Thursday, 15 March 2018

गुमसुम

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

न ही हृदय में आह के स्वर,
न ही भाव में पलते प्रवाह के ज्वर,
निस्तेज पड़ी मुख की आभा,
बुझी सी है वो तेज प्रखर.....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

मन के भीतर कैसा उद्वेलन?
अपने ही मन से कैसा निराश प्रश्न?
उद्वेलित साँसों में कैसा जीवन?
विक्षोभित ये हृदय के स्वर....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर!

नयन में ताराविहीन गगन,
साँसों के प्रवाह में उठती ये लपटें,
अगन के प्रदाह में जलता मन,
क॔पकपाते से ये तेरे स्वर....

हो कहाँ गुमसुम, किस विक्षोभ के घर....

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