Monday, 12 February 2024

दास्तां

ना थी खबर, ये दो किनारे हैं अलग,
सर्वथा, समानांतर और पृथक,
पाट पाएं, कब इन्हें,
गुजरती सदी और उम्र की नदी,
अब जो है ये इल्जाम....

न ये था पता, पल में बनती है दास्तां,
गुजरती हैं, पलकों में सदियां,
भरता, ये ज़ख्म कहां!
बदलती हैं कहां, पल के दास्तां,
और, किस्से वो तमाम.... 

अब ये दास्तां, यही राह और रास्ता,
उन्हीं सदियों से, इक वास्ता,
कैसे हों भला, पृथक,
सदी और गुजरती उम्र की नदी,
पिघलता सा हर शाम....

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