Sunday, 31 December 2017

मेरा ही साया

वो नही कोई पराया, था वो बस मेरा ही साया.......

छाँव तनिक न जिसे रास आया,
कड़ी धूप में ही वो खिल खिलाया,
तन्हा मगर उसने खुद को पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

रहा ढूंढता वो सदा मेरी ही काया,
मेरी ही सासों की धुन पर वो गाया,
पाँवों तले जिसने जीवन बिताया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

किया उम्र भर जिसको पराया,
उसके बिना मैं कभी जी न पाया,
इर्द गिर्द मेरे वो सदा मंडराया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

स्पर्श वो ही मेरा हृदय कर गया,
हाथों से जिसको कभी छू न पाया,
न ममता ने जिसको सहलाया,
वो! पराया नहीं,  था वो मेरा ही साया.......

आत्मा में अब वो मेरे समाया,
घड़ी अन्त का, जब निकट आया,
सिरहाने ही मैने उसको पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

जब चिता पर गया मैं लिटाया,
मुझसे पहले वहाँ आया वो साया,
हौले से उसने भी सहलाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

Thursday, 28 December 2017

अबकी बरस

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

सोच-सोच निंदिया न आए,
बैरी क्युँ भए तुम, दूर ही क्यूँ गए तुम?
वादा मिलन का, मुझसे क्युँ तोड़ गए तुम,
हुए तुम तो सच में पराए!
नैनों में ना ही ये निंदिया समाए,
ओ बैरी सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

भाल पे अब बिंदिया न भाए,
दर्पण में ये मुख अब मुझको चिढाए,
चूड़ियों की खनक, बैरन मुझको सताए,
बैठे हैं हम पलकें बिछाए,
हर आहट पे ये मन चौंक जाए,
क्यूँ भूले सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

पपीहा कोई क्यूँ चीख गाए?
हो किस हाल मे तुम, हिय घबराए?
हूक मन में उठे, तन  सूख-सूख जाये,
विरह मन को बींध जाए,
का करूँ मैं, धीर कैसे धरूँ मैं,
क्यूँ बिसारे सजन, इस बरस भी तुम न आए ......

काश ये मन सम्भल जाए!
अबकी बरस सजन घर लौट आए!
छुपा के रख लूँ, बाहों मे कस लूँ उन्हें,
बांध लू आँचल से उनको,
फिर न जाने दूँ कसम देकर उन्हें,
काश! बैरी सजन, इस बरस घर लौट आए....

इस बरस भी तुम न आए, मन ये भरमाए ......

Tuesday, 26 December 2017

ख्वाब में

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
बह रही थी ये कश्ती फिर उसी चिनाब में,
देखता हूँ मैं आपको,
कभी मझधार के हिजाब में,
या कभी आइने से बहते कलकल आब में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
ये आ गया हूँ मैं कहाँ, पतवार थामे हाथ में,
हसरतों के आब में,
खाली से किसी दोआब में,
या आपकी यादों के किसी अछूते महराब में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
सूखे से वो फूल, जग परे मेरी ही किताब में,
वो देखते हैं बाग में,
खोए है यादों के सैलाब में,
या संजोए हैं ये सपने, टूटकर अपने आप में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

Monday, 25 December 2017

क्षणिक अनुराग

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

दो छंदों का यह कैसा राग?
न आरोह, न अनुतान, न आलाप,
बस आँसू और विलाप.....
ज्यूँ तपती धरती पर,
छन से उड़ जाती हों बूंदें बनकर भाफ,
बस तपन और संताप....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

गीत अधुरी क्यूँ उसने गाई,
दया तनिक भी फूलों पर न आई,
वो ले उड़ा पराग....
लिया प्रेम, दिया बैराग,
ओ हरजाई, सुलगाई तूने क्यूँ ये आग?
बस मन का वीतराग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

सूना है अब मन का तड़ाग,
छेड़ा है उस बैरी ने यह कैसा राग!
सुर विहीन आलाप....
बे राग, प्रीत से विराग,
छम छम पायल भी करती है विलाप,
बस विरह का सुहाग.....
यह कैसा राग-विहाग, यह कैसा अनुराग?

कर क्षणिक अनुराग, वो भँवरा ले उड़ा पराग....

Sunday, 24 December 2017

अपरुष पुरुष

अपरुष हैं जो, सर्वथा है पुरुषत्व वही,
है पुरुष वही, है पुरुषोत्तम वही....

कदापि! वो पुरुष नही, वो पुरुषत्व नहीं, जो........

निर्बल अबला का संघार करे,
बाहु पर, दंभ हजार भरे,
परुष बने, निर्मम अत्याचार करे,
सत्तासुख ले, व्यभिचार करे,
निज अवगुण ढ़ोए, दुराचार करे.....

कदापि! है वो पुरुषत्व नहीं,
वो पुरुष नहीं, वो पुरुषोत्तम नहीं....

अपरुष हैं जो, सर्वथा है पुरुषत्व वही,
है पुरुष वही, है पुरुषोत्तम वही....

सहनशील, सौम्य, काम्य, अपरुष,
मृदु, कोमल, क्रोध-रहित, बेवजह खुश,
है उत्तम वही, वही है पुरुष.....

साहस की वो निष्काम प्रतिमूर्ति,
सत्य के संघर्ष में दे देते हैं जो आहूति,
है नीलकंठ वो, वही है पुरुष....

सुशील, नम्र, स्त्रियोचित्त आचरण,
विपदा घड़ी बनते जो नारी के आवरण,
हैं पुरुषोत्तम वो, वही है पुरुष.....

धीर, गंभीर, स्थिर-चित्त, अपरुष,
मृदुल, उत्कंठ, काम-रहित, निष्कलुष,
है नरोत्तम वही, वही है नहुष.....

अपरुष हैं जो, सर्वथा है पुरुषत्व वही,
है पुरुष वही, है पुरुषोत्तम वही....
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अपरुष
1. जिसमें परुषता या कठोरता न हो; सहृद्य 2. कोमलमृदुल 3. क्रोध-रहित।

मौलसिरी

कह भी दो ना, यूँ मुरझाई हो तुम क्यूँ मौलसिरी?

हर मौसम सदाबहार थे तुम,
प्रकृति के गले का हार थे तुम,
पतझड़ में भी श्रृंगार थे तुम,
खुश्बू लिए बयार थे तुम.....

मुरझाई हो क्यूँ, तुम किससे गई हो हार मौलसिरी?

थे कितने ही विशाल तुम,
हर जवाब में थे इक सवाल तुम,
हरितिमा के थे टकसाल तुम,
गंध चिरपुष्प हर साल तुम.....

कुम्हलाई हो क्यूँ, है किसका तुम्हें मलाल मौलसिरी?

खुश्बुओं में थे लाजवाब तुम,
थे शुष्क ऋतु में झरते आब तुम,
काँटों मे थे खिले गुलाब तुम,
जटिल प्रश्न के थे जवाब तुम.....

मनुहाई हो क्यूँ, क्या टूटे हैं तेरे भी ख्वाब मौलसिरी?

कह भी दो ना, यूँ मुरझाई हो तुम क्यूँ मौलसिरी?
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Saturday, 23 December 2017

हजारदास्ताँ

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

छलक आते हैं, अक्सर जो दो नैनों में,
बांध तोड़कर बह जाते हैं,
जलप्रपात ये, मन को शीतल कर जाते हैं,
अपरिमित निरन्तर प्रवाह ये, 
प्रेम की बरसात ये, क्या बंधेगे परिधि में........

जल उठते हैं, जो गम की आँधी में भी,
शीतल प्रकाश कर जाते हैं,
दावानल ये, गम भी जिसमें जल जाते हैं,
बिंबित चकाचौंध प्रकाश ये,
झिलमिल आकाश ये, क्या बंधेगे परिधि में........

सहला जाते है, जो स्नेहिल स्पर्श देकर,
पीड़ मन की हर जाते हैं,
लम्हात ये, हजारदास्ताँ ये कह जाते हैं,
कोई मखमली एहसास ये,
अपरिमित विश्वास ये, क्या बंधेगे परिधि में........

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

Friday, 22 December 2017

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

Wednesday, 20 December 2017

ख्वाबों के घर

वो ख्वाबों के घर, है शायद कहीं किसी रेत के शहर....

है अपरिच्छन्न ये, सदा है ये आवरणविहीन,
अनन्त फैलाव व्यापक सीमाविहीन,
पर रहा है ये घटाटोप रास्तों पर,
सघन रेत के आवरणविहीन बसेरों पर,
रेत का ये शहर, भटकते है हम अपवहित रास्तों पर...

है ख्वाब ये, कब हकीकत बना है ये यार?
टूटा है ये, फिर से बना है बार बार,
हो चुका है फना, ये हजार बार,
बेमिसाल, फिर बनता रहा है ये हर बार,
रेत का ये शहर, फिर भी लग रहा सदा ही ये उजाड़....

है बस धूँध ये, हर तरफ उठ रहा है धुआँ,
न जाने किस जानिब, मंजिल है कहाँ,
अपवहित से उन रास्तों पर,
भटकते रहे है ये दरबदर सदा,
रेत का ये शहर, है किसको खबर लिए जाए ये कहाँ ...

है परित्यक्त ये, परिगृहीत न हुआ ये कभी,
मध्य रेत के डहडहाता रहा फिर भी,
ये ख्वाब हैं, जिद्दी परिंदों से,
सघन रेत पर भी खिल ही आएंगे,
रेत का ये शहर, अपलाप कर भी न इसे मिटा पाएंगे...

Sunday, 17 December 2017

तन्हा गजल

कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

मेह लिए प्राणों मे, कोई दर्द लिए तानों में,
सहरा में कभी, या कभी विरानों में,
रंग लिए पैमानों में, फैलाता है आँचल.....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

किसी आहट से, पंछी की चहचहाहट से,
कलियों से, फूलों की तरुणाहट से,
नैनों की शर्माहट से, शमाँ देता है बदल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विह्वल सा गीत लिए, भावुक सा प्रीत लिए,
रीत लिए, धड़कन का संगीत लिए,
मन में मीत लिए, विरह में है वो पागल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

विवश कर जाता है, यूँ मन को भरमाता है,
बरसता है, बादल सा लहराता है,
इठलाता है खुद पर, है कितना वो चंचल....
कोई शामोसहर, गाता है कहीं तन्हा सा गजल.....

सहांश

हिस्से मे आए हैं मेरे कुछ बेचैन से पल,
सहांश है ये मेरे...
जो तुमने ही दिए थे कल.....

परस्पर मुझ में ही कहीं ये पिरोए हैं हरपल,
अनुस्यूत हो इस मन में कहीं,
उलझे से धागों की, अन्तहीन सी लड़ी बनकर!
सहरा में किसी एकाकी वृक्ष पर लिपटी लताओं जैसी..
तन मन को गूँधकर तुम यहीं बैठे हो कहीं...

एकाकी सा ये वैरागी मन बेचैन है हरपल,
विमुख क्षण-भर ये तुझसे नहीं,
जाएँ भी ये कहाँ, उन यादों से अनुस्यूत होकर!
ज्यूँ अमरलता कोई जीती हो मरती हो इक डाली पर...
सहांश हैं ये तेरे, यूँ जीते हैं मुझ में ही कही...

वो ही सहांश, नैनों को कर गए हैं सजल,
राग रहित हो चुकी हो जैसे गजल,
दूर तलक फैली है, इक तन्हाई मन की राहों पर,
सूना है ये सहरा, गाते थे जो खुले गेसूओं को देखकर...
अनुस्यूत हो बंधा है, ये मन इनमें ही कहीं....

हिस्से मे आए हैं मेरे ये कुछ बेचैन से पल,
सहांश है ये मेरे...
जो तुमने ही दिए थे कल.....

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सहांश : किसी के साथ रहने या होने पर मिलने वाला अंश या भाग। 
अनुस्यूत: 1. गूँथा या पिरोया हुआ 2. सिला हुआ 3. क्रमबद्ध
4. परस्पर मिला हुआ।

Thursday, 14 December 2017

कत्ल

जीने की आरजू लिए, कत्ल ख्वाहिशों के करता हूँ....

जिन्दा रहने की जिद में, खुद से जंग करता हूँ
लड़ता हूँ खुद से, रोज ही करता हूँ कत्ल....
भड़क उठती बेवकूफ संवेदनाओं का,
लहर सी उमड़ती वेदनाओं का,
सुनहरी लड़ियों वाली कल्पनाओं का,
अन्त:स्थ दबी बुद्धु भावनाओं का,
दबा देता हूँ टेटुआ, बेरहम बन जाता हूँ,
जीने की आरजू लिए, रोज ही कई कत्ल करता हूँ....

यही बेकार की बातें, न देती है जीने, न ही मरने,
करती है हरपल अनर्गल बकवास मुझसे,
भुनभुनाती है कानों में, झकझोरती है मन को,
बड़ी ही वाहियात सी है ये चीजें, 
कहाँ चैन से पलभर भी रहने देती है मुझको,
मन की ये वर्जनाएँ, जीने न देती है मुझको,
कभी तो नजर अंदाज कर देता हूँ मै इन्हे,
ऊबकर फिर कभी, अपनी हाथों से कत्ल करता हूँ.....

जीने की आरजू लिए, रोज ही कत्ल नई करता हूँ....

Wednesday, 13 December 2017

अकेले प्रेम की कोशिश

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें बार-बार करता हूँ कि,
रत्ती भर भी छू सकूँ अपने मन के आवेग को,
जाल बुन सकूँ अनदेखे सपनों का,
चून लूँ, मन में प्रस्फुटित होते सारे कमल,
अर्थ दे पाऊँ अनियंत्रित लम्हों को,
न हो इंतजार किसी का, न हो हदें हसरतों की....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनथक करता हूँ कि,
रंग कोई दूसरा ही भर दूँ पीले अमलतास में,
वो लाल गुलमोहर हो मेरे अंकपाश में,
भीनी खुश्बुएँ इनकी हवाओं में लिख दे प्रेम,
सुबासित हों जाएँ ये हवाएँ प्रेम से,
न हो बेजार ये रंग, न हो खलिश खुश्बुओं की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,
कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,
बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,
बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,
इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,
न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की.....

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें निरंतर करता हूँ कि,
रोक लूँ हर क्षण बढ़ते मन के विषाद को,
दफन कर दूँ निरर्थक से सवाल को,
स्नेहिल स्पर्श दे निहार लूँ अपने अक्श को,
सुबह की धूप का न हो कोई अंत,
न हो धूमिल सी कोई शाम, न रात हो विरह की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

कोशिशें नित-दिन करता हूँ कि,
चेहरे पर छूती रहे सुबह की वो ठंढ़ी धूप,
मूँद लू नैन, भर लूँ आँखो मे वो रूप,
आसमान से छन-छन कर आती रहे सदाएँ,
बूँद-बूँद तन को सराबोर कर जाएँ,
न हो तपती सी किरण, न ही कमी हो छाँव की...

यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की....

Saturday, 9 December 2017

संगतराश

जिंदादिल हूँ, कारीगर हूँ, हूँ मैं इक संगतराश...
तराशता हूँ शब्दों की छेनी से दिल,
बातों की वेणी में उलझाता हूं ये महफिल,
कर लेना गौर, न करना यूँ आनाकानी,
उड़ाना ना तुम यूँ मेरा उपहास,
संगतराश हूँ अलबेला.....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
प्रेम की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

करता हूँ कुछ मनमानी, कुछ थोड़ा सा हास... 
गढ़ जाता हूँ बिंदी उन सूने माथों पे,
सजाता हूँ लरजते से होठों पे कोई तिल,
शरमाता हूँ, यूँ हीं करके कोई नादानी,
ना करना तुम यूँ मेरा परिहास,
मैं संगतराश हूँ अकेला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
हास की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

तन्हाई में ये मेरा दिल, संजोता है सपने खास....
कल्पना आँखों में, उड़ते रंग गुलाल,
साकार सी मूरत, मन में उभरता मलाल,
वही शक्ल, वही सूरत जानी पहचानी,
यूँ ही फिर उड़ाती मेरा उपहास,
मैं संगतराश हूँ मतवाला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
नैनों की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

Friday, 8 December 2017

उपांतसाक्षी

न जाने क्यूँ.....

जाने....
कितने ही पलों का...
उपांतसाक्षी हूँ मैं,
बस सिर्फ....
तुम ही तुम
रहे हो हर पल में,
परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से,
चाहूँ भी तो मैं ....
खुद को...
परित्यक्त नहीं कर सकता,
बीते उस पल से।

उपांतसाक्षी हूँ मैं....
जाने....
कितने ही दस्तावेजों का...
उकेरे हैं जिनपर...
अनमने से एकाकी पलों के,
कितने ही अभिलेख.... 
बिखेरे हैं मन के 
अनगढ़े से आलेख,
परिहृत नही मैं
पल भर भी...
बीते उस पल से।

आच्छादित है...
ये पल घन बनकर मुझ पर,
आवृत है....
ये मेरे मन पर,
परिहित हूँ हर पल,
जीवन के उपांत तक,
दस्तावेजों के हाशिये पर...
उपांतसाक्षी बनकर,
परिदिग्ध हूँ,
परिहृत नही हूँ मै,
पल भर भी...
बीते उस पल से।

न जाने क्यूँ.....

Thursday, 7 December 2017

व्यर्थ का अर्थ

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

लुप्त होते रहे एक-एककर शब्द सारे,
यूँ पन्नों से विलीन हुए, वो जीने के मेरे सहारे,
शायद कमजोर हुई थी ये मेरी नजर,
या शायद, शब्द ही कहीं रहे थे मुझसे मुकर....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

अर्थ शब्दों के, समझ से परे थे सारे,
व्यर्थ थे प्रयत्न, विलुप्त थे शब्दों के वो नजारे,
शायद वक्त ने की थी ये सरगोशी,
लुप्त हुई थी ये हँसी, फैली हुई थी खामोशी....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

ढूंढने चला हूँ मैं, अब वो ही शब्द सारे,
वक्त की सरगोशियों में, जो कर गए थे किनारे,
शायद सुन जाएंगे वो मेरी अनकही,
विलुप्त से वो शब्द, मेरे मन की ही थी कही...

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

क्या व्यर्थ ही जाएंगे, मेरे वो प्रयास सारे?
अर्थपूर्ण से वो शब्द, क्या थे सरगोशियों के मारे?
शायद पन्नों में कहीं छुपे थे वो शब्द,
करके कानाफूसी, मुझे कर गए थे वो निःशब्द....

शब्द ही जब विलीन हो रहे हों, तो अर्थ क्या?

Sunday, 3 December 2017

परिवेश

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ उड़ते हों, फिजाओं में भ्रमर,
उर में उपज आते हों, भाव उमड़कर,
बह जाते हों, आँखो से पिघलकर,
रोता हो मन, औरों के दु:ख में टूटकर.....
सुखद हो हवाएँ, सहज संवेदनशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ खुलते हों, प्रगति के अवसर,
मन में उपजते हो जहाँ, एक ही स्वर,
कूक जाते हों, कोयल के आस्वर,
गाता हो मन, औरों के सुख में रहकर......
प्रखर हो दिशाएँ, प्रबुद्ध प्रगतिशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ बहती हों, विचार गंगा बनकर,
विविध विचारधाराएं, चलती हों मिलकर,
रह जाते हों, हृदय हिचकोले लेकर,
खोता हो मन, अथाह सिन्धु में डूबकर.....
नौ-रस हों धाराएँ, खुला उन्नतशील परिवेश.....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

स्मरण

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग किसी सिक्त क्षण में,
न ही, तुम्हारे रिक्त मन में,
न ही, तुम्हारे उजाड़ से सूनेपन में,
न ही, तुम्हारे व्यस्त जीवन में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे तन-बदन में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बदन से आती हवाओं में,
न ही, तुम्हारी सदाओं में,
न ही, तुम्हारी जुल्फ सी घटाओं में,
न ही, तुम्हारी मोहक अदाओं में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी वफाओं में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे संग अगन के सात फेरों में, 
न ही, तुम्हारे मन के डेरों में,
न ही, तुम्हारे जीवन के थपेड़ों में,
न ही, तुम्हारे गम के अंधेरों में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे उम्र के घेरों में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारे सुप्त विलुप्त भावना में, 
न ही, तुम्हारे कर कल्पना में,
न ही, तुम्हारे मन की आराधना में,
न ही, तुम्हारे किसी प्रार्थना में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारे प्रस्तावना में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

मैं कहीं भी तो न था ....!
न ही, तुम्हारी बीतती किसी प्रतीक्षा में, 
न ही, तुम्हारी डूबती इक्षा में,
न ही, तुम्हारी परिधि की कक्षा में,
न ही, तुम्हारी समीक्षा में,
कहीं भी तो न था मैं तुम्हारी अग्निवीक्षा में ....

स्मरण फिर भी मुझे, सिर्फ तुम ही रहे हर क्षण में ......

Tuesday, 28 November 2017

मैं, बस मैं नहीं

मैं, बस इक मैं ही नहीं.....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रव हूँ, इक धुन हूँ,
हृदय हूँ, आलिंगन हूँ, इक स्पंदन हूँ,
गीत हूँ, गीतों का सरगम हूँ
गूंजता हूँ हवाओं में,
संगीत बन यादों में बस जाता हूँ,
गुनगुनाता हूँ मन में, यूँ मन को तड़पाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं........
इक दिल हूँ, इक धड़कन हूँ,
भावुक हूँ कुछ, थोड़ा बह जाता हूँ,
बंधकर पीड़ा में रह जाता हूँ,
खो जाता हूँ खुद में,
औरों के गम में आहत हो जाता हूँ,
विलखता हूँ मन में, एकान्त जब होता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रोश हूँ, इक आक्रोश हूँ,
गर्म खून हूँ, जुल्म से उबल जाता हूँ,
चुभती बात कहाँ सह पाता हूँ,
विरुद्ध हूँ मैं दमन के,
खुली चुनौती देकर लड़ जाता हूँ,
कलपता हूँ मन में, प्रभावित मैं होता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक राह हूँ, इक प्रवाह हूँ,
कभी रुकता हूँ, कभी चल पड़ता हूँ,
जूझकर रोड़ों से गिर पड़ता हूँ,
समाहित हूँ मैं खुद में,
यूँ राह प्रशस्त कर बढ़ जाता हूँ,
छलकता हूँ मन में, यूँ बस संभल जाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक जीव हूँ, इक जीवन हूँ, 
कभी सही हूँ, तो कभी गलत भी हूँ,
खबर नहीं है की सत्यकाम हूँ,
सत्यापित हूँ मैं खुद में,
बस जीवन को जीता जाता हूँ,
इठलाता हूँ मन में, यूँ खुद को बहलाता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

Sunday, 26 November 2017

24 बरस

दो युग बीत चुके, कुछ बीत चुके हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, बीत चुके है वो दिन,
यूँ जैसे झपकी हों ये पलकें,
मूँद गई हों ये आँखे, कुछ क्षण को,
उभरी हों, कुछ सुलझी अनसुलझी तस्वीरें,
वो सपने, है बेहद ही रंगीन!
फिर सपने वही, वापस ले आया ये मौसम....

कितनी ऋतुएँ, कितने ही मौसम बदले, 
भीगे पलकों के सावन बदले,
कब आई पतझड़, जाने कब गई,
अपलक नैनों में, इक तेरी है तस्वीर वही,
वो सादगी, है बेहद ही रंगीन!
फिर फागुन वही, वापस ले आया ये मौसम....

बाँकी है ये जीवन, अब कुछ पलक्षिण,
थोड़ी सी बीत चुकी हैं साँसें, 
एहसास रीत चुके हैं साँसों में कई,
बची साँसों में, है बस इक एहसास वही,
वो एहसास, है बेहद ही रंगीन!
फिर बसंत वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, कुछ बीते है हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

Saturday, 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Thursday, 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

डोल गया मन

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
सर रखकर 
इठलाई रवि किरण,
झील में 
तैरते फाहों पर, 
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का 
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में 
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

बर्फ के फाहे

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

व्यथित थी धरा, थी थोड़ी सी थकी,
चिलचिलाती धूप में, थोड़ी सी थी तपी,
देख ऐसी दुर्दशा, सर्द हवा चल पड़ी,
वेदनाओं से कराहती, उर्वर सी ये जमी,
सनैः सनैः बर्फ के फाहों से ढक चुकी.....

कुछ बर्फ, सुखी डालियों पर थी जमीं,
कुछ फाहे, हरी पत्तियों पर भी रुकी,
अवसाद कम गए, साँस थोड़े जम गए,
किरण धूप की, कही दूर जा छुपी,
व्यथित जमीं, परत दर परत जम चुकी....

यूँ ही व्यथा तभी, भाफ बन कर उड़ी,
रूप कई बदल, यूँ बादलों में उभरी,
कभी धुआँ, कभी रहस्यमयी सी आकृति,
अविरल बादलों में, अनवरत तैरती,
वेदनाओं से फिर, आक्रांत थी ये संसृति....

यूँ संसृति की जमीं पर, गिरे बर्फ के फाहे,
कुछ घाव भरे, कुछ दर्द उठे अनचाहे,
कभी तृप्त हुए, कभी उभरे हृदय पर छाले,
ठिठुरते से कोहरों में कभी रात गुजारी,
कोमल से फाहों में, वेदना मे घिरी संसृति...

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

Tuesday, 21 November 2017

हाँ मनुष्य हूँ

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

मैं सर्वाहारी, स्तनपयी, होमो सेपियन्स हूँ!
निएंडरथल नहीं, क्रोमैगनाॅन मानव हूँ,
अमूर्त्त सोचने, ऊर्ध्व चलने, बातों में सक्षम हूँ,
तात्विक प्रवीणताएँ सारी हैं मुझमे,
जैव विवर्तन में श्रेष्ठ हूँ, हाँ, हाँ, मैं मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

योनियों मे श्रेष्ठ हूँ, मानव हूँ, कुलश्रेष्ठ हूँ,
84 लाख योनियों में बस 4 लाख हूँ,
अब कैसे समझाऊँ, किस तरह तुझको बतलाऊँ,
ईश्वर की संकल्पना में, इक मैं भी हूँ,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं झूठा हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

सुन लो, कुछ अपने मन में तुम भी बुन लो,
योनि, कितनी इस धरती पर सुन लो,
9 लाख जलचर, 20 लाख वृक्ष, 11 लाख कीड़े,
10 लाख पक्षी, 30 लाख जंगली पशु,
बस 4 लाख मनुष्य, हाँ, हाँ, यही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

पहनता हूँ कपड़े, सर्व विकसित जीव हूँ!
अपने अनुकूल परिवेश कर लेता हूँ,
कुछ खिलवाड़, कुछ दुश्वार प्रकृति से करता हूँ,
स्वार्थवश मस्तिष्क का दुरुपयोग भी,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं दुष्ट हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

वही धुन

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो पहला कदम, वो छम छम छम,
इस दहलीज पर, रखे थे जब तूने कदम,
इक संगीत थी गूंजी, गूंजा था आंगन,
छम छम नृत्य कर उठा था ये मृत सा मन,
वही प्रीत, वही स्पंदन, दे देना मुझको सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो चौखट मेरी, जो थी अधूरी सूनी,
अब गाते है ये गीत, करते है मेरी अनसुनी,
घर के कण-कण, बजते हैं छम छम,
फिर कोई गीत नई, सुना दे ऐ मेरे हमदम,
गीतों का ये शहर, मुझको प्राणों से है प्यारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो स्नेहिल स्पर्श, वो छुअन के संगीत,
वो नैनों की भाषा में गूंजते अबोले से गीत,
धड़कन के धक-धक की वो थपकी,
साँसों के उच्छवास संग सुर का बदलाव,
वही प्रारब्ध, वही ठहराव, वही अंत है सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

स्तब्ध हूँ, उस धुन से आलिंगनबद्ध हूँ,
नि:शब्द हूँ, अबोले उन गीतों से आबद्ध हूँ,
स्निग्ध हूँ, उन सप्तसुरों में ही मुग्ध हूँ,
विमुक्त हूँ, निर्जन मन के सूनेपन से मुक्त हूँ,
कटिबद्ध हूँ, उस धुन पर मैने ये जीवन है वारा.....

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

Sunday, 19 November 2017

खिलते पलाश

काश! खिले होते, हर मौसम ही, ये पलाश...

चाहे, पुकारता किसी नाम से,
रखता नैनों में, इसे हरपल,
परसा, टेसू, किंशुक, केसू, पलाश,
या कहता, प्यार से, दरख्तेपल....

दिन बेरंग ये, रंगते टेसूओं से,
फागुन सी, होती ये पवन,
होली के रंगों से, रंगते उनके गेेसू,
होते अबीर से रंंगे, उनके नयन.....

रमते  इन त्रिपर्नकों में त्रिदेव,
ब्रह्मा, विष्णु और महेश,
नित दिन कर पाता, मैं ब्रम्हपूजन,
हो जाती नित, ये पूजा विशेष.....

दर्शन नित्य ही, होते त्रित्व के,
होता, व्याधियों का अंत,
जलते ये अवगुण, अग्निज्वाला में,
नित दिन होता, मौसम बसंत....

काश! खिले होते, हर मौसम ही, ये पलाश...
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पलाश.....

एक वृक्ष, जिसके आकर्षक फूलों की वजह से इसे "जंगल की आग" भी कहा जाता है। जमाने से, होली के रंग इसके फूलो से और अबीर पत्तों से तैयार किये जाते रहे है।

पलाश के तीन पत्ते भारतीय दर्शनशास्त्र के त्रित्व के प्रतीक है। इसके त्रिपर्नकों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास माना जाता है। 

पलाश के पत्तों से बने पत्तल पर नित्य कुछ दिनों तक भोजन करने से शारीरिक व्याधियों का शमन होता है।

Saturday, 18 November 2017

कूक जरा, पी कहाँ...?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

छिपती छुपाती क्युँ फिरती तू,
कदाचित रहती नजरों से ओझल तू,
तू रिझा बसंत को जरा,
ऊँची अमुआ की डाली पर बैठी है तू कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

रसमय बोली लेकर इतराती तू,
स्वरों का समावेश कर उड़ जाती तू,
जा प्रियतम को तू रिझा,
मन को बेकल कर छिप जाती है तू कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

बूँदें बस अंबर का ही पीती तू,
मुँह खोल एकटक वो मेघ देखती तू,
धरती पर प्यासी तू यहाँ,
नक्षत्र स्वाती बिन प्यास बुझती ये कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

अनन्य प्रेम मेघ पर लुटाती तू,
बिन बारिश प्यासी ही मर जाती तू,
है बसंत भी प्यासा यहाँ,
डाली डाली तू छिपती फिरती है कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

आज क्युँ?

आज क्युँ ?
कुछ बिखरा-बिखरा सा लगता है,
मन के अन्दर ही, कुछ उजड़ा-उजड़ा सा लगता है,
बाहर चल रही, कुछ सनसन करती सर्द हवाएँ,
मन के मौसम में,
कुछ गर्म हवा सा शायद बहता है.......

आज क्युँ ?
कुछ खुद को समेट नहीं पाता हूँ मैं,
बस्ती उजड़ी है मन की, बसा क्युँ नहीं पाता हूँ मैं,
इन सर्द हवाओं में, उष्मा ये कैसी है मन में,
गुमसुम चुप सा ये,
कुछ बीमार तन्हा-उदास सा रहता है......

आज क्युँ ?
खामोश से इस मन में सवाल कई हैं,
खामोशी ये मन की, बस इत्तफाक सा लगता है,
सवालों के घेरे में, कैसे घिरा-घिरा है ये मन,
अबतक चुप था ये,
कुछ बेवशी के राज खोल रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ खुद से ही बेगाना हुआ हूँ मैं,
बेजार सा ये तन, मन से कहीं दूर सा दिखता है,
दर्द यही शायद, सह रहा आज तक ये मन,
सर्द सी ये हवाएँ,
कुछ चुभन के द॔श दे रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ अनचाही सी बेलें उग आई हैं,
मन की तरुणाई पर, कोई परछाई सा लगता है,
बिखरे हो टूट कर पतझड़ में जैसे ये पत्ते,
वैसा ही बेजार ये,
कुछ अनमना या बेपरवाह सा लगता है.......

Friday, 17 November 2017

युग का जुआ

जतन से युग का जुआ, बस थामकर होगा उठाना....

खींचकर प्रत्यंचा,
यूँ धीर कर,
साध लेना वो निशाना.....

गर सिर्फ गर....!

बिंब उस लक्ष्य की,
इन आँखों में रची बसी,
लगन की साध से,
गर ये प्रत्यंचा रही कसी,
धैर्य का दामन,
छोड़ा नहीं तुमने कभी,
निगाहें गर सदा,
उस निशाने पर रही सधी।

फिर है डर क्या?
व्यर्थ न जाएगा ये प्रयत्न.....
ऊँगलियो में हैं जो दम,
सध ही जाएगा निशाना.....
बस खींचकर प्रत्यंचा, बिंध देना है वो निशाना.....

है कांधे पे तेरे, युग का ये जुआ,
जतन से थामकर,
लगन से होगा उठाना....

बस सिर्फ बस.....!

मंजिलों पे रहे नजर,
उन रास्तों की हो तुझे खबर,
थक न जाए ये बदन,
न ऊबे कहीं ये मन,
दिल में हो इक संबल,
अकेला मैं ही नही,
सभी साथ रहे हैं चल,
हित में सभी के,
ये युग भी रहा है बदल।

फिर न चिंता कोई?
प्रयत्न कर, युग का ये चरण,
विजयी हो काट लेंगे हम,
खींच लेंगे दूर तक,
जतन से युग का जुआ, बस साथ है मिलकर उठाना....

Thursday, 16 November 2017

आत्मकथा

खुद को समझ महान, लिख दी मैने आत्मकथा!

इस तथ्य से था मैं बिल्कुल अंजान,
कि है सबकी अपनी व्यथा,
हैं सबके अनुभव, अपनी ही इक राम कथा,
कौन पढे अब मेरी आत्मकथा?

अंजाना था मैं लेकिन, लिख दी मैने आत्मकथा!

हश्र हुआ वही, जो उसका होना था,
भीड़ में उसको खोना था,
खोखला मेरा अनुभव, अधूरी थी मेरी कथा,
पढता कौन मेरी ऐसी आत्मकथा?

अधूरा अनुभव लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

अनुभव के है कितने विविध आयाम,
लघु कितना था मेरा ज्ञान,
लघुता से अंजान, कर बैठा था मैं अभिमान,
बनती महान कैसे ये आत्मकथा?

अभिमानी मन लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

टूटा ये अभिमान, पाया था तत्व ज्ञान,
लिखना तो बस इक कला,
पहले पूरी कर लूँ मै बोधिवृक्ष की परिक्रमा,
सीख लूँ मैं पहले सातों कला,
लिख पाऊंगा फिर मैं आत्मकथा!

उथला ज्ञान लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

बदल रहा ये साल

युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

यादों के कितने ही लम्हे देकर,
अनुभव के कितने ही किस्से कहकर,
पल कितने ही अवसर के देकर,
थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर,
कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल...

प्रशस्त प्रगति के पथ देकर,
रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर,
काम अधूरे से बहुतेरे रखकर,
निरंतर बढ़ने को कहकर,
युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

अपनों से अपनों को छीनकर,
साँसों की घड़ियों को कुछ गिनकर,
पीढी की नई श्रृंखला रचकर,
जन्म नए से युग को देकर,
सारथी युग का बनाकर, बदल रहा ये साल....

नव ऊर्जा बाहुओं में भरकर,
कीर्तिमान नए रचने को कहकर,
लक्ष्य महान राहों में रखकर,
आँखों में नए सपने देकर,
विकास पुरोधा बनकर, बदल रहा ये साल...

प्रस्तावों की इक सूची देकर,
मंत्र नए सबके कानों में कहकर,
अपनी मांग नई कुछ रखकर,
प्रण जन-जन से लेकर,
कुछ लेकर कुछ देकर, बदल रहा ये साल.....
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Accolade from "शब्दनगरी" / 17.11.2017
"बधाई हो! आपका लेख आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है"
हृदय तल से धन्यवाद शब्दनगरी....

Tuesday, 14 November 2017

मुख़्तसर सी कोई बात

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

सांझ की किरण, रोज ही छू लेती है मुझे,
देखती है झांक कर, उन परदों की सिलवटों से,
इशारों से यूँ ही, खींच लाती है बाहर मुझे,
सुरमई सी सांझ, ढ़ल जाती है फिर आँखों में मेरी!
सिंदूरी ख्वाब लिए, फिर सो जाती है रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

झांकती है सुबह, उन खिड़कियों से मुझे,
रंग वही सिंदूरी, जैसे सांझ मिली हो भोर से,
मींचती आँखों में, सिन्दूरी सा रंग घोल के,
रंगमई सी सुबह, बस जाती है फिर आँखों में मेरी!
दिन ढ़ले फिर, है उसी सपने की बात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

रंग वही सिंदूरी, लाकर देना तुम मुझे,
मांग सजाऊँगा उसकी, रंग लाकर किरणों से,
किरणपूंज सी, वो आएँगे जब बाहों में,
चंपई वो रंग, बिखरती जाएगी इन राहों में मेरी!
सिंदूरी सांझ तले, कट जाएगी ये रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

Monday, 13 November 2017

बदला सा अक्श

इस दफा आईने में, बदला सा था अक्श मेरा....

न जाने वो कौन सा, जादू था भला,
न जाने किस राह, मन ये मेरा था चला,
कुछ सुकून ऐसा, मेरे मन को था मिला,
आँखों मे चमक, नूर सा चेहरा खिला।

आईना था वही, बस बदला सा था अक्श मेरा...

इस दफा, जादू किसी का था चला,
दुआ किसी की, कबूल कर गया खुदा,
नई राह थी, नया था कोई सिलसिला,
नूर लेकर यूँ, अक्श फूल सा खिला।

इस दफा आईने में, यूँ बदला सा था अक्श मेरा....

धूंध छँट चुकी, इक शख्स था मिला,
नूर-ए-खुदा शख्स के चेहरे पे था खिला,
सामने आइने के, मैं ही मगर मिला,
दूर बादलों से परे, मुझे खुदा था मिला।

इस दफा आईने में, बदला सा था अक्श मेरा....

माँ, बेटा और प्रश्न

माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

निरुत्तर माता, कुछ पल को चुप होती,
मुस्कुराकुर फिर, नन्हे को गोद में भर लेती,
चूमती, सहलाती, बातों से बहलाती,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

माँ, विह्वल सी हो उठती जज्बातों से,
माँ का मन, कहाँ ऊबता नन्हे की बातों से?
हँसती, फिर गढ़ती इक नई कहानी,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

बार-बार वही प्रश्न फिर दोहराता नन्हा,
धैर्य पूर्वक माता कहती फिर कुछ अनकहा,
परत दर परत सुलझाती जिज्ञासा,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

धैर्य, शौर्य, दया, ज्ञान सब माँ से पाया,
बड़ा हुआ नन्हा, उसने माँ को ही रुलाया!
तपती धूप में ममता की वो छाया,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

पोंछ लेती वो आँसू, आँचल में छुपकर,
सो जाती बिन खाए, किसी कोने में रहकर,
डर जाती बेटे की आहट सुनकर,
माँ से फिर पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

अब माँ को बस सर्वदा चुप ही रहना था,
खामोशी ही उसका गहना था,
गाढ़ी नींद में उसे जो अब सोना था,
माँ से क्या पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

Saturday, 11 November 2017

750वीं रचना

स्व-अनुभवों की विवेचना है मेरी 750वीं रचना,
रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना....

नाम मात्र की नहीं ये रचना,
पंख ले उड़ान भर रही हो जैसे कोई संकल्पना,
पीड़ संग जन्म रही जैसे कोई कल्पना,
स्व-अनुभवों की हो रही जैसे आत्म-विवेचना......

रचनाओं की भीड़ में है लिख रहा मैं 750वीं रचना......

ख्यालों की जैसे कोई गहना,
पहनता हूँ हरबार जब भी ख्यालों को हो सँवरना,
सँवरते हैं ख्याल, सँवरती है ये कल्पना,
नव-श्रृंगार कर, जीवंत हो उठती है रचना......

रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना......

भावावेग का ज्वार सा उठना,
विरह, प्रेम, गीत, एकाकीपन का शब्दों में ठलना,
भाव के सागर में हो जैसे गोते लगाना,
स्वतः स्फूर्त कविताओं का मूर्त हो उठना......

स्व-अनुभवों की विवेचना है ये मेरी 750वीं रचना.....
रचनाओं की भीड़ में लिखता रहा हूँ एक और रचना...

❤नमन कर रही सबों को मेरी ये 750वीं रचना❤
CELEBRATING 750th STEP
& the Way Forward.......

Thanks Everyone for Constantly Encouraging Me...

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

आइए आ जाइए

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हँसिए-हँसाइए, रूठीए मनाइए,
गाँठ सब खोलकर, जरा सा मुस्कुराइए,
गुदगुदाइए जरा खुद को भूल जाइए,
भरसक यूँ ही कभी, मन को भी सहलाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हैं जो अपने, दूर उनसे न जाइए,
रिश्तों की महक को यूँ न बिसर जाइए,
मन की साँचे में इनको बस ढ़ालिए,
जीते जी न कभी, इन रिश्तों को मिटाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

भूल जो हुई, मन में न बिठाइए,
खता भूलकर, दिल को साफ कीजिए,
फिर पता पूछकर, घर चले जाइए,
भूल किस से ना हुई, ये ना भूल जाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

अवगुंठन हटा, फूल तो खिलाइए,
हर मन में है कली, बस बागवाँ बनाइए,
वक्त जो मिले, कभी घूम आइए,
हो बाग जो बड़ा, फिर कही भी सुस्ताइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

पहाड़ों में

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
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Friday, 10 November 2017

ऋतुराज

फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई,
संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई,
जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई,
ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी.....

नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा,
जीर्ण काया को सँवार, निहार रही खुद को जरा,
हरियाली ऊतार, तन को निखार रही ये जरा,
शिशिर की ये पुकार, सँवार खुद को जरा.....

कण-कण में संसृति के, यह कैसा स्पंदन,
ओस झरे हैं झर-झर, लताओं में कैसी ये कंपन,
बह चली है ठंढ बयार, कलियों के झूमे हैं मन,
शिशिर ऋतु का ये, मनमोहक है आगमन.....

कोयल ने छेड़े है धुन, सुस्वागतम ऋतुराज,
रंगबिरंगे फूलोवाली, संसृति लेकर आई है ताज,
सतरंगी सी है छटा, संग झूम रहा ये ऋतुराज,
गीत गा रहे पंछी, शिशिर ने खोले हैं राज....

Thursday, 9 November 2017

किसकी राह तके

सदियाँ बीत गई, प्रीत वो रीत गई...........

बैरन ये प्रीत हुई,
डोली प्रीत की, बस यादों में ही सजे,
तुझको वो भूल चुके,
तू किसको याद करे, किसकी राह तके?

बैरन हुई ये पवन,
मुई, गुजरती है अब क्यूँ छूकर ये बदन,
न वो पुरवाई चले,
तू क्युँ उसको याद करे, किसकी राह तके?

बदल गए मौसम,
बदली वो घटा, बूंदें बारिश की ये छले,
धूप सी ये छाँव लगे,
तू क्युँ उनको याद करे, किसकी राह तके?

शहर अंजान हुए,
अपना ना कोई, बेगाना सा हर मोड़ लगे,
गलियाँ ये विरान हुए,
तू तन्हा किसे याद करे, किसकी राह तके?

न आएंगे अब वे,
तुझसे नजरें भी न, मिला पाएंगे अब वे,
नैनों से क्युँ आब झरे,
तू रो-रो किसे याद करे, किसकी राह तके?

सदियाँ बीत गई,प्रीत वो रीत गई...........

न आना अब

वो कौन है जो दस्तक, देकर गया मेरे दर तक?

शायद अजनबी कोई!
या शख्स पहचाना सा कोई?
बिसारी हुई बातें कोई!
या यादों की इक कहानी कोई!

वो कौन है जो लौटा, दस्तक देकर मेरे घर तक?

बेचैन कर गया कोई!
नींदे मेरी लेकर गया कोई!
इन्तजार दे गया कोई!
सुकून मन का ले गया कोई!

वो कैसी थी दस्तक, न मिलती है दिल को राहत?

ऐसा तो न था कोई!
दुश्मन तो मेरा न था कोई!
वो पागल होगा कोई?
या नशे में बहका होगा कोई?

वो दे गया ऐसी दस्तक, दुविधा में रहा मैं देर तक?

अब बीते हैं दिन कई,
दस्तक फिर दे रहा था कोई!
बाहर न खड़ा था कोई!
चुप, बुत सा मैं अकेला था वहीं!

एकाकीपन की दस्तक, न आना अब मेरे दर तक...