Sunday, 7 February 2021

दूर कितना

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास, 
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

गुजरते हो, कभी, मुझको यूँ ही छूकर,
जगा जाते हो, कभी जज्बात,
पल-पल, भींच लेते हो, भरकर अंकपाश,
शालीन सा, पर, चंचल है कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

24 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज रविवार 07 फरवरी को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 08 फ़रवरी 2021 को 'पश्चिम के दिन-वार' (चर्चा अंक- 3971) पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  3. हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
    बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
    पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
    गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
    मेरा आकाश....अतिसुंदर रचना बधाई हो आपको आदरणीय

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  4. छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
    कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
    पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास,
    द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
    मेरा आकाश!..बहुत ही सुंदर अंतर्मन को छूती रचना..

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  5. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
    सादर

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    1. हार्दिक आभार अभिनन्दन आदरणीय शान्तनु सान्याल जी।

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  7. आपको पढ़ना अच्छा लगता है ।

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    1. आपकी प्रशंसा पाकर मंत्रमुग्ध हूँ। शुक्रिया आभार आदरणीया अमृता तन्मय जी।

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  8. काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
    इतने खाली, ये शहर न होते!
    गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
    वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
    मेरा आकाश!
    निशब्द हूँ !

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    1. आदरणीया रेणु जी,
      आपकी प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूँ और शब्दविहीन भी। आभार व्यक्त करूँ तो कैसे? सतत् आपने सराहा, मान बढ़ाया, यह भार उतारूँ कैसे?

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