भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!
निश्चित ठौर कहाँ, दरिया की मौजों का,
कोई गौर कहाँ, करता सहरा के कण का,
बहना है, या हवाओं संग बिखरना है,
ठहरे साहिल से, बस कहना है...
भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!
गर देखोगे मुखरा, पाओगे बिखरा सा,
उजाड़ सा, ये सहरा, पाओगे निखरा सा,
फूलों को, इन काँटों पर, खिलना है,
बागों के झूलों से, बस कहना है...
भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!
अंतर है इतना ही, तुझमें और मुझमें,
पग-पग तू ढ़ूंढ़े मुझको, मैं रमता तुझमें,
ढ़ल कर तुझमें ही, मुझको रहना है,
बिन टोके तुझको, ये कहना है...
भूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
अपनी सुध-बुध, ना खो देना!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा 02.09.2021 को चर्चा मंच पर होगी।
ReplyDeleteआप भी सादर आमंत्रित है।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
शुक्रिया
Deleteभूले से, कभी सुधि लेने, आ जाओ तो,
ReplyDeleteअपनी सुध-बुध, ना खो देना!
आहा👌
शुक्रिया
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