Tuesday, 31 December 2019

नववर्ष 2020: एक विचार

प्रिय पाठकगण...

मन थोड़ा भावुक भी है और एक खुशनुमा अनुभव भी महसूस कर रहा हूँ इस वक्त। एक वर्ष, जो हर लम्हा हमारे साथ जिया, खामोशी से अलविदा कहने वाला है ।

बात करूँ, या यूँ खामोश रहूँ?
दरिया था, चुपचाप उसे था बह जाना,
ओढ़ी थी, उसने भी खामोशी,
बंदिशों में, मुश्किल था बंध जाना,
बीत चला, यूँ वर्ष पुराना!

लेकिन, उसकी खामोशी में हमने समाज की कटु विसंगतियों पर दर्द भी महसूस किया है। साथ ही, बहुत सारी उपलब्धियां हमें गर्वान्वित भी कर गई हैं । काश, ये सामाजिक विसंंगतियां हमें शर्मसार न करती।

कब होता है सब वैसा, चाहे जैसा ये मन,
वश में नही होते, ये आकाश, ये घन,
मुड़ जाए कहीं, उड़ जाए कहीं, पड़ जाए कहीं!
सोचें कितना कुछ, हो जाता है कुछ,
उग आते हैं मन में, फिर ये, काश के वन!

काश, हम थोड़ा और धनात्मक हो जाएँ नए वर्ष में और हमारा नजरिया सिर्फ अपना सर्वश्रेेष्ठ देने और सर्वश्रेष्ठ हासिल करने की हो । 

महसूस हो रहा है जैसे ये नया साल, मुस्कुराहट लेकर आनेवाला है।

किसकी है मुस्कुराहट, ये कैसी है आहट!
छेड़े है कोई सरगम, या है इक सुगबुगाहट!
चौंकता हूँ, सुन पत्तियों की सरसराहट!
सुनता हूँ फिर, अंजानी सी आहट!
खुली सी पलकें, हैं मेरी आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
मुस्कुराहटों के, बदले हैं अंदाज!

एक नव-आगन्तुक की तरह, वर्ष 2020 दहलीज लांघने को तैयार है। आइए, सब मिलकर इसका स्वागत करें ।

नव-वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित आप सभी का।   पुरुषोत्तम ।।।।।।।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
31.12.2019

Monday, 30 December 2019

स्मृति

सघन हो चले कोहरे, दिन धुँध में ढ़ला,
चादर ओढ़े पलकें मूंदे, वो पल यूँ ही बीत चला,
बनी इक स्मृति, सब अतीत बन चला!

कितने, पागल थे हम,
समझ बैठे थे, वक्त को अपना हमदम,
छलती वो चली, रफ्तार में ढ़ली,
रहे, एकाकी से हम!
टूटा इक दर्पण,
वो टुकड़े, संजोए या जोड़े कौन भला!

कल भी है, ये जीवन,
पर दे जाएंगे गम, स्मृति के वो दो क्षण,
श्वेत उजाले, लेकर आएंगी यादें,
बिखरे से, होंगे हम!
सूना सा आंगण,
धुंधली सी स्मृतियाँ, जोहे कौन भला!

छूट चले हैं सारे, वो कल के गलियारे,
विस्मृत करते, वो क्षण, वो दो पल, प्यारे-प्यारे,
सब कुछ है अब, कुछ धुंधला-धुंधला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 December 2019

सांझ सकारे

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

मन की गली, जाने कहाँ, मुड़ जाए,
तन ये कहे, चलो वही, कहीं चला जाए,
सांझ सकारे, गली वो पुकारे!

अपने मेरे, मन के, वहीं मिल जाए,
सपन मेरे, शायद वहीं, कहीं खिल जाए,
सांझ सकारे, चाह वो पुकारे!

वो कौन डगर, वो नजर, नहीं आए,
जाऊँ मैं ठहर, जो नजर, वो कहीं आए,
सांझ सकारे, राह वो पुकारे!

रुके जो कदम, तो लगे, वो बुलाए,
चले जो पवन, सनन-सनन, सांए-सांए,
सांझ सकारे, रे कौन पुकारे!

धुंध जो हटे, ये मन, उन्हें ले आए,
पलकों की छाँव, वो गाँव, ढूंढ़ ही लाए,
सांझ सकारे, वो ठाँव पुकारे!

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 28 December 2019

मींड़

अक्सर, मेरे ही मींड़ गुनगुनाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

बिसरे वो, मेरे ही मींड़,
बहा ले आएगी, ये मंद समीर,
मुझको है मालूम, खामोश गजल हो तुम,
भूल चुके, बस हीड़ मेरे,
इक ठहरी सी, चंचल आरोह हो तुम,
अवरोह तलक, लौट आओगे,
झंकार वही, दोहराओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

रह-रह, जाग जाएगी,
बलखाती मूर्च्छनाओं से पीड़,
महसूस मुझे है, गुमसुम सा रहते हो तुम,
हो आहों में, हीड़ भरे,
खामोश लहर, सुरीली स्वर हो तुम,
दर्द भरे, मींड़ मेरे दोहराओगे,
विचलन, सह न पाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

अक्सर, आरोह मेरे,
सुन कर, रुक जाते हैं समीर,
लगता है जैसे, ऐसे ही ठहर चुके हो तुम,
मुर्छनाओं में, हो घिरे,
गँवाए सुध-बुध, यूँ सुन रहे हो तुम,
बंध कर, फिर लौट आओगे,
यूूँ ही, तुम रुक जाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

अक्सर, मेरे ही मींड़ गुनगुनाओगे,
दूर, कहाँ जाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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मींड़: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
१. मींड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव
२. संगीत में एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाते समय मध्य का अंश ऐसी सुन्दरता से कहना कि दोनों स्वरों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाय

हीड़: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
यह एक प्रकार का प्रबन्ध काव्य है, जो बुन्देल-खंड, मालवे, राजस्थान आदि में गूजर लोग दिवाली के समय गाते हैं

मूर्च्छना: (स्त्रीलिंग) का अर्थ:
संगीत के स्वरों का आरोह-अवरोह

Friday, 27 December 2019

बेर और बैर

बोए थे हमने भी, बेर के बीज!
वृक्ष उगे, हरियाली छाई,
बाग भी, कुछ पल को इतराई,
खुश थे हम, बेर लगेंगे,
खट्टे-मीठे, कुछ हम भी चख लेंगे,
लेकिन, उसने पाले थे काँटे,
दामन में, उसके थे जितने,
सब, उसने बाँटे!

बेर ने, खूब निभाई मुझसे ही बैर!
चलो खैर, समझ ये आई,
न बोना था, ये बेर मुझे ऐ भाई,
कल को ये, दुख ही देंगे,
आते-जाते, बरबस पाँवों में चुभेंगे,
भर ही देंगे ये, राहों में काँटे,
दर्द, पड़ेंगे खुद ही सहने,
गर, उसने बाँटे!

फिर भी, रोप रहे वो थोक में बेर!
सबकी मति, गई है मारी,
फैल गई है, शायद ये महामारी,
बन कर रोग, बैर उगेंगे,
रिश्ते लहु-लुहान, ये काँटे कर देंगे,
बनेंगे, दुःख के कारण काँटे,
बैर मन के, बढ़ेंगे जितने,
विषैले, होंगे काँटे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 26 December 2019

बातें

तड़पाती हैं कुछ बातें, अंदर ही अंदर,
ज्यूँ बहता हो खामोश समुंदर,
वो उठता, उफान लिखूँ,
बहा लाया जो तिनका, कैसे वो तुफान लिखूँ!

कहने को तो, ढ़ेर पड़े हैं जज्बातों के,
अर्थ निकलते दो, हर बातों के,
कैसे वो, दो बात लिखूँ,
उलझाती है हर बात, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

मिलन लिखूँ या विरह की बात लिखूँ,
सांझ लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
जज्ब हुए जो सीने में, क्यूँ वो जज्बात लिखूँ!

नम होती हैं आँखें, यूँ सूखते हैं आँसू,
ज्यूँ तपिश में, जलते हैं आँसू,
जलन, या संताप लिखूँ,
तड़पाते ये क्षण, मैं कैसे क्षण की बात लिखूँ!

दिन भर, कैसे जलता है सूरज तन्हा,
वो ही जाने, वो बातें हैं क्या,
वो अगन वो ताप लिखूँ,
रहता वो किस राह, कैसे उसकी चाह लिखूँ!

अगन लिखूँ या जलन की बात लिखूँ,
राख लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
दफ्न हैं जो दिल में, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 24 December 2019

नया इक वर्ष

हर नई सुबह, नए किरण, सूरज लाएगा,
नव रंगों में, ढ़ल क्षितिज,
नव-सवेरा, लाएगा,
नव आश, नव प्राण, नया वर्ष है लाया!

विषाद हुआ या हर्ष, बीत चला इक वर्ष,
नव अवसर, यह ले आया,
मना लो, खुशियाँ,
इक नव-विहान, इक नया वर्ष है आया!

चमक उठी गलियाँ, छूटी हैं फुलझड़ियाँ,
खिल उठी हैं, ये कलियाँ,
गा उठे, पंछी सारे,
लेकर नव सौगात, नया वर्ष है आया!

जो हैं तृष्णा के मारे, हैं जो खुद से हारे,
क्या बदलेगे, वो बेचारे?
जागेंगे, वो सतर्ष?
संभावनाएं अपार, नया वर्ष है लाया!

जगाएगी ये प्यास, तू करले कुछ प्रयास,
कर स्वीकार, हार सहर्ष,
शुरू कर, नव-संघर्ष,
तज मन के विषाद, नया वर्ष है आया!

अचम्भित हूँ, देख कर इनकी निरंतरता,
अंतहीन पथ, यह चलता,
बिन थके, बिन रुके,
मन में प्रवेश किए, नया वर्ष है आया!

मन के पार, वो दस्तक दे रहा द्वार-द्वार,
वो कहता, जी ले हर पल,
राह नई, इक चल,
खुद को ले पहचान, नया वर्ष है आया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

नववर्ष 2020  की शुभकामनाओं सहित

Monday, 23 December 2019

वर्ष पुराना

 
क्या कहूँ, किसकी राह तकूँ?
पृष्ठ पलटता, गुजर चुका है वर्ष पुराना,
रच कर, इक अलग पृष्ठभूमि,
निर्मित कर, गुजरा सा इक जमाना,
बीत चला, वो वर्ष पुराना!

बात करूँ, या यूँ खामोश रहूँ?
दरिया था, चुपचाप उसे था बह जाना,
ओढ़ी थी, उसने भी खामोशी,
बंदिशों में, मुश्किल था बंध जाना,
बीत चला, यूँ  वर्ष पुराना!

क्या कहूँ, किसकी बात करूँ?
वो क्षण था, हर पल था ढ़लते जाना,
डूबते हर क्षण, साँसें थी रूँधी,
मुश्किल था, हर वो क्षण भूलाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

रंज सहूँ, या यूँ रंजिशों में रहूँ?
मन कहता, असहज सा है उसे भुलाना,
अब तक रुका, मैं वहीं कहीं,
कैसे भूल जाऊँ, वो संगीत सुहाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

थाम लूँ, हाथों में ये जाम लूँ,
दिल कहता, फिर आएगा वो जमाना,
रची थी, उसने ही ये पृष्ठभूमि,
वो जानता है, पृष्ठों में ढ़ल जाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
नववर्ष 2020 की शुभकामनाओं सहित

Thursday, 19 December 2019

कैसा जीवन

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

कल तक थे, घौसले हर डाल पर,
चहकते थे वो चूजे, पंछी की हर बात पर,
मुस्कान पंछी की थी निराली,
झूल जाती थी, किलकारियों से डाली,
गुम हो चले, वो गूंज सारे!

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

विलीन हो चले , वो विहँसते पल,
स्वर-विहीन हुए, वो कलकल से हलचल,
दीन-हीन, हो चली है डाली,
सुर-विहीन हो चली, सुबह की लाली,
बिखर गए, वो गीत सारे!

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

सिर्फ तिनकों के, बचे अवशेष,
टूटी पंखुड़ी सी, बिखरी हैं कुछ यादें शेष,
रिक्त सी, लग रही वो डाली,
कुछ सिक्त सी, हो चली है हरियाली,
बदले हैं, वो संगीत सारे!

उड़ चले कहीं, डाल के पंछी सारे!

अनबुझ सा, ये कैसा है जीवन,
मिलन के हैं दो पल, उम्र भर है विछड़न,
टूटती है यूँ ही, दिल की डाली,
क्यूूँ छूटती है मेहंदी, उतरती है लाली,
बदल जाते हैं, रंग सारे!

ज्यूँ उड़ते हैं, डाली के पंछी सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 16 December 2019

बिखरो न यूँ

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
सँवार लो, अपनी ही रंगों में,
ढ़ाल लो, हकीकत में, इन्हें तुम!

सपने ही हैं, गर टूट भी जाएँ तो क्या,
नए, सपने गुनो तुम!
उतर कर, निशा की छाँव में,
तम की गाँव के, तारे चुनो तुम!

बसे हैं इर्द-गिर्द, तुम्हारे सपनों के घर,
घर, कोई चुनो तुम!
बसा लो, इन्हें अपने नैन में,
बिखरे पलों को, समेट लो तुम!

या हों बिखरे, या चाहों मे रहे पिरोए,
उन्हीं की, सुनो तुम!
बिखर कर, स्वाति बूँदों में,
गगन से आ, सीप में गिरो तुम!

वस्तुतः, है अन्त ही, इक नया आरंभ,
पथ, अनन्त चुनो तुम!
राहें, बदल जाते हैं, मोड़ में,
हर छोड़ में, खुद से मिलो तुम!

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
निराशा के, डूबे से क्षणों में,
नींव, आशा की, नई रखो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 12 December 2019

हर पात पर

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

ज्यूँ, बुलाता है वो, मन को टटोलकर,
यूँ सरेशाम, लौट आते हैं वो पंछी डोलकर,
चहकती है शाम, ज्यूँ बिखरे हों जाम,
बातें तमाम, उनके ही नाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

गुनगुनाते हैं पवन, फूलों से बोलकर,
कैसे मन को बांधे, क्यूँ ना रख दे खोलकर,
बिखेरे हैं लाल रंग, किरणों ने तमाम,
सिंदूरी राज, वो क्या आज लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

पात-पात रंगे गुलाल, कैसे डोलकर,
हर पात पर लिखी है, बात कुछ बोलकर,
ऐ शाम, कर दे जरा कुछ बातें आम,
क्यूँ चुपचाप, खत गुमनाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

आएंगे वो, पढ़ ना पाएंगे बोलकर,
कुछ कह भी न पाएंगे, वो मुँह खोलकर,
लबों से कह भी दे, तू किस्से तमाम,
बयाँ क्यूँ, आधी ही हकीकत, कर रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 8 December 2019

ये सांझ कैसे

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

कल-कल बही थी, इक धार सी ये!
अभी तो, शुरुआत थी, इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से ये धार कैसे?

लेनी थी अभी , चैन की चँद साँसें!
अभी तो, पहली थी, साँस एहसास की,
सिमटने लगी, है ये एहसास कैसे?

विस्मृत कर गई थी, यूँ ये क्षितिज!
फैली थी, अभी तो, ये किरण भोर की,
छाने लगी, अभी से ये रात कैसे?

सिमटते हैं कैसे, प्रबल से प्रवाह ये!
अभी तो, उत्थान थी, ये इक प्रवाह की,
रुकने लगी, अभी से प्रवाह कैसे?

समेटा है किसने, आँचल गगन से!
सजी थी, अभी तो, गगन ये दुल्हन सी,
हुई बेरंग, गगन ये आज ही कैसे?

जगते ही चाह, छूट जाते हैं ये राह!
अभी था जीवन, अब है परवाह इसकी,
बदलते रहे, ये जीवन के राह कैसे!

बीत जाते हैं, न जाने ये वक्त कैसे!
अभी तो, सुबह थी, ये नई जिन्दगी की,
सिमट आई, आँखों में सांझ कैसे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

एक लम्हा नहीं

एक लम्हा नहीं, उम्र भर की है ये बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

तुझ में कहीं, करता हूँ खुद की तलाश,
गुजरा था कहीं, तुझ से ही होकर,
परवाह किसे, थी कहाँ राहों में ठोकर!
रोक लेते, तुम एक पल ही काश,
समेट लाता, मैं अधूरा सा ये आकाश!

सपने ही रहे, थी जो सपनों की बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

सब कुछ तो है, पर कहीं कुछ भी नहीं,
हर रंग में है, उस रंग की ही कमी,
खोई है महफिल, खामोश है ये गजल!
धुन कोई, छेड़ देते तुम जो काश,
सज ही उठते तराने, गूँजते ये आकाश!

थमा सा है लम्हा, थमी सी है ये बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

हर शै में है, इक तेरे झलक की कमी,
सूनी हैं पलकें, आँखों में है नमीं,
हो चला है बोझिल, लम्हों का सफर!
होते जो हमसफर, तुम ही काश,
समेट लाता, मैं अधूरा सा ये आकाश!

एक लम्हा नहीं, उम्र भर की है ये बात,
तेरी मेरी, अनकही सी है ये बात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 5 December 2019

लचकती शाखें

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

अनकहा वही, जो है अनसुना,
आवाज मेरी, जो न अब तलक बना,
गीत ये मेरे, तू जरा गुनगुना...

लचकती शाख सी, मन में रही,
डोलती हर बात पर, चुपचाप सी रही,
बाहें थाम कर, तू इसे मना...

राज ये कौन सा, गीत में ढ़ला,
साज ये कौन सा, इक संगीत में ढ़ला,
आवाज दे, तू जरा गुनगुना....

थिरका ये, समय की चाल पर,
रोता फिरा कभी ये, मेरे इस हाल पर,
नग्मा कोई, तू मुझको सुना..

लचकती हैं, रूँधी सी ये साँसें,
मचलती शाख सी, झूलती है ये साँसें,
आ संग-संग, तू इसे गुनगुना..

फिर न आएंगे, लौट कर हम,
न जाने कहाँ, किधर खो जाएंगे हम,
रह जाए न, गीत ये अनसुना..

अनसुने ये गीत मेरे, तु जरा गुनगुना..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 26 November 2019

टूटा सा तार

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

संभाले, अनकही सी कुछ संवेदनाएं,
समेटे, कुछ अनकहे से संवाद,
दबाए, अव्यक्त वेदनाओं के झंकार,
अनसुनी, सी कई पुकार,
अन्तस्थ कर गई हैं, तार-तार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

कभी थिरकाती थी, पाँचो ऊंगलियाँ,
और, नवाजती थी शाबाशियाँ,
वो बातें, बन चुकी बस कहानियाँ,
अब है कहाँ, वो झंकार?
अब न झंकृत हैं, मेरे पुकार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

वश में कहाँ, किसी के ये संवेदनाएं,
खुद ही, हो उठते हैं ये मुखर,
कर उठते हैं झंकार, ये गूंगे स्वर,
खामोशी भरा, ये पुकार,
जगाता है, बनकर चित्कार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

ढ़ल चुका हूँ, कई नग्मों में सजकर,
बिखर चुका हूँ, हँस-हँस कर,
ये गीत सारे, कभी थे हमसफर,
बह चली, उलटी बयार,
टूट कर, यूँ बिखरा है सितार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

जज्ब थे, सीने में कभी नज्म सारे,
सब्ज, संवेदनाओं के सहारे,
बींधते थे, दिलों को स्वर हमारे,
उतर चुका, सारा खुमार,
शेष है, वेदनाओं का प्रहार!

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 November 2019

मौसम 26वाँ

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

तुम, जैसे, गुनगुनी सी हो कोई धूप,
मोहिनी सी, हो इक रूप,
तुम्हें, रुक-रुक कर, छू लेती हैं पवन,
ठंढ़ी आँहें, भर लेती है चमन,
ठहर जाते हैं, ये ऋतुओं के कदम,
रुक जाते है, यहीं पर हम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

कब ढ़ला ये दिन, कब ढली ये रातें,
गई जाने, कितनी बरसातें,
गुजरे संग, बातों में कितने पलक्षिण,
बीते युग, धड़कन गिन-गिन,
हो पतझड़, या छाया हो बसन्त,
संग इक रंग, लगे मौसम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

ठहरी हो नदी, ठंढ़ी हो छाँव कोई,
शीतल हो, ठहराव कोई,
क्यूँ न रुक जाए, इक पल ये पथिक,
क्यूँ न कर ले, थोड़ा आराम,
क्यूँ ढ़ले पल-पल, फिर ये ऋतु,
क्यूँ ना, ठहरे ये मौसम?

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
अपनी शादी कीं 26वीं वर्षगाँठ (यथा 24 नवम्बर 2019) पर, श्रीमति जी को समर्पित ...वही मौसम!

Sunday, 17 November 2019

चुप हैं दिशाएँ

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

ओढ़े खमोशियाँ, ये कौन गुनगुना रहा है?
हँस रही ये वादियाँ, ये कौन मुस्कुरा रहा है?
डोलती हैं पत्तियाँ, ये कौन झूला रहा है?
फैली है तन्हाईयाँ, कोई बुला रहा है!
ये क्या हुआ, है मुझको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
ख़ामोशियों ने, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

किसकी है मुस्कुराहट, ये कैसी है आहट!
छेड़े है कोई सरगम, या है इक सुगबुगाहट!
चौंकता हूँ, सुन पत्तियों की सरसराहट!
सुनता हूँ फिर, अंजानी सी आहट!
खुली सी पलकें, हैं मेरी आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
मुस्कुराहटों के, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

मुद्दतों तन्हा, रहा अकेला मेरा ही साया,
चुप हैं ये दिशाएँ, वो चुपके से कौन आया!
धुन ये कौन सा, धड़कनों में समाया?
रंग ये कौन सा, मन को है भाया?
ये पुकारता है, किसको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
यूँ रुबाईयों ने, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 14 November 2019

एक क्षण

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

उसने तोड़ा था, बारीकियों से ये मन,
डाली से, ज्यूं झरते हैं सुमन,
ठूंठ होते हैं, ज्यूं पतझड़ में ये वन,
ज्यूं झर जाते हैं, ये पात-पात,
हौले-हौले, बिखरे हैं ये जज्बात,
एक क्षण की, वो बात,
हर-क्षण, उसे भी तड़पाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

नाजुक सा ये मन, कोई पाषाण नहीं,
यूँ भूल जाना, आसान नहीं,
बिन खनक, यूँ ही टूट जाते हैं ये,
टुकड़ों में फिर, जी जाते है ये,
हौले-हौले, पिघलती है ये हर रात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी पिघलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

कटते नहीं, उम्र भर, ये एक ही क्षण,
कैसे रुके, बहती सी पवन,
कैसे रुके, बहते साँसों के ये घन,
कैसे रुके, ये जीवन के चरण,
हौले-हौले, बहा ले जाए ये साथ,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी याद आता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

बीते ना ये पतझड़, न आये वो बसंत,
ये राह, क्यूँ हुआ है अनन्त,
विचारे है क्यूँ, अब ओढ़े ये मलाल,
बुझ गई, जली थी जो मशाल,
हौले-हौले, पतझड़ के वो लम्हात,
एक क्षण की, वो बात,
हर क्षण, उसे भी न भुलाता होगा!

वो आँख भी, भीगी होगी!
वो शाख, रोया होगा!
मुड़कर मैं न जब, फिर गया होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 13 November 2019

महावर

मेहंदी सजाए, महावर पांवों मेें लगाए!
हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

गीत कोई, फिर मैैं क्यूँ न गाऊँ?
क्यूँ न, रूठे प्रीत को मनाऊँ?
सूनी वो, मांग भरूं,
उन पांवों में, महावर मलूँ,
ये पायलिया जहाँ, रुनुर-झुनुर गाए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

फिजाओं से, क्यूँ न रंग मांग लूँ?
फलक से, रंग ही उतार लूँ!
रंग, उन्हें हजार दूँ,
अंग-अंग, महावर डाल दूँ,
सिंदूरी सांझ सी, वो भी मुस्कुराए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

कभी, पतझड़ों सा ये दिन लगे?
मन के, पात-पात यूँ झरे!
प्रीत को, पुकार लूँ,
उनसे बसंत का, उपहार लूँ,
डारे पांवों में महावर, हमें रिझाए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!
मेहंदी सजाए, महावर पांवों मेें लगाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

महावर


[सं-स्त्री.] - 1. शुभ अवसरों पर एड़ियों में लगाया जाने वाला गहरा चटकीला लाल रंग 

2. लाख से तैयार किया गया गहरा लाल रंग

Tuesday, 12 November 2019

प्रजातंत्र - सत्ता-लोलुपता

प्रजातंत्र के हंता, ये नेता!
उन्हें, भोगनी है सत्ता,
आम जन की, यहाँ कौन सोचता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!

बस, कुर्सी दे दो उनको,
चूर नशे में, फिर रहने दो उनको,
मिटने दो, जन-उम्मीदों को!
प्रजातंत्र है, प्रजा खुद सुलझाएंगी,
समस्याएँ, जब बढ़ जाएंगी,
काँटों में, उलझ जाएंगी,
हो विवश, सत्ता-लोलुपता वश,
बुद्धि हीन हमें समझ,
हाथ जोड़, वो फिर से आएंगे,
हलके से, मुस्काएंगे,
देश राग गाएंगे,
वादों कसमों को दोहराएंगे,
इक आम जन, हैं हम,
सजा भोगते, मजबूर प्रजागण हैं हम,
हर हाल में, बस दीन-जन हैं हम,
राजा, हम फिर चुन लेंगे,
हमें कहाँ, ना कहने का है अवसर है,
मजबूरी है, ये प्रजातंत्र है,
हर शाख पर, फलती है सुख सत्ता,
गंदी सत्ता-लोलुपंता!
वोट, हम फिर दे ही आएंगे,
खर्च भी ! वहन हम ही कर जाएंगे!
ना भी, ना कह पाएंगे,
कौन सोचता, क्या हो प्रजा का अधिकार?
ना कहने का, बस उनका है अधिकार!
प्रजा, मूक-द्रष्टा, है बस भोगता,
झूठा, खोखला है ये प्रजातंत्र,
प्रजा की, देश की, यहाँ कौन सोचता!

प्रजातंत्र के ये हंता, ये नेता!
उन्हें, भोगनी है सत्ता,
आम जन की, यहाँ कौन सोचता!
सर्वोपरि है, सत्ता-लोलुपता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 10 November 2019

बिटिया के नाम

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

जीवन के, इन राहों पर,
बाधाएं, आएंगी ही रह-रह कर,
भटकाएंगी ये मार्ग तुझे, हर पग पर,
विमुख, लक्ष्य से तुम न होना,
क्षण-भर, धीरज रखना,
विवेक, न खोना,
विचलित, तुम किंचित ना होना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

चका-चौंध, है ये पल-भर,
ये तो है, धुंधले से सायों का घर,
पर तेरा साया, संग रहता है दिन-भर,
समेटकर, सायों को रख लेना,
सन्मुख, सत्य के होना,
स्वयं को ना खोना,
धुंधलाते सायों सा, तुम ना होना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

बुद्धि तेरी, स्वयं है प्रखर,
ज्ञान तुझमें, भरा कूट-कूट कर,
पग खुद रखना, आलोकित राहों पर,
असफलताओं से, ना घबराना,
विपदाओं से, ना डरना,
तुम, हँसती रहना,
गिरना, संभलना, यूँ चलती रहना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

पिता हूँ मैं, हूँ तेरा रहबर,
पथ दिखलाऊंगा, हर-पग पर,
पर होगी, ईश्वर की भी तुझ पर नजर,
भरोसा, उस ईश्वर पर रखना,
कर्म-विमुख, ना होना,
आँखें, मूंद लेना,
कर्म के पथ पर, यूँ बढ़ती रहना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

घर आए राम

बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!

था वनवास का इक, दीर्घ अन्तराल!
युग बीते, सदियाँ बीती....
ना बीत सका था, वो बारह साल!
पर, अन्तिम है यह साल,
बेघर, सदियों भटक चुके वो दर-दर,
तोड़ वनवास, राम आएंगे घर,
पुनर्स्थापित होगी मर्यादा,
प्रतिष्ठित होंगे, अब अपने घर राम!

बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!

होना ही था, यह अति-दीर्घ विरह!
बेशक, कलयुग है यह....
मर्यादा की, परिभाषा ही झूठी थी,
सारी मर्यादाएं, टूटी थी,
सत्य की, बिखरी सी रिक्त सेज पर,
झूठ, फन फैलाए लेटी थी,
पुनः जाग उठे हैं राम,
झूठ का, हुआ अंततः काम तमाम!

बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
............................................................

एक आलेख-संदर्भ:

अयोध्या केस के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने शनिवार दिनांक 09.11.2019 को, 40 दिनों तक चली लगातार सुनवाई के पश्चात,  अपने फैसले में स्पष्ट रूप से यह कहा कि अयोध्या में विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल के नीचे एएसआई की खुदाई से संकेत मिलता है कि ‘‘अंदर जो संरचना थी वह 12वीं सदी की हिन्दू धार्मिक मूल की थी।’’

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 23 अक्टूबर, 2002 को खुदाई और विवादित स्थल पर वैज्ञानिक जांच का काम सौंपा था। 

पाँच सदस्यीय संविधान पीठ नें साक्ष्यों के आधार पर  यह भी माना कहा कि बहुस्तरीय खुदाई के दौरान एक गोलाकार संरचना सामने आयी जिसमें ‘मकर प्रणाला’ था, जिससे संकेत मिलता है कि आठवीं से दसवीं सदी के बीच हिन्दू वहां पूजा-पाठ करते थे। 

पीठ ने कहा, ‘‘अधिसंभाव्यता की प्रबलता के आधार पर अंदर पाई गई संरचना की प्रकृति इसके हिंदू धार्मिक मूल का होने का संकेत देती है जो 12 वीं सदी की है।’’ पीठ ने कहा कि एएसआई की खुदाई से यह भी पता चला कि विवादित मस्जिद पहले से मौजूद किसी संरचना पर बनी है। 

एएसआई की अंतिम रिपोर्ट बताती है कि खुदाई के क्षेत्र से मिले साक्ष्य दर्शाते हैं कि वहां अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग सभ्यताएं रही हैं जो ईसा पूर्व दो सदी पहले ‘उत्तरी काले चमकीले मृदभांड’ तक जाती है। 

न्यायालय ने कहा, ‘‘एएसआई की खुदाई ने पहले से मौजूद 12वीं सदी की संरचना की मौजूदगी की पुष्टि की है। संरचना विशाल है और उसके 17 लाइनों में बने 85 खंभों से इसकी पुष्टि भी होती है।’’ 

पुरातात्विक साक्ष्यों का विश्लेषण करने के बाद शीर्ष अदालत ने कहा कि नीचे बनी हुई वह संरचना जिसने मस्जिद के लिए नींव मुहैया करायी, स्पष्ट है कि वह हिन्दू धार्मिक मूल का ढांचा था।

यह कलयुग का चरम था, जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम प्रताड़ित व तिरस्कृत हुए थे।

सार सत्य यही है कि भूतकाल में भारत के समृद्ध गौरवशाली इतिहास को पापियों ने रौंदकर हमें राम-रहित अमर्यादित समाज में रहने को विवश किया गया।

परन्तु, अब दीप जलाओ, खुशियाँ मनाओ, पुनः अपने घर आए राम।

Wednesday, 6 November 2019

स्पंदन (1101 वीं रचना)

अन्तर्मन हुई थी, हलकी सी चुभन!
कटते भी कैसे, विछोह के हजार क्षण?
हर क्षण, मन की पर्वतों का स्खलन!
सोच-कर ही, कंपित सा था मन!

पर कहीं दूर, नहीं हैं वो किसी क्षण!
कण-कण, हर शै, में हैं उन्हीं के स्पंदन!
पाजेब उन्हीं के, यूँ बजते है छन-छन,
छू कर गुजरते हैं, वो ही हर-क्षण!

बदलते मौसमों में, हैं उनके ही रंग,
यूँ ही कुहुकुनी , कुहुकती न अकारण,
यूँ व्याकुल पंछियाँ, करती न चारण,
यूँ न कलियाँ, चटकती अकारण!

स्पन्दित है सारे, आसमान के तारे,
यूँ ही लहराते न बादल, आँचल पसारे,
यूँ हीं छुपते न चाँद, बादल किनारे,
उनकी ही आखों के, हैं ये इशारे!

नजदीकियाँ, दूरियों में हैं समाहित,
समय, काल-खंड, उन्हीं में है प्रवाहित,
ये काल, हर-क्षण, उनसे है प्रकम्पित,
यूँ रोम-रोम, पहले न था स्पंदित!

अन्तर्मन जगी है, मीठी सी चुभन!
कट ही जाएंगे, विछोह के हजार क्षण,
क्यूँ हो मन की पर्वतों पर विचलन?
उस स्पंदन से ही, गुंजित है मन!

(इस पटल पर यह मेरी 1101वीं रचना है।  आप सभी के प्रेम और स्नेह बिना यह संभव नहीं था। आभार सहित स्नेह-नमन)

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

दूर हैं वो

दूर हैं वो, पल भर को, जरा सा आज!
तो, खुल रहे हैं सारे राज!
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, जिन्दा है, मुझमें भी एक एहसास!

थे वो, कल तक, कितने ही पास,
तो, न थी कहीं, कोई कमी,
बस, फिक्र में थी, कहीं वो ही ज़मीं!
रोज, थी अनर्गल सी हजारों बातें,
अनर्थक, बेफिक्र कई जिक्र,
निरर्थक सी, कभी लगती थी जो,
वही थी, अर्थपूर्ण सी सौगातें,
न थी, उनकी ललक,
हर शै, उनकी ही थी झलक,
झंकृत था, हर ईक कोना,
लगता था, जरूरी है कहीं एक घर होना!
खल गई है, जरा सी दूरी,
पर, है जरूरी, पल भर को ये भी दूरी,
ताकि, जगता रहे ये एहसास,
मानव न हो जाए पत्थर,
कोई दूरी, दरमियाँ, न जन्म ले उत्तरोत्तर!

दूर हैं वो, कुछ पल को, जरा सा आज!
तो, मैं मुझको ही, ढूंढ़ता हूँ आज !
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, बचा है, मुझमें भी एक एहसास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 3 November 2019

पराई साँस

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

प्यास

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

घूँट, कितनी ही पी गया मैं!
प्यासा! फिर भी, कितना रह गया मैं!
तृप्त, क्यूँ न होता, ये मन कभी?
अतृप्ति! ये कैसी रही?
मन की प्यास, क्यूँ वैसी ही रही?
कुछ है, जो पानी में नहीं!
ढूंढ़ता है, मन वही!
पानी के किनारे, हम थे पानी के सहारे,
पर भटक रहे हम, प्यास के मारे,
है पानी में, इक परछाईं मेरी,
हूँ मैं, परछाईं से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

यूँ तो, संभलता रह गया मैं!
पी कर! थोड़ा, बहलता रह गया मैं!
मशगूल, रहकर दुनियाँ में कहीं!
भूला, सत्य को मैं कहीं!
गूंज मन की, दबाए खुद में कहीं!
करता ही रहा मैं, अनसुनी,
सुनता है, मन वही!
दरिया किनारे, कलकल बहते हैं धारे,
रेत ये सूखे से, हैं दरिया किनारे,
इस प्यास में है, रानाई मेरी,
हूँ मैं, रानाई से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 31 October 2019

उम्मीद

हरी है उम्मीद, खुले हैं उम्मीदों के पट!

विपत्तियों के, ऊबते हर क्षण में,
प्रतिक्षण, जूझते मन में,
मंद पड़ते, डूबते उस प्रकाश-किरण में,
कहीं पलती है, इक उम्मीद,
उम्मीद की, इक महीन किरण,
आशा के, उड़ते धूल कण,
उम्मीदों के क्षण!

हौले से, कोई दे जाता है ढ़ाढ़स,
छुअन, दे जाती है राहत,
आशा-प्रत्याशा, ले ही लेती है पुनर्जन्म,
आभासी, इस प्रस्फुटन में,
कुछ संभलता है, बिखरा मन,
बांध जाते है टूटे से कोर,
उम्मीदों के डोर!

उपलाते, डगमगाते उस क्षण में,
हताश, साँसों के घन में,
अवरुद्ध राह वाले, इस जीवन-क्रम में,
टूटते, डूबते भरोसे के मध्य,
कहीं तैरती है, भरोसे की नैय्या,
दिखते हैं, मझधार किनारे,
उम्मीदों के तट!

हरी है उम्मीद, खुले हैं उम्मीदों के पट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 27 October 2019

दीप मेरा

ढ़ल ही जाएगी, तम की, ये भी रात!

करोड़ों दीप, कर उठे, एक प्रण,
करोड़ों प्राण, जग उठे, आशा के क्षण,
जल उठे, सारे छल, प्रपंच,
लुप्त हुए द्वेष, क्लेश, मन के दंश,
अब ये रात क्या सताएगी?
तम की ये रात, ढ़ल ही जाएगी!

यूँ तो, सक्षम था, एक दीप मेरा,
था विश्वस्त, हटा सकता है वो अंधेरा,
जला है, ये दीप, हर द्वार पर,
है ये भारी, तम के हरेक वार पर,
अब ये रात क्या डराएगी?
विध्वंसी ये रात, ढल ही जाएगी!

अंत तक, जलेगा ये दीप मेरा,
विश्वस्त हूँ मैं, होगा कल नया सवेरा,
होंगे उजाले, ये दिल धड़केगे,
टिमटिमाते, आँखों में सपने होंगे,
अब ये राह क्या भुलाएगी?
निराशा की रात, ढ़ल ही जाएगी!

तम की ये भी रात, ढ़ल ही जाएगी!

दीपावली की अनन्त शुभकामनाओं सहित.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 26 October 2019

शब्द-पंख

शब्दों को मेरे, गर मिल जाते पंख तुम्हारे,
उड़ आते पास तेरे, लग जाते ये अंग तुम्हारे!

तरंग सी कहीं उठती, कोई कल्पना,
लहर सी बन जाती, नवीन कोई रचना,
शब्द, भर लेते ऊँचे कई उड़ान,
तकते नभ से, नैन तुम्हारे, पंख पसारे,
उड़ आते, फिर पास तेरे!

शब्दों को मेरे, गर मिल जाते पंख तुम्हारे!

सज उठती, मेरी कोरी सी कल्पना,
रचनाओं से अलग, दिखती मेरी रचना,
असाधारण से होते, सारे वर्णन,
गर नैनों के तेरे, पा लेते ये निमंत्रण,
उड़ आते, फिर पास तेरे!

शब्दों को मेरे, गर मिल जाते पंख तुम्हारे!

पुल, तारीफों के, बंध जाते नभ तक,
बातें मेरी, शब्दों में ढ़ल, जाते तुझ तक,
रोकती वो राहें, थाम कर बाहें,
सुनहरे पंखों वाले, कुछ शब्द हमारे,
उड़ आते, फिर पास तेरे!

शब्दों को मेरे, गर मिल जाते पंख तुम्हारे!
उड़ आते पास तेरे, लग जाते ये अंग तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 25 October 2019

अवधूत

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

रहता हम में ही कहीं, इक अवधूत,
बिंदु सा, लघु-कण रुपी, पर सत्याकार,
इक आधार, काम-वासना से वो परे,
अवलम्बित ये जीवन, है उस पर,
प्रतिबिम्ब भी नहीं, महज हम उसके,
पर, सहज है वो, हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

वो ना दु:ख से विचलित, इक पल,
ना ही सुख की चाहत, रखता इक पल,
हम तो पकड़े बैठे, पानी के बुलबुले,
फूटे जो, हाथों में आने से पहले,
देते भ्रम हमको, ये आते-जाते क्रम,
पर, इनसे परे, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

मोह का, अंधियारा सा कोई दौड़,
मृग-मरीचिका, जिस का न कोई ठौर,
दौड़ते हम, फिर गिर कर बार-बार,
इक हार-जीत, लगता ये संसार,
बिंदुकण रुपी, लेकिन वो सत्याकार,
स्थिर सर्वदा, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

तारों सा टिम-टिमाता, वो दीया,
जीवनपथ अंधियारों में, फिर भी रहा,
सत्य ही दिखलाया, उसने हर बार,
करते रहे, बस हम ही, इन्कार,
समक्ष खड़ा, है अब ये गहण अंधेरा,
इक प्रकाश, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 19 October 2019

गुम दो किनारे

काश!
होता दो किनारों वाला,
मेरा आकाश!

न होता, ये असीम फैलाव,
न जन्म लेती तृष्णा,
कुछ कम जाते,
भले ही, कामना रुपी ये तारे,
जो होते, आकाश के दो किनारे!
न बढ़ती पिपासा,
न होती, किसी भरोसे की आशा,
बिखरती न आशा,
न फैलती, गहरी सी निराशा,
अनबुझ न होती, ये पहेली,
कुछ ही तारों से,
भर जाती, ये मेरी झोली,
बिखरने न पाते,
टूटकर, अरमां के सितारे,
अपरिमित चाह में,
तकता न मैं,
बिन किनारों वाला,
अपरिचित सा, ये आकाश!
इक असीम फैलाव,
जो खुद ही,
ढूंढ़ता है, अपना किनारा,
वो दे क्या सहारा?

काश!
होता दो किनारों वाला,
मेरा आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 17 October 2019

नैन किनारे

उलझे ये दो बूँद तुम्हारे, नैन किनारे!

गम अगाध, तुम सह जाते थे,
बिन कुछ बोले, तुम रह जाते थे,
क्या, पीड़ पुरानी है कोई?
या, फिर बात रुहानी है कोई!
कारण है, कोई ना कोई!
क्यूँ उभरे हैं ये दो बूँद, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

अकारण ही, ये मेघ नहीं छाते,
ये सावन, बिन कारण कब आते,
बदली सी, छाई तो होगी!
मौसम की, रुसवाई तो होगी!
कारण है, कोई ना कोई!
बह रहे बूँद बन धार, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

बगैर आग, ये धुआँ कब उभरे!
चराग बिन, कब काजल ये सँवरे!
कोई आग, जली तो होगी!
हृदय ने ताप, सही तो होगी!
कारण है, कोई ना कोई!
क्यूँ बहते हैं जल-धार, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

इक तन्हाई सी थी, नैन किनारे,
मची है शोर ये कैसी, नैन किनारे,
हलचल, कोई तो होगी,
खलल, किसी ने डाली होगी,
कारण है, कोई ना कोई!
चुप-चुप रहते थे बूँदें, नैन किनारे!

उलझे ये दो बूँद तुम्हारे, नैन किनारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 16 October 2019

स्नेह किनारे

स्नेह के इस किनारे, पलती है इक तलब!

रोज सुबह, जगती है एक प्याले की तलब,
और होते हो तुम, बिल्कुल सामने,
विहँसते दो नैन, दैदीप्यमान इक रूप लिए,
सुबह की, उजली किरण सी धूप लिए,
हाथों में प्याले, थोड़े उलझे से लट,
स्नेह के इस किनारे...
रोज है, इस उजाले की तलब!

अतीत हुए पल, व्यतीत हुए संग सारे कल,
अरसो, संग-संग तेरे बरसों बीते,
पल हास-परिहास के, नित प्यालों में रीते,
मधुर-मधुर, मिश्री जैसी मुस्कान लिए,
स्नेह भरे, विस्तृत से वो लघु-क्षण,
स्नेह के इस किनारे...
रोज है, इसी हाले की तलब!

होते रहे परिस्कृत, तिरोहित जितने थे पथ,
पुरस्कृत हुए, कामनाओं के रथ,
पुनःपरिभाषित होते रहे, सारे दृष्टि-पथ,
मौसम के बदलते हुए, परिधान लिए,
खुशबु है, हर प्यालों की अलग,
स्नेह के इस किनारे...
रोज है, इस प्याले की तलब!

स्नेह के इस किनारे, पलती है इक तलब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 15 October 2019

जीवन किनारे

यूँ हीं छूट जाते है, स॔गी-साथी, ये सहारे,
हाथ हमारे, जीवन किनारे!

संदली सांझ के, ये हल्के से साये,
हो जाती हैं ओझल, रंगीन सी वो राहें,
गुजर जाती हैं, निर्बाध ये डगर,
धुँधलाती सी, बढ़ जाती है ये सफर,
एकाकी से होते, एक पथ पर,
उलझी सी, अलकों,
सुनी सी, पलकों के सहारे,
जीवन किनारे!

थम जाती है ज्यूँ, सागर में नदियाँ,
यूँ थम जाती है, यौवन की साँसें यहाँ,
रोक कर, चंचल सी ये प्रवाह,
चल देती है जीवन, अपनी ही राह,
बे-खबर, बे-असर, बे-परवाह,
हो, इच्छाओं से मुक्त,
छोड़कर, अनन्त कामनाएँ,
जीवन किनारे!

अंग-अंग पर, उभरती हैं झुर्रियाँ,
ठूंठ होते हैं वृक्ष, यूँ डूबती हैं कश्तियाँ,
उम्र भर, किसने दिया है साथ?
सूख कर, झर जाते है पात-पात,
जगाती है, नैनों में तैरती रात,
काटती है, ये रौशनी,
नश्तर चुभोते है, ये तन्हाई,
जीवन किनारे!

यूँ हीं छूट जाते है, स॔गी-साथी, ये सहारे,
हाथ हमारे, जीवन किनारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 13 October 2019

आत्मविस्मृति

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

समृद्ध संस्कृति, सुसंस्कृत व्यवहार,
प्रबुद्ध प्रवृत्ति, सद्गुण, सद्-विवेक, सदाचार,
हो चले हैं काल-कवलित, ये सारे संदर्भ,
यूँ घेर रहे है मुझको, अब मेरे ही दर्प,
बतला दे, वो ही पुरखों की बातें!

ओ! विस्मृत सी यादें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

भरमाया हूँ, तुझको ही भूला हूँ मैं,
सम्मुख हैं पंख पसारे, विस्तृत सा आकाश,
छद्म सीमाओं में, इनकी ही उलझा हूँ मैं,
नव-कल्पनाओं का, दिला कर भास,
मंथन कर, अपनी याद दिला दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

उलझाए हैं, दिशाहीन सी ये राहें,
सपनों से आगे, दूर कहीं ये मन जाना चाहे,
भटका हूँ, इक उलझन में, दोराहे पर मैं,
तू यूँ तो ना उलझा, सोए विवेक जगा,
हाथ पकड़, कोई राह दिखा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

संग तुम थे, तो चाहत थी जिन्दा,
दूर हुए तुम जब से, हम खुद से हैं शर्मिन्दा,
हूँ सद्गुण से विरक्त, पीछे छूटा कर्म पथ,
विरासत अपनी ही, भूल चुका हूँ मैं,
संस्कार मेरे, मुझको लौटा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
___________________________________
आत्मविस्मृति
[सं-स्त्री.] - अपने को भूल जाना; किसी फँसाव के चलते ख़ुद का ध्यान न रखना; बेख़ुदी।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 12 October 2019

नदी किनारे

डूब कर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

एक विरोधाभास, दो मनोभाव,
एक निरंतर बहती नदी, दो प्रभाव,
इच्छाओं से, जिजीविषा तक!
दो विपरीत कामनाएं, एक ही फैलाव,
सिमट आते हैं सारे, नदी किनारे!

जीवित है, धूल में इक आशा,
कभी तो, रीत जाएगी वो जरा सा,
नदी, खुद आएगी उस तक!
फूल सा, खिल जाएगी वो भीग कर!
धूप सहती है धूल, नदी किनारे!

सुदूर पड़ी, वो धूल हैं आकुल,
सदियों से, मन उनके हैं व्याकुल,
नदी, कब आएगी उस तक?
कब फूल, बन पाएंगी वो खिल कर?
पछताती वो धूल, नदी किनारे!

आश-निराश के, ये दो कण,
तृप्ति-अतृप्ति के, वो मौन क्षण,
पसरा, नदी का वो आँचल,
खामोश बहती, कल-कल सी जल,
चुप-चुप हैं सारे, नदी किनारे!

डूबकर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 11 October 2019

अवगीत मेरे ही

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सुरहीन मेरे गीतों को, जब तुम गाते हो,
मन वीणा संग, यूँ सुर में दोहराते हो,
छलक उठते हैं, फिर ये नैन मेरे।
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सूने इस मन में, बज उठते हैं साज कई,
तन्हाई देने लगती है, आवाज कोई,
यूँ दूर चले जाते हैं, अवसाद मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

गा उठते हैं संग, क्षोभ-विक्षोभ के क्षण,
नृत्य-नाद करते हैं, अवसादों के कण,
अनुनाद कर उठते हैं, तान मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

अवगीतों पर मेरे, तूने छनकाए पायल,
गाए हैं रुन-झुन, आंगन के हर पल,
झंकृत हुए है संग, एकान्त मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 9 October 2019

सहचर

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

छोड़ दे ये दामन, अब तोड़ न मेरा मन,
पग के छाले, पहले से हैं क्या कम?
मुख मोड़, चला था मैं तुझसे,
रिश्ते-नाते सारे, तोड़ चुका मैं तुझसे!
पीछा छोर, तु अपनी राह निकल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

माना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
शर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

चुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
गम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

ये दर्द बेइन्तहा, सदियों तक तूने दिया,
बगैर दुःख, मैंनें जीवन कब जिया?
तू भी तो, पलता ही रहा मुझसे!
फिर भी छल, तू करता ही रहा मुझसे!
अब और न कर, मुझ संग छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 8 October 2019

रावण दहन

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

अगणित रावण, दहन किए आजीवन,
मनाई विजयादशमी, जब हुआ लंका दहन,
उल्लास हुआ, हर्षोल्लास हुआ,
मरा नहीं, फिर भी रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

हर वर्ष, नया स्वरूप धर आया रावण,
कर अट्टहास, करता मानवता पर परिहास,
कर नैतिक मूल्यों का, सर्वनाश,
अन्तःमन, ही बैठा रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

बदला चित्र, चरित्र ना बदला रावण,
बना एकानन, खुले आम घूमते हैं दशानन,
घृणित दुष्कर्म, करते ये ही जन,
विभत्स, कर्मों के ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

आज फिर, अट्टहास कर रहा रावण,
मन ही मन, मानवता पर हँस रहा रावण,
गुलाम है सब, मेरे ही आजीवन,
दंभ यही, भर रहा ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

लाख करो इनकी, प्रतीक का शमन,
चाहे अनंत बार करो, इस पुतले का दहन,
शमन न होंगे, ये वैचारिक रावण,
दंभ और दर्प, वाले ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

मन ही जननी, मन दुःख का कारण,
मार सकें गर, तो मारें अपने मन का रावण,
जीत सकें गर, तो जीत ले मन,
शायद, मर जाएंगे ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 7 October 2019

भग्नावशेष

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

आधी राह आखिर, क्यूँ थका है मुसाफिर?
सफर के उस छोड़ तक, है जाना तुझे मुसाफिर,
परवाह करता है क्यूँ, छूटे हुए उस मोड़ की,
तु सुन ले जरा, बातें हृदय के बंद कोर की,
इस दिल में, अरमान अभी कुछ शेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

आधी कट चुकी है, जो काटनी थी एक उम्र,
भग्न अवशेषों के मध्य, अब काटनी है शेष उम्र,
दफ्न भी करनी पड़ेंगी, अस्थियाँ उस उम्र की,
बिखरी हुई, सारी निशानियाँ भग्नावशेष की,
इस उम्र की, सपनोंं केे जो अवशेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

जर्जर हो चले थे जो, भग्न वो ही सपने हुए,
समय की इस गर्भ में, दफ्न तो सारे अपने हुए,
रह सका है कौन, बिखरे हुए सपनों संग यहाँ,
नित काल-कवलित, होते रहे हैं सपने जवाँ,
नवीन सपने, फिर भी हजारों शेष है!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

बुन ले सपने नए, बना ले तू अट्टालिकाएं,
भग्न हो चुकी हैं जो, सजा ले वो अट्टालिकाएं,
बची है कुछ शाम जो, तू हँसी वो शाम कर,
बची है जाम जो, अपनों के ही नाम कर,
इस सांझ में, सितारे अभी कुछ शेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 5 October 2019

गाहे-बगाहे

गाहे-बगाहे,
सुुुधि किसकी आ जाए!

गूंजी है ये, किसकी ॠचाएँ?
सुध-बुध सी खोई, है सारी दिशाएँ,
पंछी नादान, उड़ना न चाहे,
उसी ओर ताके, झांके,
गाहे-बगाहे!

जाने-अन्जाने,
सुुुधि किसकी आ जाए!

चितचोर वो, चित वो चुराए,
कोई डोर खींचे, वो पतंग सा उड़ाए!
गाए रिझाए, मन को सताए,
अँखियों से, नींदेें चुराए,
गाहे-बगाहे!

चाहे-अनचाहे,
सुुुधि किसकी आ जाए!

क्यूँ मन रोए, सुध-बुध खोए,
फैैैैलाए पंखों को, कहीं उड़ न पाए,
दिशाहीन, नील-नभ की राहें,
बरबस, मन भरमाए,
गाहे-बगाहे!

देखे-अनदेखे,
सुुुधि किसकी आ जाए!

तन्हा रहे, हाथों में हाथ गहे,
गूंज वही, सूनी राहों में साथ लिए,
है कौन, हर पग साथ रहे,
संग कही, लिए जाए,
गाहे-बगाहे!

बिन-बुलाए,
सुुुधि किसकी आ जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 2 October 2019

निस्पंद मन भ्रमर

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

व्यथा के अनुक्षण, लाख बाहों में कसे,
विरह के कालाक्रमण, नाग बन कर डसे,
हर क्षण संताप दे, हर क्षण तुझ पर हँसे,
भटकने न देना, तुम मन की दिशाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

तिरने न देना, इक बूँद भी नैनों से जल,
या प्रलय हो, या हो हृदय दु:ख से विकल,
दुविधाओं के मध्य, या नैन तेरे हो सजल,
भीगोने ना देना, इन्हें मन की ऋचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

गर ये नैन निर्झर, अनवरत बहती रही,
गर पिघलती रही, यूं ही सदा ये हिमगिरी,
गलकर हिमशिखर, स्खलित होती रही,
कौन वाचेगा यहाँ, वेदों की ऋचाएँ?

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

ध्यान रखना, ऐ पंखुडी की भित्तियाँ,
निस्पंद मन भ्रमर, अभी जीवित है यहाँ,
ये काल-चक्र, डूबोने आएंगी पीढियाँ,
साँसें साधकर, वाचना तुम ॠचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 26 September 2019

हुंकार

गूंज उठी थी ह्यूस्टन, थी अद्भुत सी गर्जन!
चुप-चुप सा, हतप्रभ था नेपथ्य!
क्षितिज के उस पार, विश्व के मंच पर, 
देश ने भरी थी, इक हुंकार?

सुनी थी मैंने, संस्कृति की धड़कनें,
जाना था मैंने, फड़कती है देश की भुजाएं,
गूँजी थी, हमारी इक गूंज से दिशाएँ,
एक व्यग्रता, ले रही थी सांसें!

फाख्ता थे, थर्राए दुश्मनों के होश,
इक भूचाल सा था, फूटा था मन का रोश,
संग ले रहा था, एक प्रण जन-जन,
विनाश करें हम, विश्व आतंक!

आतंक मुक्त हों, विश्व के फलक,
जागे मानवता, आत॔कियों के अन्तः तक,
लक्ष्य था एक, संग हों हम नभ तक,
संकल्प यही, पला अंत तक!

चाह यही, समुन्नत हों प्रगति पथ,
गतिमान रहे, विश्व जन-कल्याण के रथ,
अवसर हों, हाथों में हो इक मशाल,
रंग हो, नभ पे बिखरे गुलाल!

महा-शक्ति था, जैसे नत-मस्तक,
पहचानी थी उसने, नव-भारत की ताकत,
जाना, क्यूँ अग्रणी है विश्व में भारत!
आँखों से भाव, हुए थे व्यक्त!

गूंजी थी ह्यूस्टन, जागे थे सपने,
फलक पर अब, संस्कृति लगी थी उतरने,
हैरान था विश्व, हतप्रभ था नेपथ्य!
निरख कर, भारत का वैभव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 22 September 2019

मकर जाल

उम्र गुजरी, प्रश्नों के इक मकर जाल में,
उस पार उतरा, था मैं जरा सा,
अंतिम साँसें, गिन रही थी प्रश्न कई,
सो रही थी, मन की जिज्ञासा खोई हुई,
कुछ प्रश्न चुभते मिले, शूल जैसे,
जगा गई थी, मेरी जिज्ञासा!

उभरते हैं प्रश्न कई, मकर जाल बनकर!
जन्म लेती है, इक नई जिज्ञासा,
नमीं को सोख कर, जमीं को बींध कर,
जैसे फूटता हो बीज कोई, अंकुर बनकर,
प्रश्न नया, उभरता है एक फिर से,
जागती है, इक नई जिज्ञासा!

उलझी प्रश्न में, सुलझी कहाँ ये जिंदगी!
बना इक सवाल, ये ही बड़ा सा,
हर प्रश्न के मतलब हैं दो, उत्तर भी दो,
खुद राह कोई, मुड़ कर कहीं गया है खो,
तो करता कोई क्यूँ, फिर प्रश्न ऐसे,
है जाल में, उलझी जिज्ञासा!

उलझाए हैं ये प्रश्न, मकर जाल बनकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा