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Sunday, 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 March 2021

चुप न रह पाओगे

मेरी ख़ामोशियों को,
जब भी, तन्हाईयों में गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

रोक ही लेगी तेरी राहें, मेरी सर्द आहें, 
कदम, डगमगाएंगे,
थमीं पलकें, भिगो ही जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

यूँ तो, मन के हारे, तुम हो संग हमारे,
नहीं हम, बेसहारे,
इक छवि में, ढ़ल कर गाओगे,
चुप न रह पाओगे!

गगण के पार हो, या हो गगण से परे,
सर्वदा ही, हो मेरे,
मल्हार बन कर, बरस जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खुद में झाँकना, यूँ खुद को आँकना,
खुदा को, माँगना,
सारी खुदाई, यूँ भूल जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

रह-रह बज उठेंगी, हाथों की चूड़ियाँ,
तोड़ कर, बेरियाँ,
खाली पाँव, दौड़ कर आओगे,
चुप न रह पाओगे!

गुजरते वक्त की, हर शै पर मैं लिखूँ,
चुप रहूँ, खुद बुनूँ,
जब पढ़़ोगे, तुम जान जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खनक ही उठेंगे, जीर्ण वीणा के तार,
कर उठोगे, श्रृंगार,
ये हृदय, कैसे संभाल पाओगे,
चुप न रह पाओगे!

मेरी ख़ामोशियों को,
तन्हाईयों में, जब भी गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

Monday, 31 August 2020

रुक जरा

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

चुप-चुप, ये गुनगुनाता है कौन?
हलकी सी इक सदा, दिए जाता है कौन?
बिखरा सा, ये गीत है!
कोई अनसुना सा, ये संगीत है!
है किसकी ये अठखेलियाँ,
कौन, न जाने यहाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

उनींदी सी हैं, किसकी पलक?
मूक पर्वत, यूँ निहारती है क्यूँ निष्पलक?
विहँस रहा, क्यूँ फलक?
छुपाए कोई, इक गहरा सा राज है!
कौन सी, वो गूढ़ बात है?
जान लूँ, मैं जरा!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

कोई लिख रहा, गीत प्यार के!
यूँ हवा ना झूमती, प्रणय संग मल्हार के?
सिहरते, न यूँ तनबदन!
लरजते न यूँ, भीगी पत्तियों के बदन!
यूँ ना डोलती, ये डालियाँ!
कैसी ये खामोशियाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 June 2020

फसाने

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

गुम है हकीकत, गुमनाम हैं गुजरे हुए कल,
कौन जाने, जीवंत कितने थे वो पल,
कोई कहानी सी, बन चुकी वो,
यादों की निशानी सी, बन चुकी वो,
कोरी हकीकत वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

छूट ही जाते हैं, कहीं उन महफ़िलों में हम,
जैसे रूठ जाते हैं, वो गुजरे हुए क्षण,
लौट कर फिर, न आते हैं वो,
छू कर तन्हाई में, गुजर जाते हैं वो,
बीते वो फसाने, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

ठहरे हैं आज भी हम, उन्हीं अमराइयों में,
एकाकी से पड़े हैं, इन तन्हाईयों में,
बन कर गूंजती है, आवाज वो
मूंद कर नैन, सुनता हूँ आवाज वो,
ख़ामोशियाँ वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 8 March 2018

खामोश अभिव्यक्ति

कुछ उभरते अल्फाजों की अभिव्यक्ति,
कुछ चुप से हृदय के, खामोशियों की प्रशस्ति,
दे गई, न जाने मन को ये कैसी शक्ति!

सशंकित था मन, उन खामोशियों से,
उत्साह संवर्धित कर गई, वो बोलती खामोशी,
अचंभित सी कर गई वो अभिव्यक्ति!

वही खामोश से अल्फाज,
अब इन बहती हवाओं से चुनकर,
अनुरोध करता हूं मन को,
तू ख्वाबों को रख...
कहीं खामोशियों से बुनकर!
वो रेशमी अहसास तू देना उन्हे,
सो जाएंगे वो भी...
खामोशियाँ ही ओढ़कर,
फिर तू भी बुन लेना खुद को,
हर पल फना होती,
इस बहती सी दुनियाँ को भूलकर!

अभिव्यक्ति! बिना किसी अतिशयोक्ति,
उभरेंगी लफ्जोें में, चुप से हृदय की अभिव्यक्ति!
उत्साहवर्धन करेंगो, वो बोलती खामोशी!

निःसंकोच! वही टूटती सी खामोशी,
वही चुप से हृदय के, खामोशियों की प्रशस्ति,
तब भी अचंभित करेंगी ये अभिव्यक्ति!

Sunday, 4 December 2016

खामोशियों के छंद

स्तब्ध निशान्त सा है ये आकाश,
स्निग्ध खामोश सी है ये समुन्दर की लहरें,
गुमसुम सी मंद बह रही ये हवाएँ,
न जाने चाह कौन सी मन में दबाए,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

कहना ये मुझसे चाहती हैं क्या,
निःस्तब्ध सी ये मन में सोचती है क्या,
खोई है कहाँ इनकी गतिशीलता,
यहाँ पहले न थी कभी इतनी खामोशियाँ,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

शायद बात कोई इनके मन में है दबी,
या ठेस मुझसे ही इसकी मन को है लगी,
चुपचाप अब वो क्युँ रहने लगी,
नासमझ मैं ही हूँ, ना मैं उसकी मन को पढ़ सका,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

कुछ वजह! मैं भी जान पाता अगर,
मन में है उसके क्या? ये लग जाती मुझको खबर,
मनाने को बार-बार जाता मैं उसकी डगर,
पर गहरा है राज ये, मिन्नतें करूँ तो मैं किधर,
तुम ही कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

ऐ आकाश! तू बादलों की चादर बिछा,
ऐ लहरें! तू आ मचल मेरी पाँवों को दे भीगा,
ऐ हवाएँ! तू राग कोई मुझको सुना,
मन की गिरह खोल दे अनकही मुझको सुना,
अब तो कुछ बोल दो, कोई छंद खामोशियों को दो....

Monday, 19 September 2016

खामोशियाँ

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

यह खामोशी है कैसी......

विषाद भरे आक्रोशित चिट्ठी की तरह गुमशुम,
राख के ढेर तले दबे गर्म आग की तरह प्रज्वलित,
तपती धूप में झुलसती पत्थर की तरह चुपचाप....

खामोशियाँ हों तो ऐसी.....

जज्बात भरे पैगाम लिए चिट्ठी की तरह मुखर,
दीवाली के फुलझड़ी मे छुपी आग सी खुशनुमा,
धूप में तपती गर्म पत्तियों की तरह लहलहाती.....

खामोशी है यह कैसी....

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
तु कर दे इशारे, बता कि ये खामोशियाँ हैं कैसी?
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....