Saturday, 3 March 2018

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

No comments:

Post a Comment