ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने,
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!
कौन सी ख्वाहिश के, पर दूँ कतर,
कैसे फेर लूँ, किसी की, उम्मीदों से नजर,
कर्ज एहसानों के, लिए यूँ उम्र भर,
तेरी ही गलियों से, रहा हूँ गुजर,
बाकि रह गई, राह कितनी, जिन्दगीं!
और गुनाह कितने,
करवाएगी ऐ जिन्दगी!
शक भरी निगाहों से, तू देखती है,
दलदल में, गुनाहों के, तू ही धकेलती है,
सच भी कहूँ, तू झूठ ही तोलती है,
उस शून्य में, झांकती है नजर,
खाली है आकाश कितनी, जिन्दगीं!
और गुनाह कितने,
करवाएगी ऐ जिन्दगी!
रिश्ते बिक गए, तेरी ही बाजार में,
फलक संग, रस्ते बँट गए इस संसार में,
बाकि रह गया क्या, अधिकार में,
टीस बन कर, आते हैं उभर,
गुनाहों के विस्तार कितने, जिन्दगी!
ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने,
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत अच्छी, सचमुच बहुत ही अच्छी कविता रची है पुरुषोत्तम जी आपने। कई बार इंसान के गुनाह ही उसकी सज़ा बन जाते हैं जिनके सिलसिले को वह रोक नहीं पाता। चूंकि कई बार मरने की भी गुंजाइश नहीं होती और जीने की सज़ा को भुगतना एक मजबूरी बन जाती हैं, इसलिए जीने के लिए उस बदनसीब को ख़ुद से कहना पड़ता है - एक गुनाह और सही।
ReplyDeleteआभार आदरणीय जितेन्द्र जी।
DeleteAmzing stories your post thank you so much share this post raksha bandhan story in hindi
ReplyDeletethank you so much...
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