Sunday, 22 September 2019

मकर जाल

उम्र गुजरी, प्रश्नों के इक मकर जाल में,
उस पार उतरा, था मैं जरा सा,
अंतिम साँसें, गिन रही थी प्रश्न कई,
सो रही थी, मन की जिज्ञासा खोई हुई,
कुछ प्रश्न चुभते मिले, शूल जैसे,
जगा गई थी, मेरी जिज्ञासा!

उभरते हैं प्रश्न कई, मकर जाल बनकर!
जन्म लेती है, इक नई जिज्ञासा,
नमीं को सोख कर, जमीं को बींध कर,
जैसे फूटता हो बीज कोई, अंकुर बनकर,
प्रश्न नया, उभरता है एक फिर से,
जागती है, इक नई जिज्ञासा!

उलझी प्रश्न में, सुलझी कहाँ ये जिंदगी!
बना इक सवाल, ये ही बड़ा सा,
हर प्रश्न के मतलब हैं दो, उत्तर भी दो,
खुद राह कोई, मुड़ कर कहीं गया है खो,
तो करता कोई क्यूँ, फिर प्रश्न ऐसे,
है जाल में, उलझी जिज्ञासा!

उलझाए हैं ये प्रश्न, मकर जाल बनकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

7 comments:

  1. उलझी प्रश्न में, सुलझी कहाँ ये जिंदगी!
    बना इक सवाल, ये ही बड़ा सा,

    जिंदगी हर पल एक नया सवाल ही तो हैं ,बेहतरीन सृजन सादर नमन

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    1. रचना सै जुड़ने हेतु साधुवाद आदरणीया।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-09-2019) को     "बदल गया है काल"  (चर्चा अंक- 3468)   पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत सुन्दर पुरुषोत्तम सिन्हा जी,
    जब एक सवाल के जवाब में दो और सवाल उठ जाएं और फिर उन दो सवालों के जवाब में चार नए सवाल उठ जाएं और सवालों-जवाबों का जाल घने से और घना होता जाए तो मकड़जाल तैयार हो जाता है.

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    1. आपकी प्रतिक्रिया ने रचना की आत्मा को छुआ है। सादर आभार आदरणीय ।

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