Monday, 2 March 2020

कैसी फगुनाहट

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

खून-खून, है ये फागुन,
धुआँ-धुआँ, उम्मीदें,
बिखरे, अरमानों के चिथरे,
चोट लगे हैं गहरे,
हर शै, इक बू है साजिश की,
हर बस्ती, है मरघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

छलनी-छलनी, ये मन,
छलकी सी, आँखें,
छूट चले, आशा के दामन,
रूठ चले हैं रंग,
डूब चुके, हृदय के तल-घट,
छूट, चुके हैं पनघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

बस्ती थी, ये कल-तक,
है अब, ये मरघट,
घुल चुके भंग, इन रंगों में,
धुल चुके हैं अंग,
उड़ चले गुलाल, सपनों से,
अब कैसी, फगुनाहट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!
हूँ, दंगों से आहत!
ऐ फगुनाहट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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कैसी फगुनाहट (मेरी आवाज मे You Tube पर इस रचना को सुनें)
https://youtu.be/jV0W5oNbBAU

36 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 02 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(18-02-2020 ) को " करना मत कुहराम " (चर्चाअंक -3629) पर भी होगी

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का

    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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  3. काश ! कोई तो सुनता यह पुकार..


    सप्ताह भर बाद होली का पर्व,
    पर कैसा पर्व जब इंसान एक दूसरे के रक्त से होली खेल रहा हो
    और प्रबुद्ध लोग विभिन्न चैनलों के मनोरंजन कक्ष में बैठकर डिबेट के नाम पर मछली बाजार सजाए हो
    पता नहीं ऐसे लोगों में से कितनों ने दंगा स्वयं झेला होगा
    यहाँ तो अपने बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं जब वाराणसी में दंगा होने पर हमारे अभिभावक हम लोगों को पलंग के नीचे छुपा कर स्वयं दरवाजे पर रात भर खड़े रहते थे
    और दिन में मैं किसी तरह से गली-गली घूम कर खाने का सामान जुटाया करता था, जब भी अवसर मिलता था,
    पुलिस वाले अंकल जी कह खाली झोली दिखला दिया करता था..।

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    1. आदरणीय शशी जी, आपकी व्यथा तो वाकई अति पीड़ा दायक है। मैं तो सिर्फ इसे महसूस कर ही व्यथित हूँ । अपने काॅलेज के दिनों में एक दंगे की सुनी सुनाई बातें याद हैं, वह अत्यंत ही खौफनाक व भयंकर था। इन्सानों में जब हैवान प्रबल हो उठते है तब ही ऐसी घटनाएँ घटित होती है । विचारणीय व चिन्ताजनक है यह तथ्य। शेष ईश्वर की कृपा ।

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  4. बेहद सशक्त और सटीक लिखा आपने ...

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    1. प्रथमतः हार्दिक स्वागत और आभार। आपकी प्रतिक्रिया पाकर मैं अत्यंत हर्षित हूँ । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।

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  5. बस्ती थी, ये कल-तक,
    है अब, ये मरघट,
    घुल चुके भंग, इन रंगों में,
    धुल चुके हैं अंग,
    उड़ चले गुलाल, सपनों से,
    अब कैसी, फगुनाहट!
    पुरुषोत्तम जी , कविकर्म इक इन्सान को दुसरे इंसान की संवेदनाओं से जोड़ता है |जब समाज में सुख शांति हो तभी कवि की कलम आहलादित हो भावों से भरी रचनाएं रचता है |पर यदि उसके आसपास का वातावरण अराजकता और वैमनस्य की चपेट में आया हो तो कैसी फगुनाहट और क्कैसा उसका इंतजार !|बहुत ही गहन पीड़ा भाव समेट रही ये रचना है अपने भीतर |सादर -

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    1. आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया हमेशा ही उत्साहवर्धन करती रही है । कवि कर्म से जुडा हूँ, अतः आहत हो उठता हूँ परन्तु सम्भलना भी आवश्यक है । हार्दिक धन्यवाद आदरणीया रेणु जी।

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  6. नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 03 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!


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  7. बस्ती थी, ये कल-तक,
    है अब, ये मरघट,
    घुल चुके भंग, इन रंगों में,
    धुल चुके हैं अंग,
    उड़ चले गुलाल, सपनों से,
    अब कैसी, फगुनाहट!

    दिल को छूने और झकझोरने वाली रचना



    बधाई

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    1. प्रथमतः, हार्दिक स्वागत है आपका इस ब्लॉग पर आदरणीया जोया जी। आपकी प्रशंसा इस रचना को सार्थकता प्रदान करनेवाली है।
      आपके प्रेरक शब्दों हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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  8. मार्मिक रचना ,मन की छटपटाहट

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    1. जी बिल्कुल सही । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया अनीता जी।

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  9. सामायिक परिस्थितियां इतना क्षोभ और भय उत्पन्न करने वाली है ,आपके लेखन में साफ झलक रहा है , बहुत सार्थक हृदय स्पर्शी रचना।

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    1. हृदयतल से आभार आदरणीया कुसुम जी।

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  10. वाह! पुरुषोत्तम जी ,सुंदर व सटीक । जब इंसान ,इंसान के खून से होली खेल रहा हो तब कैसी फगुनाहट ?

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    1. सत्य है आदरणीया शुभा जी। सादर आभार

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  11. बस्ती थी, ये कल-तक,
    है अब, ये मरघट,
    घुल चुके भंग, इन रंगों में,
    धुल चुके हैं अंग,
    उड़ चले गुलाल, सपनों से,
    अब कैसी, फगुनाहट!... बहुत मार्म‍िक ल‍िखा है स‍िन्हा साहब

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    1. हृदयतल से आभार आदरणीय अलकनंदा जी।

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  12. खून-खून, है ये फागुन,
    धुआँ-धुआँ, उम्मीदें,
    बिखरे, अरमानों के चिथरे,
    चोट लगे हैं गहरे,
    हर शै, इक बू है साजिश की,
    हर बस्ती, है मरघट!

    संग हो, उम्मीदों की आहट!
    तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!.. बहुत ही मार्मिक सृजन आदरणीय

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    1. आपके प्रेरक शब्दों हेतु आभार आदरणीया अनीता जी।

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  13. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-१ हेतु नामित की गयी है। )

    'बुधवार' ०४ मार्च २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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    1. आदरणीय एकलव्य जी, यह मेरे लिए बड़े ही सौभाग्य व सम्मान की बात है कि मेरी रचना,
      कई अन्य विशिष्ट रचनाकारों के साथ, आपके मंच के लिए चयनित हुई है।
      हिन्दी के उत्थान हेतु, आपकी साधना व लगन की जितनी भी प्रशंसा करूँ कम होगी।
      बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।

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  14. उचित है आदरणीय सर कहीं दंगों का शोर तो कहीं यह कोरोना वायरस....भय और दुख से रमे इस माहौल में उत्सव का उत्साह नही बस चीखें है जो आहत कर रही मन को और शायद यही कह रही कि अब कैसी फगुनाहट?
    बहुत खूब लिखा आपने आदरणीय सर। मार्मिक सृजन। सादर प्रणाम 🙏

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    1. आपकी प्रेरक व संवेदनायुक्त शब्दों हेतु आभार आदरणीया आँचल जी।

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  15. संग हो, उम्मीदों की आहट!
    तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!
    सही कहा पुरुषोत्तम जी ! देश के समसामयिक हालात इतने नाजुक हैं ऐसे में कैसी फगुनाहट...
    बहुत ही सुन्दर मार्मिक हृदयस्पर्शी रचना।

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    1. जी आदरणीया सुधा देवरानी जी, आखिर कब तक ऐसी दुर्दशा सहन हो। आपकी प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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  16. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ओंकार जी ।

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  19. आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-१ हेतु इस माह की चुनी गईं नौ श्रेष्ठ रचनाओं के अंतर्गत नामित की गयी है। )

    'बुधवार' २५ मार्च २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"

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    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।


    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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    Replies
    1. आदरणीय एकलव्य जी, यह मेरे लिए बड़े ही सौभाग्य व सम्मान की बात है कि मेरी रचना,
      कई अन्य विशिष्ट रचनाकारों के साथ, आपके मंच के लिए चयनित हुई है।
      हिन्दी के उत्थान हेतु, आपकी साधना व लगन की जितनी भी प्रशंसा करूँ कम होगी।

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