तुम न आए....
बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!
इस बार, खिल सका न गुलाब!
न आई, कलियों के चटकने की आवाज,
न बजे, कोपलों के थिरकते साज,
न चली, बसंती सी पवन,
कर गए, जाने पतझड़ कब गमन,
वो काँटे भी मुरझाए!
जो तुम न आए!
रह गई, छुपती-छुपाती चाँदनी!
न आई, शीतल सी, वो दुग्ध मंद रौशनी,
छुप चली, कहीं, तारों की बारात,
चुप-चुप सी, रही ये रात,
सोने चले, फिर वो, निशाचर सारे,
खोए रातों के साए!
जो तुम न आए!
चुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
ना हुए, कंपित कोई क्षण,
कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
उन दियों को जलाए!
जो तुम न आए!
खुल न सके, मौसम के हिजाब!
न आई, कोयलों के कुहुकने की आवाज,
न बजे, पंछियों के चहकते साज,
न सजे, बागों में वो झूले,
खोए से सावन, वो बरसना ही भूले,
सब मन को तरसाए!
बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सही चिन्तन,
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
आदरणीया मयंक जी, प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से आभार।
Deleteआशा है कोरोना संक्रमण से आप खुद को और पूरे परिवार को सुरक्षित रख रहे होंगे।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (30-03-2020) को 'ये लोग देश हैं, देशद्रोही नहीं' ( चर्चाअंक - 3656) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
सादर आभार
Deleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय ओंकार जी।
Deleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआदरणीया शशी पुरवार जी, बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteचुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
ना हुए, कंपित कोई क्षण,
कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
उन दियों को जलाए!
शानदार।
हार्दिक आभार आदरणीया कुसुम जी।
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