तू, क्यूँ खुद पर, इतना करे गुमान!
देने वाला वो, और लेने वाला भी वो ही,
बस, ये मान! क्यूँ बनता अंजान!
ढ़ल जाते हैं दिन, ढ़ल जाती है ये शाम,
उनके ही नाम!
ईश्वर के हाथों, इक कठपुतली हम!
हैं उसके ही ये मेले, उस में ही खेले हम,
किस धुन, जाने कौन यहाँ नाचे!
हम बेखबर, बस अपनी ही गाथा बाँचे,
बनते हैं नादान!
ये है उसकी माया, तू क्यूँ भरमाया!
खेल-खेल में, उसने ये रंग-मंच सजाया,
सबके जिम्मे, बंधी इक भूमिका,
पात्र महज इक, उस पटकथा के हम,
बस इतना जान!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एक सत्य प्रसंग से प्रेरित .....
दान देते वक्त, संत रहीम, जब भी हाथ आगे बढ़ाते थे, तो शर्म से उनकी नज़रें नीचे झुक जाती थी।
यह बात सभी को अजीब सी लगती थी! इस पर एक संत ने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख भेजीं -
"ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ, त्यों त्यों नीचे नैन।।"
अर्थात्, रहीम! तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें, तुम्हारे नैन, नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?
संत रहीम ने जवाब में लिखा -
"देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं, तासौं नीचे नैन।।"
अर्थात्, देने वाला तो, मालिक है, परमात्मा है, जो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, रहीम दे रहा है। यही सोच कर मुझे शर्म आती है और मेरी नजरें नीचे झुक जाती हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-12-2020) को "ले के आयेगा नव-वर्ष चैनो-अमन" (चर्चा अंक-3928) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आभारी हूँ आदरणीय
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ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
27/12/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
आभारी हूँ आदरणीय
Deleteसब कुछ उस इश्वर का ही एहसास है ... देना लेना सब उसी को उसी से है ... पर इंसान इसी भ्रम में रहता है सब उसका है ...
ReplyDeleteआदरणीय नसवा सर, बहुत दिनों बाद पुनः आपका आशीर्वचन मिला। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 26 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
आभारी हूँ आदरणीया। ।।।
Deleteजैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें, तुम्हारे नैन, नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?
ReplyDeleteक्या बात!
यह हमारी सोच समझ की उपज है कि हम कबीर की वाणी को अमल करते हैं और अपनी विरासत को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं।
सादर।
आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया पाकर प्रसन्न हूँ आदरणीया सधु जी। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय शान्तनु जी। आभारी हूँ।
Deleteसत्य एवम सटीक लिखा आपने ...
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया सदा जी। आभार।
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया भारती जी। आभार।
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय अभिलाषा जी।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteआदरणीय जोशी साहब, शुभ संध्या व आभार
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन सर।
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया आदरणीया। ।।।
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