Sunday, 29 March 2020

तुम न आए

तुम न आए....
बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

इस बार, खिल सका न गुलाब!
न आई, कलियों के चटकने की आवाज,
न बजे, कोपलों के थिरकते साज,
न चली, बसंती सी पवन,
कर गए, जाने पतझड़ कब गमन,
वो काँटे भी मुरझाए!

जो तुम न आए!

रह गई, छुपती-छुपाती चाँदनी!
न आई, शीतल सी, वो दुग्ध मंद रौशनी,
छुप चली, कहीं, तारों की बारात, 
चुप-चुप सी, रही ये रात,
सोने चले, फिर वो, निशाचर सारे, 
खोए रातों के साए!

जो तुम न आए!

चुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
ना हुए, कंपित कोई क्षण,
कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
उन दियों को जलाए!

जो तुम न आए!

खुल न सके, मौसम के हिजाब!
न आई, कोयलों के कुहुकने की आवाज,
न बजे, पंछियों के चहकते साज,
न सजे, बागों में वो झूले,
खोए से सावन, वो बरसना ही भूले,
सब मन को तरसाए!

बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

10 comments:

  1. Replies
    1. आदरणीया मयंक जी, प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से आभार।
      आशा है कोरोना संक्रमण से आप खुद को और पूरे परिवार को सुरक्षित रख रहे होंगे।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (30-03-2020) को 'ये लोग देश हैं, देशद्रोही नहीं' ( चर्चाअंक - 3656) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  3. सुंदर प्रस्तुति

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  4. सुन्दर अभिव्यक्ति

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    1. आदरणीया शशी पुरवार जी, बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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  5. बहुत सुंदर सृजन।

    चुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
    न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
    न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
    ना हुए, कंपित कोई क्षण,
    कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
    उन दियों को जलाए!
    शानदार।

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