Monday 29 January 2024

मृत्यु या मोक्ष

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

कुछ आशा,
कुछ निराशा के, ये कैसे पल!
बस होनी है, इक,
या आवागमन, या कोई घटना,
कुछ घटित, कुछ अघटित,
हो जाए समक्ष,
या परोक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

टलता कब,
सहारे उस रब के, रहता सब,
ये उम्र, ढ़ले कब,
घेरे सांसों के, जाने टूटे कब!
और मोह रुलाए पग-पग,
परे, जीवन के,
दूजा पक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

सजग निशा,
सुलग-सुलग, बुझ जाती उषा,
यूं चलता ही जाए,
निरंतर काल-चक्र का पहिया,
उस ओर, जहां है क्षितिज,
या, अंतिम इक,
काल-कक्ष!

कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 25 January 2024

ऋतुओं के पहरे

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

इक आए, इक जाए,
देखे ऋतुओं के, नित रूप नए,
अब कौन, उन्हें समझाए,
सरमाए, ख्वाबों के,
हों, कब पूरे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

संशय में, पल सारे!
बदलते से, ऋतुओं संग गुजारे,
चलन रहा, यही सदियों,
ख्वाबों के, वो तारे,
रहे, बे-सहारे!

रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे...

है इक, दग्ध हृदय,
संदिग्ध सा, उधर, इक वलय,
रोके, वो कब रुक पाए,
धार सा, बहा जाए,
वो, लम्हे सारे!

लम्हों पर, ऋतुओं के पहरे,
वो, कब ठहरे!
रख छोड़े हमने, कुछ ख्वाब अधूरे..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 19 January 2024

अलिखित हस्तलिपि

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

पीड़ बन, छलक पड़े जब संवेदना,
अश्रू, सिमटे ना,
कहती जाए, व्यथा की कथा,
सारे दर्द, सिलसिलेवार!

जटिल जरा,
मूक हृदय के, संघातो की ये संतति....

कोरों से छलके, जाए क्या कहके!
बतलाऊं कैसे?
कब इन्हें, शब्दों की दरकार?
वर्ण, लगे, बिन आकार!

है मूक बड़ा,
अनकहे जज्बातों की, ये प्रतिलिपि....

बूझे ही कब, जज्बातों की भाषा!
पाषाण हृदय,
जाने ही कब, मूक अभिलाषा,
अन्तः, पीड़ करे बेजार!

अपितु, कठिन जरा!
पढ़ पाना,
जज्बातों की, अलिखित हस्तलिपि....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 14 January 2024

कुहासे

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द हुई हवा,
हर ओर, जम रही ये दिशा,
चल रही, सर्द लहर,
जर्द ये कुहासे!

सफर, अब राहतों का,
तू थम जरा,
पल भर को, तू जम जरा,
ले आया, नव-विहान,
जर्द ये कुहासे!

जम चुका, ये आंगना,
ज्यूं भर रहा,
नव-संकल्प, नव-कल्पना,
रुख ही, वे बदल गईं,
जर्द से कुहासे!

लक्ष्य है, जरा धूमिल,
धूंध है भरा,
बस खुद पर, रख यकीन,
कुछ असर दिखाएगी,
जर्द ये कुहासे!

थम जरा, ऐ तप्त सांसें,
सर्द अब हवा,
सर्द हो चली, गर्म वो दिशा,
नव प्रवाह, भर गई, 
जर्द ये कुहासे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 13 January 2024

मरहम

यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!

बह चला, वो दरिया,
करवटें लेती रही, अंजान सी ये जिंदगी,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...

अब न, शीशे में मैं,
और ही शख्स कोई, अब परछाईयों में, 
महफिलें, सज रही, हर तरफ,
पर, गुमशुदा मैं!
यूं तो...

ईशारे, अब कहां!
गगन से, अब न पुकारते वो कहकशां,
बिखरी, भीगी सी वे बदलियां,
इन्तजार में, मैं!
यूं तो...

गम, एक मरहम,
इस एकाकी राह, अब वो ही, हमदम,
चुप हैं कितने, वे साजो-तराने,
खामोश सा, मैं!
यूं तो...

यूं तो सर झुकाए,  
सह गए, सजदों में वक्त के ये सितम,
और, बंदगी मेरी!
रह गई, कुछ अनसुनी सी..
यूं तो...

यूं तो, यूं न थे हम!
गूंजती थी, हर पल कोई न कोई सरगम,
महक उठती थी पवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 6 January 2024

नजदीकियां

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

पहचाने से हैं, रस्ते उन गलियों के,
रिश्ते उन, रस्तों से,
करीबी हैं कितने ...
खबर है, जबकि मुझको,
फिर न पुकारेंगी,
वे राहें मुझे,
अपरिमित हो चली वो दूरियां,
अब कहां नजदीकियां?
उन गलियों से!

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

बसी है, इक खुश्बू अब तक इधर,
धड़कनों की, जुंबिश,
सांसों की तपिश...
उन एहसासों की, दबिश,
उन जज्बातों की,
इक खलिश, 
वे अपरिचित से लगे ही कब,
जाने, कैसा ये परिचय?
उन गलियों से!

हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)