कौन सा वो जहां, वो कौन सी क्षितिज,
खोई मां कहां?जली, इक चिता,
उस रोज, भस्मीभूत हुई थी वो काया,
उठ चला,
मां का, सरमाया!
पर, बिंबित वही,
नैनों में अंकित, करुणामय रूप वही,
पास सदा,
उसका ही, साया!
शेष, बचे वे स्पर्श,
सारे संदर्भ, सारे सारगर्भित आदर्श,
प्राण अंश,
देती, इक छाया!
पर वे शब्द कहां,
नि:स्तब्ध करते, निश्छल वे नैन कहां,
लुप्त हुआ,
जो भी था पाया!
एकाकी, थी वो,
झेले पति-प्रलाप, सहे दंश सदियों,
वही दुख,
बांट, न पाया!
ले भी ना सका,
ममता के, सुखमय अंतिम वे क्षण,
न सानिध्य,
ही, निभा पाया!
वक्त ही, रूठा,
छांव मेरा, वक्त ने ही, मुझसे लूटा,
सोचूं बैठा,
मंदिर, क्यूं टूटा!
दो पल ही सही,
ले चल मुझे ओ गगन,ओ क्षितिज,
देखूं जरा,
है कैसी मां वहां!
कौन सा वो जहां, वो कौन सी क्षितिज,
खोई मां कहां?

माँ शब्द ही संपूर्ण भावनात्मक अभिव्यक्ति है।
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी रचना सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ अगस्त २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर, माँ सदैव साथ रहती है ।
ReplyDeleteदिवंगत माँ की भावभीनी स्मृतियों को संजोती बहुत ही ह्रदस्पर्शी रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी! हर शब्द माँ को पुकार रहा है पर जाने वाले कब लौट कर आये हैं! माँ की पुण्य स्मृतियों को सादर नमन 🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसादर वंदन
बहुत सुंदर
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