Tuesday, 29 June 2021

रुबरू वो

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

थाम कर अपने कदम, रुक चला यूँ वक्त,
पहर बीते, उनको ही निहार कर,
लगा, बहते पलों में, समाया एक छल हो,
ज्यूँ, नदी में ठहरा हुआ जल हो,
यूँ हुए थे, रूबरू वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

शायद, भूले से, कोई लम्हा आ रुका हो,
या, वो वक्त, थोड़ा सा, थका हो,
देखकर, इक सुस्त बादल, आ छुपा हो,
बूँद कोई, तनिक प्यासा सा हो,
रुबरू, यूँ हुए थे वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

पवन झकोरों पर, कर लूँ, यकीन कैसे!
रुक जाए किस पल, जाने कैसे,
मुड़ जाएँ, बिखेर कर, कब मेरी जुल्फें,
बहा लिए जाए, दीवाना सा वो,
बेझिझक, रुबरू हो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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- Dedicated to someone to whom I ADMIRE & I met today and collected Sweet Memories & Amazing Fragrance...
It's ME, to whom I met Today...

8 comments:

  1. वाह!बहुत सुंदर 👌
    सादर प्रणाम सर 🙏

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  2. बहुत खूब आदरणीय

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    1. प्रतिक्रिया हेतु विनम्र आभार आदरणीया

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  3. शायद, भूले से, कोई लम्हा आ रुका हो,
    या, वो वक्त, थोड़ा सा, थका हो,
    देखकर, इक सुस्त बादल, आ छुपा हो,
    बूँद कोई, तनिक प्यासा सा हो,
    रुबरू, यूँ हुए थे वो!
    बीते पल से संवाद करती रचना | हृदयस्पर्शी सृजन पुरुषोत्तम जी |

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    1. अभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।

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