Showing posts with label अंधेरा. Show all posts
Showing posts with label अंधेरा. Show all posts

Sunday 27 October 2019

दीप मेरा

ढ़ल ही जाएगी, तम की, ये भी रात!

करोड़ों दीप, कर उठे, एक प्रण,
करोड़ों प्राण, जग उठे, आशा के क्षण,
जल उठे, सारे छल, प्रपंच,
लुप्त हुए द्वेष, क्लेश, मन के दंश,
अब ये रात क्या सताएगी?
तम की ये रात, ढ़ल ही जाएगी!

यूँ तो, सक्षम था, एक दीप मेरा,
था विश्वस्त, हटा सकता है वो अंधेरा,
जला है, ये दीप, हर द्वार पर,
है ये भारी, तम के हरेक वार पर,
अब ये रात क्या डराएगी?
विध्वंसी ये रात, ढल ही जाएगी!

अंत तक, जलेगा ये दीप मेरा,
विश्वस्त हूँ मैं, होगा कल नया सवेरा,
होंगे उजाले, ये दिल धड़केगे,
टिमटिमाते, आँखों में सपने होंगे,
अब ये राह क्या भुलाएगी?
निराशा की रात, ढ़ल ही जाएगी!

तम की ये भी रात, ढ़ल ही जाएगी!

दीपावली की अनन्त शुभकामनाओं सहित.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 25 October 2019

अवधूत

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

रहता हम में ही कहीं, इक अवधूत,
बिंदु सा, लघु-कण रुपी, पर सत्याकार,
इक आधार, काम-वासना से वो परे,
अवलम्बित ये जीवन, है उस पर,
प्रतिबिम्ब भी नहीं, महज हम उसके,
पर, सहज है वो, हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

वो ना दु:ख से विचलित, इक पल,
ना ही सुख की चाहत, रखता इक पल,
हम तो पकड़े बैठे, पानी के बुलबुले,
फूटे जो, हाथों में आने से पहले,
देते भ्रम हमको, ये आते-जाते क्रम,
पर, इनसे परे, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

मोह का, अंधियारा सा कोई दौड़,
मृग-मरीचिका, जिस का न कोई ठौर,
दौड़ते हम, फिर गिर कर बार-बार,
इक हार-जीत, लगता ये संसार,
बिंदुकण रुपी, लेकिन वो सत्याकार,
स्थिर सर्वदा, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

तारों सा टिम-टिमाता, वो दीया,
जीवनपथ अंधियारों में, फिर भी रहा,
सत्य ही दिखलाया, उसने हर बार,
करते रहे, बस हम ही, इन्कार,
समक्ष खड़ा, है अब ये गहण अंधेरा,
इक प्रकाश, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 8 November 2018

बुझते दीप

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
शामत, अंधेरों की, आनेवाली थी!
कुछ दीप जले, प्रण लेकर,
रौशन हुए, कुछ क्षण वो भभककर,
फिर, उनको बुझता देखा मैनें,
अंधेरी रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कमी, आभा की थी?
या, गर्भ में दीप के, आशा कम थी?
बुझे दीप, यही प्रश्न देकर,
निरुत्तर था मैं, उन प्रश्नों को लेकर!
दृढ-स॔कल्प किया फिर उसने,
दीप्त दीपों को,
तिमिर से लड़ते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

Tuesday 28 August 2018

कब हो सवेरा

ऐ नई सुबह! ऐ सूरज की नई किरण!
इक नई उमंग, इक नया सवेरा तुम कब लाओगे?

मुख मोड़ लिया, जिसने जीवन से,
बस एकाकी जीते हैं जो, युगों-युगों से,
बंधन जोड़ कर उन अंधियारों से,
रिश्ता तोड़ दिया जिसने उजियारों से,
कांतिविहीन हुए बूढ़े बरगद से,
यौवन का श्रृंगार, क्या उनको भी दे जाओगे?

रोज नया दिन लेकर आते हो,
फूलों-कलियों में रंग चटक भर लाते हो,
कोमल पात पर झूम-झूम जाते हो,
विहग के कंठों में गीत बनकर गाते हो,
कहीं लहरों पर मचल जाते हो,
नया उन्माद, क्या मृत मन में भी भर पाओगे?

युगों-युगों से हैं जो एकाकी,
पर्वत-पर्वत भटके हैं बनकर वनवासी,
छाई है जिन पर घनघोर उदासी,
मिलता गर उनको भी थोड़ी सी तरुणाई,
खिलती उनमें कोमल सी अमराई,
यह उपहार, क्या एकाकी मन को दे पाओगे?

ऐ नई सुबह! ऐ नई सी किरण!
साध सको तो इक संकल्‍प साध लो,
कभी सिमटते जीवन में खो लेना,
कहीं विरह में तुम संग रो लेना,
कहीं व्यथित ह्रदय में तुम अकुलाना,
वेदना अपार, क्या सदियों तक झेल पाओगे?

ऐ नई सुबह! ऐ सूरज की नई किरण!
इक नई उमंग, इक नया सवेरा तुम कब लाओगे?

Friday 14 April 2017

कुछ कदम और

साँस टूटने से पहले कुछ कदम मैं और चल लूँ,
मंजिलों के निशान बुन लूँ,
कांटे भरे हैं ये राह सारे,
कंटक उन रास्तों के मैं चुन लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

आवाज मंजिलों को लगा लूँ,
मूक वाणी मैं जरा मुखर कर लूँ,
साए अंधेरों के हैं उधर,
मशालें उजालों के मैं जला लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

ज्ञान की मूरत बिठा लूँ,
अज्ञानता के तिमिर अंधेरे मिटा लूँ,
बेरी पड़े हैं विवेक पे,
मन मानस को मैं जरा जगा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

दर्द गैरों के जरा समेट लूँ,
विषाद हृदय के मैं जरा मिटा लूँ,
अब कहाँ धड़कते हैं हृदय,
हृदय को धड़कना मैं सीखा लूँ,
बस कुछेक कदम मैं और चल लूँ......

प्रगति पथ प्रशस्त कर लूँ,
मुख बाधाओं के मैं निरस्त कर लूँ,
चक्रव्युह के ये हैं घेरे,
व्युह भेदन के गुण सीख लूँ,
बस कुछेक कदम और चल लूँ......

साँस टूटने से पहले बस कुछ कदम मैं और चल लूँ।

Saturday 9 April 2016

इस सफर की मंजिल

उम्र के सफर की इस पड़ाव पर कौन सी मंजिल है ये?

कट चुकी आधी सफर, सिर्फ आधी ही बची,
ये किस मुकाम पर ले चली, आज मुझको ये जिन्दगी,
ये सफर है कौन सी, मंजिल है क्यों अंजान सी?

क्या अंधेरा ही मिलेगा, जिन्दगी की मंजिलो पर?
रुक कर सोचता यही है मन, जीवन के इस पड़ाव पर,
हासिल अनुभव हजार, पर मंजिलों से क्युँ बेखबर?

संग ले चलूँ मै कुछ दिए,अंजानी उन मंजिलों पर,
कुछ उजाले भर सकुँ मैं, इक दीप बन के मंजिलों पर,
अंजानी रही है ये सफर, मंजिल न हो अंजानी मगर!

उम्र के इस सफर की, हमसफर मेरी मंजिल वही,
हमसफर की तलाश में, भटकते रहे सारी उम्र युँ हीं,
गुजरुँ इन राहों से मैं, रह जाऊँ यादों में आपकी!

चल संभल ले एे दिल

चल संभल ले एे दिल,यहीं कहीं खो न जाए मन तेरा।

खोया-खोया सा मन, ये किन वादियों में आज,
लग रहा यूँ मिल रहा दिल, आपसे सपनों में आज,
सामने बैठी हो तुम और मैं देखता हुँ चुपचाप।

दूर झिलमिल रौशनी में, बस मुस्कुराते हों आप,
बंद पलकें लिए मैं देखता, हर तरफ बस आप ही आप,
तसब्बुर में खोए हैं आपके, सामने बैठे हों आप।

तिलिस्म है ये कौन सा, गहरा हुआ अब ये राज,
क्या है वो हकीकत? या है वो बस तसब्बुर की बात,
लग रहा खो रहा मन, फिर उन्हीं सपनों में आज।

किन अंधेरों मे भटकता, बावरा ये मन मेरा,
सपनों की उन वादियों में, हर तरफ बस इक अंधेरा,
चल संभल ले एे दिल, कहीं खो न जाए मन तेरा।