यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें बार-बार करता हूँ कि,
रत्ती भर भी छू सकूँ अपने मन के आवेग को,
जाल बुन सकूँ अनदेखे सपनों का,
चून लूँ, मन में प्रस्फुटित होते सारे कमल,
अर्थ दे पाऊँ अनियंत्रित लम्हों को,
न हो इंतजार किसी का, न हो हदें हसरतों की....
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें अनथक करता हूँ कि,
रंग कोई दूसरा ही भर दूँ पीले अमलतास में,
वो लाल गुलमोहर हो मेरे अंकपाश में,
भीनी खुश्बुएँ इनकी हवाओं में लिख दे प्रेम,
सुबासित हों जाएँ ये हवाएँ प्रेम से,
न हो बेजार ये रंग, न हो खलिश खुश्बुओं की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,
कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,
बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,
बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,
इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,
न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की.....
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें निरंतर करता हूँ कि,
रोक लूँ हर क्षण बढ़ते मन के विषाद को,
दफन कर दूँ निरर्थक से सवाल को,
स्नेहिल स्पर्श दे निहार लूँ अपने अक्श को,
सुबह की धूप का न हो कोई अंत,
न हो धूमिल सी कोई शाम, न रात हो विरह की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
चेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें बार-बार करता हूँ कि,
रत्ती भर भी छू सकूँ अपने मन के आवेग को,
जाल बुन सकूँ अनदेखे सपनों का,
चून लूँ, मन में प्रस्फुटित होते सारे कमल,
अर्थ दे पाऊँ अनियंत्रित लम्हों को,
न हो इंतजार किसी का, न हो हदें हसरतों की....
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें अनथक करता हूँ कि,
रंग कोई दूसरा ही भर दूँ पीले अमलतास में,
वो लाल गुलमोहर हो मेरे अंकपाश में,
भीनी खुश्बुएँ इनकी हवाओं में लिख दे प्रेम,
सुबासित हों जाएँ ये हवाएँ प्रेम से,
न हो बेजार ये रंग, न हो खलिश खुश्बुओं की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,
कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,
बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,
बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,
इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,
न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की.....
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें निरंतर करता हूँ कि,
रोक लूँ हर क्षण बढ़ते मन के विषाद को,
दफन कर दूँ निरर्थक से सवाल को,
स्नेहिल स्पर्श दे निहार लूँ अपने अक्श को,
सुबह की धूप का न हो कोई अंत,
न हो धूमिल सी कोई शाम, न रात हो विरह की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
कोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
चेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 16 फरवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद दी। यह रचना, मेरे दिल के बहुत ही करीब है। वस्तुतः मेरे कविताओं के संग्रह की किताब भी इसी शीर्षक से ली गई है। इसे पुनःजीवन देने हेतु आभार।
Deleteकोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
ReplyDeleteचेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...
यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की.…दिल में उतरती हुई रचना बहुत बधाई हो आपको आदरणीय
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया शकुन्तला जी। बसंतोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करे।
Deleteकंटकविहीन खिल जाये गुलाब की डाली,
ReplyDeleteबहुत खूब
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया भारती जी। बसंतोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करे।
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