तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!
फिर भी, बांध लेती है तरसते चितवनों को,
एक आशा दे ही देती है, उजड़े मनों को,
पिरोकर विश्वास को, जरा सा!
तरसते चितवनों को,
सींच जाती है, सूक्ष्म कुहासा!
जगाकर आस, निरन्तर करती लघु प्रयास,
आच्छादित कर ही लेती है, उपवनों को,
भिगोकर वसुंधरा को, जरा सा!
विचलित चितवनों को,
त्राण जाती है, सूक्ष्म कुहासा!
टपकती है रात भर, धुन यही मन में लिए,
जगा पाऊँगी मैं कैसे, सोए उम्मीदों को,
जगाकर जज़्बातों को, जरा सा!
मृतपाय चितवनों को,
जगा जाती है, सूक्ष्म कुहासा!
तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-09-2019) को "आलस में सब चूर" (चर्चा अंक- 3467) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार आदरणीय ।
Deleteटपकती है रात भर, धुन यही मन में लिए,
ReplyDeleteजगा पाऊँगी मैं कैसे, सोए उम्मीदों को,
जगाकर जज़्बातों को, जरा सा!
मृतपाय चितवनों को,
जगा जाती है, सूक्ष्म कुहासा!... बेहतरीन सृजन सर
सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया अनीता जी ।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय ओंकार जी।
Deleteतरसते नयनों के लिए ये छोटी सी उमीद ही काफी है | मन को स्पर्श करते भावों से सजी रचना पुरुषोत्तम जी | आपकी लेखनी का प्रवाह यूँ ही बना रहे मेरी शुभकामनायें |
ReplyDeleteसदैव कृतज्ञ हूँ आपका आदरणीया रेणु जी। आपका स्नेह ही मेरा संबल है।
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