आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!
उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......
या है ये प्रीत की ही,
रंग-रंगीली सी,
रीत कोई!
या सज कर,
उस सुनहरे मंच पर,
क्षितिज को,
वो सुनाता है गीत कोई!
क्या मिलन की चाह में, रोज ढ़ल जाता है सूरज!
उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......
डूब जाता है सूरज......
या है मिलन की शाम ये,
या है विरह का,
टूटा जाम ये!
बिखरे हैं,
जो उस फलक पर,
छलकते हैं,
जो पैमानों में उतर कर!
या दीवानों सा, फलक पर बिखर जाता है सूरज!
उतर कर क्यूँ गगन से,
डूब जाता है सूरज......
डूब जाता है सूरज......
आकर जमीं पर,
क्षितिज को,
क्यूँ चूम जाता है सूरज!
लाल से हैं भाल,
वो गगन है या है ताल,
है आँखों में हया, या नींद में ऊँघ जाता है सूरज!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (10-06-2019) को "बेरोजगारी एक सरकारी आंकड़ा" (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय 🙏
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteप्रकृति की रमणीयता को दर्शाती सुंदर रचना
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार जून 11, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन👍👌
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteवाह!!पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूबसूरत रचना ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteबहुत ही सुंदर भाव ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteबहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
ReplyDeleteसादर
सादर आभार आदरणीय
Deleteबहुत खूबसूरत पंक्तियां
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ....
Deleteस्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर।