जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Thursday, 31 December 2015
समय और अनुबंध
जो छोड़ गए हैं तन्हा
वो पूछते हैं अक्सर, कैसे हो?
शायद! तन्हाई में कैसे जीता हूँ,
यही जानना चाहता है वो!
तो सुन लो...
नसों में रक्त प्रवाह है जारी,
धड़कनें अभी रुकी नही हैं,
सासों का प्रवाह निरंतर है,
हंदय मे कंपण अभी है शेष,
पलकें अब भी खुली हुई है,
आँखें देख पाती हैं नभ को,
कोशिकाएँ अभी मरी नही हैं।
वो पूछते हैं अक्सर, कैसे हो?
तो और सुनो,
स्वर कानों मे अब भी जाते है,
स्पर्श महसूस कर सकता हूँ,
जिह्वा स्वाद ले पाती हैं...
सूरज का उगना देखता हूँ
सामने अस्त हो जाना भी,
जीवन देखता हूँ और मृत्यु भी,
नित्य क्रिया कर्म अभी है जारी।
जो छोड़ गए हैं तन्हा,
वो पूछते हैं अक्सर, कैसे हो?
जीवन साँसों से चलता है,
दिल धड़कते हैं स्नायु से,
तंत्रिकाएँ चलाती है सोंच को।
पर दिलों के एहसास....?
एहसास मर जाते हैं तन्हाई में,
एहसास का स्पंदन साथ ढूंढ़ता है प्रीत का।
वर्ना जीवन तिल-तिल मरता है।
साँसों के आने जाने से केवल,
जीवन कहाँ चलता है?
उसने खून किया जीवन का,
तन्हाई मे जिसने भी छोड़ा,
पर साथ निभाता कौन अन्त तक,
मृत्यु से पहले .....!
सांसे तन्हा छोड़ जाती तन को,
शरीर छोड़ जाता है तन्हा मन को।
जो छोड़ गए हैं तन्हा,
वो पूछते हैं अक्सर, कैसे हो?
यादों के फूल
Wednesday, 30 December 2015
जल उठे है मशाल
जल उठे असंख्य मशाल,
शांति, ज्योति, प्रगति के,
उठ खड़े हुए अनन्त हाथ,
प्रशस्त मार्ग हुए उन्नति के।
अनन्त काल जलें मशाल,
अन्त असीम रात्रि-तम हो,
सामने हो प्रखर प्रशस्त प्रहर,
भय दूर हुए जिंदगी के।
ग्यान का उन्नत प्रकाश हो,
अशांति, अचेतन, क्लेश घटे,
धरा पे फैले चांदनी की लहर,
पू्र्ण कामना हुए मानवों के।
फिर तेरी यादों के बादल छाए
यादें सारी सजीव हो चुकी हैं,
कोलाहल इनके उभर चुके हैं,
शोर मचाते ये अन्तर्मन मे,
कोयल की हूक मन को हर जाए।
आँखें सजल हो चुकी यादों में,
होठों पर इक चुप सी लगी हैं,
चेहरे पर छा गई अजीब शांति सी,
चातक के स्वर मनविभोर कर जाए।
फिर तेरी यादों के बादल छाए।
नववर्ष 2016 की शुभकामनाएँ
जागे हैं फिर नए अरमान,
उपजी है फिर नई आशाएँ,
तू इन आशाओं के संग तो हो ले।
वर्ष नया है प्रारंभ नई है,
दिवस नया है प्रहर नई है,
हर चिन्ताओं को तज पीछे,
तू इक नई उड़ान तो भर ले।
निराशा के घनघोर अंधेरे,
अब रह गए हैं पीछे तेरे,
सामने खड़ा एक नया लक्ष्य है,
तू इन लक्ष्यों के संग तो हो ले।
(हमारे समस्त पाठको को नववर्ष 2016 की
कर्मपथ का योद्धा
निर्दोष का कर्मपथ
आशा का दामन
तुम प्रीत गीत मीत
हृदय के भाव
तुम चंद पल जीवन दे जाते हो
अच्छा लगता है
Tuesday, 29 December 2015
कह तो तुम सब अनकही
तुझसे मेरा वक्त किसने छीना
रहने दो तुम मत दो आस
अब मत करो बात।
भूल जाओ,
अब मत दो आस।
तुम्हारे होंगे असंखय दोस्त,
मिटती होगी जिनसे
तेरी प्यास,
मेरी तो बस एक ही आस,
ला सकता था जो मधुमास,
स्मृति से तेरे हुआ मैं विस्मृत,
बस अब तो,
छोड़ चला हूँ आस।
न मिट सकेगी अब,
इस मन की प्यास।
रहने दो तुम....!
भूल जाओ, मत दो आस,
रहने दो तुम.....!
मत करो बात।
गुजरा हुआ वक्त हूँ मैं,
लौट नही फिर आउँगा,
यादों मे रह जाऊँगा साथ,
रहने दो तुम.....!
दृश्य विहंगम
प्यासे जीवन की आशा
मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?
अतृप्त अन्तर्मन
Monday, 28 December 2015
क्या बीते वर्ष मिला मुझको
धुँधला साया
साथ मेरे तुम क्यूँ नही आए
कोलाहल मची है मन के अन्दर,
प्राणों के आवर्त मे भी लघु कंपन,
अपनी वाणी की कोमलता से,
कोलाहल क्युँ ना तुम हर जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्यूँ नही आए।
इक क्षण को तब मिटी थी पीड़ा,
साथ तुम्हारा मिला था क्षण भर,
कोलाहल तब मिटा था मन का,
तुमसंग जीवन जी गया मैं पल भर,
बोलो ! साथ मेरे तुम क्युँ नही आए।
अवसाद मिटाने तुम आ जाते,
जीवन संगीत सुनाने तुम आ जाते,
वीणा तार छेड़ने तुम आ जाते,
जीवन क्लेश मिटानें तुम आ जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्युँ नही आए।
सन्निकट अवसान
अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।
बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।
उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।
फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल
Sunday, 27 December 2015
प्रीत भरा मन
इन अधरों ने फिर भी
अमिट प्यास अब भी हमारी है,
मन की आवर्तों मे अब भी,
मिलने की आस संभाली है,
देखो मन कितना अलबेला है।
नयन तकते अब भी राह तुम्हारी,
वादों की करता रखवारी,
तेरी यादों के दामन मे बस जाऊँगा,
याद तुझे भी मैं आऊँगा,
साँसों के थमने तक, बस तुझको ही चाहुँगा,
ये मन भी कितनाअलबेला है।
पूछे जो कोई तुमसे
यादों के नीर
तुम मुझसे दूर कहीं
प्यार इक कशिश
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक!
प्यार! तू है इक कशिश,
प्यार ! जो पूरा न हो,
तू उन्हीं ख्वाइशों में से है एक!
Saturday, 26 December 2015
उम्र के इस पड़ाव पर
मानव मन की चाह होती असीमित,
ईच्छाएँ पैदा लेती इनमें अपरिमित,
चाहता ये ब्रम्हांड की सीमा छू लेना,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता।
सोचता था बरगद सा विशाल बनूँगा,
दरख्तों सी होगी शख्सियत हमारी,
विशाल कंधों पर होगा युग का जुआ,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।
बरगद जिसकी है असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ फैली चहुँ दिशा में लिए छाँव घने,
शख्सियत सागर पटल सी लंबी उम्र लिए,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।
ढ़लते उम्र के इस पड़ाव पर सोचता,
चंचल पखेरू मन अधीर सा होता जाता,
हाथों से रेत सी फिसलती जाती वक्त,
और हासिल ना कुछ भी कर पाता।
ईश्वर ने दिया है बस ईक जीवन,
सांसें भी दी है बस गिनतियों की,
करनी थी आशाएँ सब पूरी इनमें,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाया ।
चाहता हूँ समय ले फिर से करवट,
उलटी दिशा में फिर लौट चले ये,
कर सकुँ शुरुआत पुनः जीवन का,
पर हासिल ना कुछ भी हो पाता ।
समय बलवान महत्ता इसकी तू पहचान,
कर कुछ ऐसा, बरगद से भी हो तू महान,
शख्सियत में तेरे, जड़ जाएं चांद-सितारे,
सागर पटल भी आएँ, छूने चरण तुम्हारे।
किरणों ने खोले हैं घूंघट
तिमिर तिरोहित बादलों के,
कलुषित रजनी हुआ तिरोहित,
संग ऊर्जामयी उजालों के।
अनुराग रंजित प्रबल रवि ने,
छेड़ी फिर सप्तसुरी रागिणी,
दूर हुआ अवसाद प्राणों का,
पुलकित हुई रंजित मन यामिनी।
ज्योतिर्मय हुआ ज्योतिहीन जन,
मिला विश्व को जन-लोचन तारा,
अवसाद मिटे हुआ जड़ता विलीन,
मिला मानवता को नव-जीवन धारा।
शाकाहारी मांसाहारी
आरोह-ठहराव-अवरोह
उत्थान अगर सम्मुख है तो, पतन भी प्रशस्त प्रभावी,
जीवन चेतन सत्य है तो, मृत्यु भी है शास्वत भावी,
समुन्दर मे है ज्वार प्रबल तो, भाटा भी निरंतर हावी।
जैसे खेत मे बीजों का अंकुरित होना,
खिलते कलियों-फूलों का इठलाना,
काली घटाओं का नभ पर छा जाना,
मदमाते सावन का झूम के बरस जाना,
समुद्र में अल्हर ज्वार का उठ जाना,
सुबह के लाली की आँखों का शरमाना,
प्रात: काल पंछियों का चहचहाना,
नव दुलहन का पूर्ण श्रृंगार कर जीवन में..........
..............आशाओं के नव दीप जलाने की बारी।
जैसे खेतों के बीजों का पौध बन फल जाना,
कलियों-फूलों के चेहरों का मुरझाना,
काली घटाओं का मद्धिम पड़ जाना,
सावन की मदिरा का सूखकर थम जाना,
समुद्री ज्वार का भाटा बन लौट जाना,
सूरज की किरणों का तेज निस्तेज पड़ जाना,
पंछियों का थककर वापस घर लौट आना,
दुल्हन का श्रृंगार जीवन भट्ठी में झौंक.........
............संध्या प्रहर मद्धिम दीप जलाने की तैयारी।
आता है पल ईक ठहराव का भी,
कुछ अंतराल के लिए ही सही पर,
दे जाता है इनको अल्पविराम भी,
मानव से मानव भावना की, गठजोर कर जाने को,
संसार की सारी खुशियाँ, दामन में समेट ले जाने को,
उपलब्धियों की सार्थकता, अर्थपूर्ण कर जाने को,
अवरोह बेला उन्मादरहित, अनुकरणीय बना जाने को!
सा, नी, ध, प, म, ग, रे, सा के मध्य,
सा - है ठहराव, अल्पविराम,सम की स्थिति,
सुर नही सध सकते बिन इनके पूर्ण।
सम है तो निर्माण है संभव,
वर्ना है विध्वंश की बारी !!!!!!!!!!
Friday, 25 December 2015
जीवन क्या है?
शब्द मुझ तक पहुँच नही पाते
तुम्हारे शब्द मुझ तक पहुँच नहीं पाते,
होठों से मंद मंद फूटे शब्दों के कंपन,
आँखों से निकली प्रकाश की किरण,
चाहें बंधन तोड़ युगों से मुझ तक आने को।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
दूरी तय करते युग बीते शब्दों को,
फासले ये तय कर नही पाते हैं ?
कंपन किरण से कब जीत पाते हैं?
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
प्रकाश की प्रस्फुटन, शब्दों की ध्वनि से तेज,
आंखों की चंचल भाषा, मृदु आवाज़ से चतुर,
शब्दों से पहले पहुँच, ये ठहर जाते हैं।
पर शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
आँखों की चपल भाषा, मैं मूरख क्या जानूं,
शब्द-स्पंदन से ही, मैं भावों को पहचानुं,
पर मर्यादाओं की सीमाओं में सिमटे शब्द,
उल्लंघित करने का दुस्साहश नही कर पाते हैं,
शब्द ये मुझ तक पहुँच कहाँ पाते हैं ?
क्षण-क्षण मधु-स्मृतियाँ
जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में,
प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे,
मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में,
जन्मदिन की बधाई
Thursday, 24 December 2015
ओस के बूंदों की प्रीत
तलाश
तू चुपके से सुन इस पल की धुन
तुम मुझमें हो
तुम मुझमे हो,
जैसे धड़कनें है हृदय के अंदर,
इन्हें रखने को जीवित,
पर क्या धड़कन को भी है,
किसी हृदय की जरूरत,
धड़कते रहने को,
अपने अस्तित्व को जिन्दा रहने को,
तुम मुझमे हो,
इससे यह कहां साबित होता है कि,
मैं भी तुझमे हूँ,
मेरी जरूरत भी है तुम्हें,
उतनी ही संजीदगी से।
एहसास जिन्दा हों तो,
हमें एक दूसरे की जरूरत है,
इन चंद पंक्तियों में...................
तुम भी हो इसमें कही न कही।
Wednesday, 23 December 2015
तुम बनो प्रेरणा जग हेतु
कर्म पथ पर नित प्रगतिशील रहो,
जिन्दगी के आईने प्रखर हो इतने,
प्रबुद्ध बनकर चमको तुम इतने,
कि बीते कल के घनघोर अंधेरे,
रौशनी में शरमाकर धुल जाएं इनमें,
आशा का नव संचार हो,
हर पल जीवन में हो उजियारा,
निष्कंटक पथ प्रशस्त हों प्रगति के,
मेरी अन्तरआत्मा की आवाज
ज़िन्दगी ख़ुद ब ख़ुद एक आइना है जो बयां करती है
बीते हुए कल की जो अंधेरी रात की तरह है
अौर सुबह का इन्तज़ार करती है आने वाले खुबसूरत पल की,
दूसरे बुजूर्ग दोस्त ने कहा.....
न आए लबों पे तो कागज़ पे लिख दिया जाए..
किसी खयाल को मायूस क्यों किया जाए__
मेरी अन्तरआत्मा ने जवाब दिया....
कागजों के लिखे तो मिट जाते हैं,
ख्याल वो जो दिलों पे लिखे जाएं,
महसूस हो जो जन्मो-जन्मों तक,
एहसासों को अन्दर तक झकझोर जाएं।
जिन्दगी के आईने को हम इतना चमकाएं,
कि बीते कल के अंधेरे इनमें घुल जाएं,
आनेवाला हर पल हो उज्जवल, खुशनुमा,
कनक शिखर पर तेरे सूरज भी शीष झुकाएं,
कर्म पथ पर चलकर तुम बनो प्रेरणा जग में,
असंख्य शीष उठकर तुम्हें आशापूर्वक निहारे।
उड़ान: परिधियों के दायरे
परिधियों मे संकुचित जीवन आदर्श,
परिधियों मे संकुचित उमरता विचार,
पर मानव व्यक्तित्व भरता कुलांचे,
जीवन्त सोच भरती नित नई उड़ान,
कुछ नया कर जाने को।
चाहूँ तोड़ना परिधियों के दायरे,
कर सकूँ स्थापित एक नया आदर्श,
जहां विचार हों स्वतंत्र उमरने को,
विश्व कल्याण हेतु कुछ करने को,
दिशा नई दिखा जाने को।
दायरे हों इतने विशाल,
पंख हो इनके इतने विस्तृत,
समाहित हो जाएं इनमें जनाकांक्षा,
विचार ले सके खुल के श्वाँस,
मंजिल नई पा जाने को।
धर्म, जाति, कुल, वंश का न रहे कोई भेद,
परिधियों के परे हो मेरी पहचान,
विश्व कल्यान हों जिनका आदर्श,
परिधि खुद हो सके विस्तृत,
समय के साथ बढ़ जाने को।
Tuesday, 22 December 2015
चाहत की मंजिल
एक मुश्त खिलखिलाती, सुनहरी धूप मिल गई,
सफल हुई मेरी पूजा, ज़िन्दगी फूलों सी खिल गई।
कोई शिकायत न रही किश्तों मे मिली जिन्दगी से,
जिस निगाहे नूर की कमी थी,
वो निगाहें चश्मेबद्दूर मिल गई,
जी खोलकर की जब उसने मन की बातें,
रौशन लगने लगी हैं अब जीवन की राहें,
उसकी ज़रा सी नूर काफ़ी थी ज़िन्दगी के लिए,
किश्मत मेरी, मुझे विसाले यार मिल गई।
करती रही वो बेपरवाह मनगढंत शिकायतें,
कि तुमने ये क्युँ कहा? तुमने वो क्युँ नही कहा?
तुम्हारी भाषा भटक क्युँ गई? तुमने पूछा क्युँ नही?
बेपरवाह हँसती रही वो इन सवालों में,
जैसे निगाहे यार को भी सुकून मिल गई।
मैने देखा उस बेपरवाही में है जीवन अनंत,
उन आँखों मे रौशनी है असीम, आशाएँ हैं दिगन्त,
साधना सफल हुई मेरी, जीवन हुआ जैसे पूर्ण
मुझे मेरी जीवन दिगन्त मिल गई।
तुम लौट आओ
कहीं हवा में है घुली- घुली सी....
तुम गुजरो यादों के गलियारे से..
मेरी परछांईयां तुम्हें वहां भी मिलेंगी...
आज भी शामिल हूँ यादों मे तेरे..
कही न कही मैं संग तुम्हारी राह में.....
मेरी आंखें रोकती है तुम्हारे बढ़ते कदम,
लौट जाती हो तुम, क्या अब भी डरते हो...
उन घनी पलकों की छावों से......
सुनती हो तुम.. मेरी खामोशी..
मेरी पलकों से गिरते शीशे चुभते है तेरे पांव में...
दर्द होता है तुम्हें .... मेरे दर्द से..
अनछूआ सा वो रिश्ता..छूता है तुम्हें...
थाम हाथ तुम्हारा, करता है जिद ..
वजूद मेरा शामिल है तेरी रूह में...
लौट आओगे तुम फ़िर कभी.....
निभाने रिश्ते पुराने...बिताने गुजरे ज़माने....
मेरे ख्वाब रखे हैं मैनें संभाले तुम्हारे सिरहाने..
ढूंढता हूँ हर चेहरे में तेरा अक्श,
करने लगता हूँ प्यार उस शक्श से,
पर मिलती नही मुझे वो राहत,
तुम लौट आओ ,,,तुम लौट आओ.....
रूह की सिसकियाँ
सिर्फ लबों को क्षणभर छू जाने से,
बादलों के बिखरकर छा जाने से,
ये रूह सराबोर भींग नहीं जाते।
जमकर बरसना होगा इन बादलों को,
झूमकर बूंदों को करनी होगी बौछार,
छलककर लबों को होना होगा सराबोर,
रूह तब होगी गीली, तब होगी ये शांत।
पिपासा लिए दिगंत तक पहुचते-पहुँचते,
हो जाए न ये रूह एकाकी, होते-होते भोर,
विहंगम शून्य को तकते ये नीलाकाश,
अजनबी सी खड़ी रूह, कही उस ओर।
कुछ स्पंदन के लम्हात् और बढ़ा जाते,
रूहों की पिपासा और अविरल जीने की चाहत,
ताउम्र नही मिल पाती फिर भी,
रूह की सिसकियों को, तनिक भी राहत।
अवरोह वेला गीत कोई तो गाता?
सासों का प्रवाह प्रबल हो गाता,
धमनियों के रक्त प्रवाह अब थक सा जाता,
गीत जिनमें हो सुरों का मधुर आरोह,
लय, नव ताल, मादकता और सुकुँ का प्रारोह,
उत्कंठा हो जी लेने की, सुदूर हृदय मे बस जाने की,
किंतु मेरी रागिनी हो पाती नही निर्बंध निर्झर।
अर्धजीवन की इन सिमटते पलों मे,
आरोहित होते संकुचित पलों मे,
अब तीर नदी न कोई मिल पाता,
नदी के इस पार गीत कोई न गाता।
इक मैं हूँ खड़ा इस तट पर एकांत,
साथ देती मेरी नदी जल चुप श्रांत,
गीत गाती ये मंद अलसायी हवाएं,
साथ देती नदी के उस पार ईक साया।
जीवन आरोह है अब होने को पूर्ण,
अवरोह की बेला भी दिखती समीप,
मन चाहे अवरोह भी हो उतना ही मुखर,
मधुर हो इसकी तान मादक हों इसके स्वर।
पर यह देख मन मायूस हो जाता,
नदी के इस पार गीत कोई न गाता,
न इस तट, न उस तट, मिल कोई न पाता,
काश! नदी के इस पार साथ कोई तो गाता।
जीवन अवरोह मुखर हो जाता.......!
नव गीत कोई यह भी गा पाता........काश!
Sunday, 20 December 2015
वक्त ठहरता ही नही
जीवन की इस गतिशीलता, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं मे,
भावनाएं या तो पंख पा लेती हैं,
या फिर कुंठित हो जाती।
व्याकुल आंखे जीवन भर तलाशती रह जाती हैं उन्हे,
जिनसे भावनाओं को समझने की उम्मीद हों बंधी,
वो मिल जाएं तो ठहराव आता है जीवन में,
कुछ कर गुजरने की तमन्ना जगती हैं
पर दिशाहीन भटकती आकांक्षाओें,
पल पल बढ़ती महत्वाकाक्षाओं के बीच,
वक्त ही कहां है शेष प्रीत की रीत निभाने को,
बचता है फिर कौन जीवन ज्योत जलाने को।
मुझे वो चेहरा पुनः मिल गया,
मन की आकांक्षाओं ने फिर ऊँची उड़ान भरी,
पर उसकी आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाए,
मेरी संवेदनाओं से कही अधिक ऊँची निकली
भावनाएं हुई हैं पुनः कुंठित,
चेतनाएँ हो चुकी हैं शून्य मतिहीन,
जीवन लगने लगी है दिशाहीन,
क्युंकि वक्त ही नही उसके पास भी ।
इन्सानी उम्र की अपनी है सीमा,
वक्त के लम्हे बचे हैं बस गिने चुने,
आशाओं के तो हैं पर लगे हुए,
पर वक्त ठहरता ही नही, बस हम गुजर जाते है
अधूरी अपूरित इक्षाओं के साथ.........
मैं रहूंगा जीवित!
अकाट्य सत्य है कि एक दिन मिट जाऊंगा,
पृथ्वी पर जन्मे,असंख्य लोगों की तरह,
समाहित कर दिया जाऊंगा दावानल में,
प्रवाहित कर दी जाएंगी मेरी अस्थियां भी,
गंगाजल फिर या किसी नदी तालाब मे,
मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ भी।
मेरे नाम के शब्द भी हो जाएंगे,
एक दूसरे से अलग-अलग.
पहुँच जाएंगे शब्दकोष में अपनी-अपनी जगह,
जल्दबाजी में समेट लेंगे वेअपने अर्थ भी,
लेने को एक नई पहचान, एक नव-शरीर के साथ।
पुरूष कहीं होगा, उत्तम कहीं, कहीं होगा कुमार,
सिंहा होगा कहीं, करता हुआ पुनर्विचार,
एक दिन असंख्य लोगों की तरह,
मिट जाऊँगा मैं भी, मिट जाएगा मेरा नाम भी।
पर निज पर है मुझे विश्वास कि रहूंगा मैं,
फिर भी जीवित, चिर-मानस में तुम्हारे,
राख में दबे अंगारे की तरह,
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम, अपरिचित,
रहूंगा जीवित फिर भी मै -फिर भी मैं।
भुला न पाओगे तुम मुझे जीवन पर्यन्त।