Wednesday, 24 March 2021

स्वप्न कोई खास

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

समेट कर, सारी व्यग्रता,
भर कर, कोई चुभन,
बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
सिमटती वो सांझ,
डूबता, गगन,
कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

दीप तले, सिमटती रात,
वो, अधूरी सी बात,
कोई जज्बात लिए, वो सांझ की दुल्हन,
डूबता सा आकाश,
खींचता मन,
दिलाता रहा, उन आहटों का पूर्वाभास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

12 comments:


  1. उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास। बहुत सुंदर रचना बधाई आपको आदरणीय

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 24 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. पुरुषोत्तम जी
    अहसास को बहुत खास ढंग से बुना आपने ।
    उलझे नैनों से स्वप्न भी बुन लिए । बेहतरीन ।

    सिमटता सा सांझ,
    साँझ शब्द स्त्रीलिंग है ,सिमटती सी होना चाहिए था मेरे हिसाब से । बाकी कवि का मन ।
    आभाष की जगह आभास लिखें ।
    मेरी बात को अन्यथा न लीजिएगा ।
    वर्तनी की गलतियाँ रचना की खूबसूरती कम कर देती हैं ।

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    1. आदरणीया, ध्थानाकृष्ट कराने हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं भी कुछ उधेड़बुन में ही था। समयाभाव ...
      आभारी हूँ आपका।
      आपकी प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद। ।।।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-03-2021 को चर्चा – 4,016 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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  5. समेट कर, सारी व्यग्रता,
    भर कर, कोई चुभन,
    बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
    सिमटती वो सांझ,
    डूबता, गगन,
    कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
    अधीर सा करता, एक आभास!...बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन सर।
    सादर नमस्कार।

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    1. विनम्र आभार आदरणीया अनीता जी।।।।।

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