यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!
यूं जम गए, गम के बादल,
ढ़ल चुका, बेरंग आंचल सांझ का,
चुप रह गई, मुझ संग,
तन्हाईयां मेरी!
यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!
यूं विहंसते, वो फूल कैसे,
मुरझाते रहे, आस में जो धूप के,
बिन खिले ही, रह गए,
रंग सारे कहीं!
यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!
छुप गई, रुत किस ओर,
रुख-ए-रौशन, ज्यूं बन गए बुत,
यूं बुलाते ही, रह गए,
ये ईशारे कहीं!
यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!
यूं थम गए, बढ़ते ये कदम,
ज्यूं थक चुके, ये बादल, वो गगन,
सिमटकर, संग रह गई,
परछाईयां मेरी!
यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 14 फरवरी 2023 को साझा की गयी है
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बेहतरीन सृजन....
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-2-23} को "सिंहिनी के लाल"(चर्चा-अंक 4642) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा