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Saturday 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
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रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 19 February 2019

वो बोलती रही

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!

थी कुछ ऐसी, उसके स्वर की संरचना,
मुग्ध हुए थे सारे, स्तब्ध हुए तारे,
उस पल तो हम भी थे, खुद को हारे,
कोयल, भूल गई थी कूकना,
मुखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल बहती रही रचना!

नव-पल्लव बन, पल्लवित हुए थे स्वर,
महुए की रस में, प्लावित वे स्वर,
उनकी अधरों पर, आच्छादित होकर,
स्वर, सीख रहे थे इठलाना,
सुघड़ हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इठलाती बहती रही रचना!

मोहक है वो स्वर, उस कंठ है कलरव,
स्वर ने पाया, उस कंठ का वैभव,
डूबे आकण्ठ, उनकी जादू में खोकर,
स्वर, जान गई थी मुस्काना,
प्रखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इतराती बहती रही रचना!

अब मचलकर, बोल उठे वो गूंगे स्वर,
सँवर कर, डोल रहे वो गूंगे स्वर,
झरने सी, कल-कल बहती मन पर,
स्वर ने था, जीवन को जाना,
जीवन्त हो चली , साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!
जीती रही, साधारण सी अंकित रचना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
This poem has been Selected as FEATURED POST at INDIBLOGGER. Thanks to All. Regards.