नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....
कारवां सी, बहती ये नदी,
अक्श, बहा ले जाती,
बह जाती, सदी,
बहते कहां, सिल पे बने निशां,
बहते कहां, दास्तां!
अधीर मन, सुने कहां....
लगे दफ्न सी, कहीं दास्तां,
ज्यूं, ओझल कहकशां,
रुकी सी कारवां,
चल पड़े हों, जगकर सब निशां,
सुनाते इक, दास्तां!
अधीर मन, सुने कहां.....
खींच लाए, फिर उसी तीर,
बहे जहां, धार अधीर,
जगाए, सोेए पीर,
जगाए सारे, दफ्न से हुए निशां,
सुनाए वही, दास्तां!
अधीर मन, सुने कहां....
पर न अब, उस ओर जाएंगे,
जरा उसे भी समझाएंगे,
सोचूं, नित यही,
पर, कब सुने मन जिद पे अड़ा,
सुनाए वही, दास्तां!
अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द मंगलवार 12 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteशब्दों का सुंदर गुलदस्ता
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteVery Nice Post....
ReplyDeleteWelcome to my blog for new post....