जीवन, उतने ही दिन मेरा!
जितने दिन, इन पलकों में बसे सवेरा!
आएंगे-जाएंगे, जीवन के ये लम्हे,
हम! लौट कहाँ पाएंगे?
जब तक हैं! हम उनकी यादों में हैं,
कल, विस्मृत हो जाएंगे!
रोज छाएगी, ये सुबह की लाली,
ये ना, हमें बुलाएंगी!
सांझ किरण, उपवन की हरियाली
ये भी, हमको भुलाएंगी!
पलकों में भर लूँ, मूंदने से पहले,
कैद कर लूँ, सपने!
जोर लूँ, कुछ गांठें टूटने से पहले,
कल, फिर ना हो अपने!
जीवन, उतने ही दिन मेरा!
जितने दिन, इन पलकों में बसे सवेरा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 22 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteशुभ प्रभात, बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteवाह
ReplyDeleteशुभ प्रभात, आभारी हूँ आदरणीय ।
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.01.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3589 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
शुभ प्रभात, बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteजीवन, उतने ही दिन मेरा!
ReplyDeleteजितने दिन, इन पलकों में बसे सवेरा! बहुत सुंदर रचना
शुभ प्रभात, बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteखूबसूरत सृजन
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ज्योति जी।
Delete