न जाने, दर्द का कौन सा शहर है अन्दर,
लिखता हूँ गीत, तो आँखें रीत जाती हैं,
कहता हूँ गजल, तो आँखें सजल हो जाती हैं...
ये कशमकश का, कौन सा दौर है अन्दर,
देखता हूँ तुम्हें, तो आँखे भीग जाती हैं,
सोचता हूँ तुम्हें, तो आँखें मचल सी जाती हैं...
इक रेगिस्तान सा है, मेरे मन का शहर,
ये विरानियाँ, इक तुझे ही बुलाती है,
तू मृगमरीचिका सी, बस तृष्णा बढाती है...
ये कशमकश है कैसी, ये कैसा है मंजर,
जो देखूँ दूर तक, तू ही नजर आती है,
जो छूता हूँ तुम्हें, सायों सी फिसल जाती है...
न जाने, अब किन गर्दिशों का है कहर,
पहर दो पहर, यादों में बीत जाती है,
ये तन्हाई मेरी, कोई गजल सी बन जाती है....
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