिथिल हो रहीं सांसें इस निशा प्रहर में,
कांत हो रहा मन देख तारों को नभ की बाँहों में,
निशा रजनी डूब रही चांदनी की मदिरा में,
प्रिय! मैं भूला-भुला सा हूँ तेरी यादों की गलियों में!

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

Sunday, 3 September 2017

नवव्याहिता

रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी!
उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी!

नव ड्योड़ी पर, उत्सुक सा वो हृदय!
मानो ढूंढ़ती हो आँखें, जीवन का कोई आशय!
प्रश्न कई अनुत्तरित, मन में कितने ही संशय!
थोड़ी सी घबड़ाहट, थोड़ा सा भय!

दुविधा भड़ी, नजरों से कुछ टटोलती बेसब्र सी वो परी!

कैसी है ये दीवारें, है कैसा यह निलय?
कैसे जीत पाऊँगी, यहाँ इन अंजानों के हृदय?
अंजानी सी ये नगरी, जहाँ पाना है प्रश्रय!
क्या बींध पाऊँगी, मैं साजन का हिय?

दहलीज खड़ी,  मन ही मन सोचती बेसब्र सी वो परी!

छूटे स्नेह के बंधन, हुए हम पत्थर हृदय?
इतर बाबुल के घर, अब अन्यत्र मेरा है आलय!
ये किस बस्ती में मुझको ले आया है समय!
अंजाने चेहरों से क्युँ लगता है भय!

रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी!
उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी!

Saturday, 2 September 2017

झील

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से....

कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता!
मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता!

अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव है उस झील का,
आभा अद्भुद, छटा निराली, चारो तरफ हरियाली,
प्रकृति की प्रतिबिम्ब को खुद में लपेटे हुए,
अपने आप में पूरी पूर्णता समेटे हुए झील का किनारा।

प्यार है मुझको उस ठहरे हुए झील से,
रमणीक लगती मन को सुन्दरता तन की उसके।

कमल कितने ही जीवन के खिलते हैं इसकी जल में,
शान्त लगती ये जितनी उतनी ही प्रखर तेज उसके,
मौन आहट में उसकी स्वर छुपते हैं जीवन के,
बात अपने मन की कहने को ये आतुर नही समुन्दर से।

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से।