जुदा-जुदा सा लगे, ये दो पल,
चल, कहीं दूर, इन फासलों से निकल!
ले चला, ये पल, और मुझको कहीं,
उस पल, संग तुम थे,
और, ये पल, बड़े अजनबी,
क्या था पता!
ये दो पल, हैं कितने जुदा!
थे पहचाने से, वो पल के साए,
लगे अंजान, इस पल के, सरमाए,
है बदली सी, धुन कोई,
और, बेगाना सा, हर तराना,
अन-मना सा!
गीत, पल के, कितने जुदा!
हो जाएं, न यूं कहीं अजनबी,
यूं ना, भूल जाएं पल के महजबीं,
रंग सारे, हलके हलके,
भींच कर, मूंद लूं, ये पलकें,
अलहदा सा!
है ये रुप रंग, कितने जुदा!
जुदा-जुदा सा लगे, ये दो पल,
चल, कहीं दूर, इन फासलों से निकल!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
आहार आदरणीय रवीन्द्र जी
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया
Deleteविरह भाव को खूब समेटा है ।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर एहसास में सिमटा सृजन।
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय ओंकार जी
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