है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!
छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास,
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!
है, दूर कितना, कितने पास!
हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश!
है, दूर कितना, कितने पास!
गुजरते हो, कभी, मुझको यूँ ही छूकर,
जगा जाते हो, कभी जज्बात,
पल-पल, भींच लेते हो, भरकर अंकपाश,
शालीन सा, पर, चंचल है कितना!
मेरा आकाश!
है, दूर कितना, कितने पास!
काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!
है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बेहतरीन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 07 फरवरी को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 08 फ़रवरी 2021 को 'पश्चिम के दिन-वार' (चर्चा अंक- 3971) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Delete
ReplyDeleteहो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश....अतिसुंदर रचना बधाई हो आपको आदरणीय
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteछू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
ReplyDeleteकभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास,
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!..बहुत ही सुंदर अंतर्मन को छूती रचना..
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार अभिनन्दन
Deleteमुग्ध करती सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार अभिनन्दन आदरणीय शान्तनु सान्याल जी।
Deleteआपको पढ़ना अच्छा लगता है ।
ReplyDeleteआपकी प्रशंसा पाकर मंत्रमुग्ध हूँ। शुक्रिया आभार आदरणीया अमृता तन्मय जी।
Delete
ReplyDeleteकाश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!
निशब्द हूँ !
आदरणीया रेणु जी,
Deleteआपकी प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूँ और शब्दविहीन भी। आभार व्यक्त करूँ तो कैसे? सतत् आपने सराहा, मान बढ़ाया, यह भार उतारूँ कैसे?