Thursday, 5 July 2018

आलिंगन

अब उम्र हुई! अब है कहां वो आलिंगन?

कभी इक तपिश थी बदन में,
सबल थे ये मेरे कांधे,
ऊंगलियों में थी मीठी सी चुभन,
इक व्यग्रता थी,
चंचलता थी चेहरे पर,
गीत यूं ही बज उठते थे मन में,
अंजाने से धुन पर थिरकते थे कदम,
न ही थे अपने आप में हम,
व्यग्र रहते थे तुम भी,
भींचकर ले लेने को मेरा ये आलिंगन!

कितने करीब थे दूरियों में हम,
न ही थी ये तन्हाई,
न ही था कभी उन दूरियों का गम,
न ही चिन्ता थी कोई,
न था कोई फिक्र,
बस इक ख्याल था मन में,
न ही किसी सवाल में उलझे थे हम,
बस इक स्वप्न सा परिदृश्य,
यूं ही बहकी सी तुम,
और आगोश में वही भरपूर आलिंगन!

पर अब उम्र हुई! अब विरह का है आलिंगन!

शिथिल से शरीर में अब है हम,
झुर्रियों में दफन है तपिश,
जमाने भर का बोझ धरा है कांधो पर,
भारी है सांसों का प्रवाह,
झुक चुकी है कमर,
अनगिनत से कई सवाल में,
अब बन चुके हो बस इक ख्याल तुम,
इक दृश्य है अक्श तुम्हारा,
स्वप्न हो बस अब तुम,
और खाली-खाली है मेरा ये आलिंगन!

अब उम्र हुई! अब विरह भरा है ये आलिंगन!

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