Saturday, 30 May 2020

करवट

सो जाऊँ कैसे, मैं, करवटें लेकर!
पराई पीड़ सोई, एक करवट,
दूजे करवट, पीड़ पर्वत,
व्यथा के अथाह सागर, दोनो तरफ,
विलग हो पाऊँ कैसे!
सो जाऊँ कैसे?
सत्य से परे, मुँह फेर कर!

देखूँ ना कैसे, मैं औरों के गम!
अंकुश लगाऊँ कैसे, इन संवेदनाओं पर,
वश धारूँ कैसे, मन की वेदनाओं पर,
जड़-चेतन बनूँ मैं कैसे?
रख पाऊँ कैसे, चिंतन-विहीन खुद को,
रह जाऊँ कैसे, सर्वथा अलग!
सो जाऊँ, कैसे!
सत्य से परे, करवटें लेकर!

तकता हूँ गगन, जागा हुआ मैं!
जागी है वेदना, एक करवट,
दूजे करवट, पीड़ पर्वत,
नीर निर्झर, नैनों से बहे, दोनों तरफ,
अचेतन हो जाऊँ कैसे!
सो जाऊँ कैसे?
सत्य से परे, मुँह फेर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 25 May 2020

कचोट

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

अकाल था, या शून्य काल?
कुछ लिख भी ना पाया, इन दिनों....
रुठे थे, जो मुझसे वे दिन!
छिन चुके थे, सारे फुर्सत के पल,
लुट चुकी थी, कल्पनाएँ,
ध्वस्त हो चुके थे, सपनों के शहर,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

विहान था, या शून्य काल?
हुए थे मुखर, चाहतों में पतझड़....
ठूंठ, बन चुकी थी टहनियाँ,
कंटको में, उलझी थी कलियाँ,
था, अवसान पर बसन्त,
मुरझाए थे, भावनाओं के गुलाब,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

सवाल था, या शून्य काल?
लिखता भी क्या, मैं शून्य में घिरा....
अवनि पर, गुम थी ध्वनि!
लौट कर आती न थी, गूंज कोई,
वियावान, था हर तरफ,
दब से चुके थे, सन्नाटों में सृजन,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 20 May 2020

COVID 19: इक तलाश

COVID 19: अविस्मरणीय संक्रमण के इस दौर में, कोरोना से खौफजदा जिन्दगियों की चलती फिरती लाशों के मध्य, जिन्दगी एक वीभत्स रूप ले चुकी है। हताशा में यहाँ-वहाँ भटकते लोग, अपनी कांधों पे अपनी ही जिन्दगी लिए, चेतनाशून्य हो चले हैं । मर्मान्तक है यह दौर। न आदि है, ना ही अंत है! हर घड़ी, शेष है बस, इक तलाश ....

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

हर तरफ, खौफ के मध्य!
ढूंढती है, जिन्दगी को ही जिन्दगी!
शायद, बोझ सी हो चली, है ये जिन्दगी,
ढ़ो रहे, वो खुद, अपनी ही लाश,
जैसे, रह गई हो शेष,
इक तलाश!

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

अजीब सा, इक मौन है!
जिन्दगी से, जिन्दगी ही, गौण है!
चल रहे वे अनवरत, लिए एक मौनव्रत,
पर, गूंजती है, उनकी सिसकियाँ!
उस आस में, है दबी,
इक तलाश!

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

न आदि है, ना ही अंत है!
उन चेतनाओं में, सुसुप्त प्राण है,
उनकी कल्पनाओं में, इक अनुध्यान है,
उन वेदनाओं में, इक अजान है,
बची है, श्याम-श्वेत सी,
इक तलाश!

सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 8 May 2020

उड़ चले विहग

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

उन्हीं, असीम सी, रिक्तताओं में,
हैं कुछ, ढ़ूंढ़ने को मजबूर,
मुट्ठी भर आसमां, कहीं गगन पे दूर,
या, अपना, कोई आकाश,
लिए, अंतहीन सा, इक तलाश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

गुम हैं कहीं, पंछियों के कलरव,
कहीं दूर जैसे, उन से हैं रव,
शून्य में घुला, वो गगन का किनारा,
जैसे, संगीत ही हो बेसहारा,
लिए, कलरव में, सुर की तलाश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

अपनी समझ, अपनी विवशता,
मन में दबाए, एक चिन्ता,
घिर कर, आपदाओं में, बिखरे सदा,
फिर से, न लौटने को विवश,
लिए, दुख में, इक सुख की आश!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

आसमाँ की, उन्हीं, गहराईयों में,
ढ़ूंढ़ने को, फिर से, चन्द्रमा,
अंधियारे क्षणों में, उजालों के क्षण,
हताशा में, आशा का आंगन,
लिए, अनबुझ सी, वो ही प्यास!

उड़ चले विहग, क्षितिज पे कहीं दूर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 6 May 2020

प्याले

कल तलक, छलक ही जाते थे ये प्याले,
होठों तलक, यूँ आते-आते!
कोलाहल, वो कल के,
खन-खन वो, हल्के-हल्के से,
ठहाकों के गूंज, थे जो दो पल के,
विस्मित से, कर गए वो पल,
विस्तृत हुए ये अस्ताचल,
सिमटने लगे फलक!

चुप भी करो, बस यूँ ही, तसल्ली न दो,
हो चले हैं, खाली ये प्याले,
छलकेंगे, अब ये कैसे,
छू लूँ, तो खनक ही जाएंगे!
हैं गम से ये भरे, टूट ही जाएंगे,
थम जाने दो, ये कोलाहल,
पी चुके, हम, हलाहल,
सर्द आहें न भरो!

गर हो संभव, अतीत, वो ही लौटा दो,
मिटा दो, व्यतीत पलों को,
मोड़ दो, वक्त के रुख,
ये टुकड़े, हृदय के, जोड़ दो,
फिर से छलकाओ, वो ही प्याले,
ठहर जाएं, बहते ये पल,
आए ना, अस्ताचल,
गर हो ये संभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 2 May 2020

लाॅकडाउन

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

बीता हूँ कितना, कितना मैं बचा हूँ?
कितना, मैं जीवन को जँचा हूँ,
हूँ शेष, या अवशेष हूँ,
भस्म हूँ या भग्नावशेष हूँ,
या हवन की रिचाओं में रचा हूँ!

उलझाते रहे, बीतते लम्हों के हिस्से,
छीनते रहे, मुझको ही मुझसे,
मेरे, जीवन के किस्से,
कैद हो चले, मेरे वो कल,
बचे हैं शेष, आखिरी ये हिस्से!

कतई ऐसा न था, जैसा मैं आज हूँ,
जैसे पहेली, या मैं इक राज हूँ,
बिल्कुल, अलग सा,
तन्हा, सर्वथा लाॅकडाउन हूँ,
बुत इक अलग , मैं बन गया हूँ !

सम्भाल लूँ अब, जो थोड़ा बचा हूँ!
जो उनकी, किस्सों में रचा हूँ,
बीत जाना, भी क्या?
तनिक शेष, रह जाऊँ यहाँ,
यूँ ही व्यतीत हो जाना भी क्या?

उलझे ये दिन है, कितने सवालों में!
घिर कर, अपने ही उजालों में, 
जीवन के जालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)