यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!
बह चला, वो दरिया,
करवटें लेती रही, अंजान सी ये जिंदगी,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...
अब न, शीशे में मैं,
और ही शख्स कोई, अब परछाईयों में,
महफिलें, सज रही, हर तरफ,
पर, गुमशुदा मैं!
यूं तो...
ईशारे, अब कहां!
गगन से, अब न पुकारते वो कहकशां,
बिखरी, भीगी सी वे बदलियां,
इन्तजार में, मैं!
यूं तो...
गम, एक मरहम,
इस एकाकी राह, अब वो ही, हमदम,
चुप हैं कितने, वे साजो-तराने,
खामोश सा, मैं!
यूं तो...
यूं तो सर झुकाए,
सह गए, सजदों में वक्त के ये सितम,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...
यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुंदर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 15 जनवरी 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDelete