बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार दी।
Deleteबहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय मयंक जी।
Deleteवाह... बहुत खूब सिन्हा साब।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय रोहितास जी।
Deleteवाह बेहद उम्दा आदरणीय सर। बहुत खूब लिखा आपने।
ReplyDelete" फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!"
वाह्ह्ह!
सादर प्रणाम 🙏
बहुत-बहुत धन्यवाद आँचल जी
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 10 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteवाह!आपकी एक से बढकर एक रचनाएँ पढने को मिली आज पुरुषोत्तम जी 👌👌
ReplyDeleteमुक्तकंठ प्रशंसा व सदैव सहयोग हेतु आभारी हूँ आदरणीया शुभा जी। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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