छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।
न दिन का पता, न खबर शाम की,
जिन्दगी, सिर्फ यहाँ नाम की,
कितनी अधूरी, हर भोर,
और, अधूरी सी, हर शाम हो चली!
छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।
अधूरे से, कुछ गीत, रहे सदियों मेरे,
टूटे, अभिलाषाओं के तानपूरे,
चुप-चुप, रही ये वीणा,
और, अधखिली उमंगों की कली!
छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।
भोर, चितचोर लगे, तो ये मन जागे,
ये बांध ले, जज्बातों के धागे,
छाए, अंधियारे से साए,
और, सिमटती सी, हर भोर मिली!
छोड़िए भी, शहर से बेहतर थी मेरी गली।
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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