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Wednesday 13 July 2022

कभी यूं ही


यूं ही.....

कभी यूं ही, रुक जाती हैं पलकें,
दर्द कभी, यूं हल्के -हल्के,
उस ओर कभी, मुड़ जाते हैं सब रस्ते,
कभी इक वादा खुद से,
न गुजरेंगे, 
फिर, उन रस्तों से!

यूं ही.....

कभी यूं ही, दे जाए बहके लम्हें,
उलझे शब्दों के, अनकहे,
खोले, राज सभी, बहके जज्बातों के,
स्वप्निल, सारी रातों के,
नींद चुरा ले,
अपनाए, गैर कहाए!

यूं ही.....

कभी यूं ही, आ जाए ख्वाबों में,
बिसराए, उलझी राहों में,
दो लम्हा, वो ही यहां, ठहरा बाहों में,
ठहरे से, जाते लम्हों में,
आए यादों में,
तरसाए, हर बातों में!

यूं ही.....

कभी यूं ही, रुकते ये धार नहीं,
सपने, सब साकार नहीं,
बारिश की बादल का, आकार नहीं,
निर्मूल, ये आधार नहीं,
ये प्यार नहीं,
तू, क्यूं ढूंढ़े ठौर यहीं!

यूं ही.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 13 December 2021

बिखरे हर्फ

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, संवेदनाओं में पिरोए शब्द,
नयन के, बहते नीर में भिगोए ताम्र-पत्र,
उलझे, गेसुओं से बिखरे हर्फ,
बयां करते हैं, दर्द!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, गहराती सी, हल्की स्पंदन,
अन्तर्मन तक बींधती, शब्दों की छुवन,
कविताओं से, उठता कराह,
ये, कवि की, आह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, नृत्य करते, खनकते क्षण,
समेटे हुए हों बांध कर, पंक्तियों में चंद,
बदलकर वेदना भी रूप कोई,
कह रही अब, वाह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

मानता हूं, रवि से आगे कवि,
हमेशा, कल्पनाओं से आगे, भागे कवि,
खुद भी जागे, सबकी जगाए,
सोई पड़ी, संवेदनाएं!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

बेवाक, ख्यालों का विचरना,
खगों का, मुक्ताकाश पे बेखौफ उड़ना,
शीष पर, पर्वतों के डोलना,
कवि की, ये साधना!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 21 March 2021

बैरागी

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

चुभते हैं, ये छंद तेरे,
ज्यूँ शब्दों के, हैं तीर चले,
ना ये, बाण चला,
ठहर जरा!

तुम हो, इक बैरागी,
क्या जानो, ये पीड़ पराई,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

है वश में, मन तेरा,
विवश बड़ा, ये मन मेरा,
ना ये, राग सुना,
ठहर जरा!

तू क्यूँ, नमक भरे,
हरे भरे, हैं ये जख्म मेरे,
यूँ ना, दर्द जगा,
ठहर जरा!

बैरागी, क्या जाने,
जो गम से खुद अंजाने,
झूठा, बैराग तेरा,
ठहर जरा!

मुँह, फेर चले हो,
सारे सच, भूल चले हो,
सत्य, यह कड़वा,
ठहर जरा!

तुम मन, तोड़ गए,
रिश्तो के घन छोड़ गए,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

यूँ साध न मतलब,
कब से रूठा, मेरा रब,
यूँ न, आस जगा,
ठहर जरा!

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 22 November 2020

खाली कोना

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही मन है, 
लेकिन!
बेमतलब, मत जाना मन के उस कोने,
यदा-कदा, सुधि भी, ना लेना,
दबी सी, आह पड़ी होगी,
बरस पड़ेगी!
दर्द, तुझे ही होगा,
चाहो तो,
पहले,
टटोह लेना,
उजड़ा सा, तिनका-तिनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

तेरा ही दर्पण है, 
लेकिन!
टूटा है किस कोने, जाना ही कब तूने,
मुख, भूले से, निहार ना लेना!
बिंब, कोई टूटी सी होगी,
डरा जाएगी!
पछतावा सा होगा,
चाहो तो,
पहले, 
समेट लेना,
बिखरा सा, टुकड़ा-टुकड़ा!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

सुनसान पड़ा ये, 
लेकिन!
विस्मित तेरे पल को, संजोया है उसने,
संज्ञान, कभी, उस पल की लेना!
गहराई सी, वीरानी तो होगी,
चीख पड़ेगी!
पर, एहसास जगेगा,
चाहो तो,
पहले, 
संभाल लेना,
सिमटा सा, मनका-मनका!

खाली सा, 
कोई कोना तो होगा मन का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 3 November 2020

निर्मम, जाने न मर्म!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन!
ओढूं भला कैसे, कोई आवरण!
दिए बिन, निराकरण!
टटोले बिना, टूटा सा अंतः करण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

हो चले थे सर्द, पहले ही एहसास सारे!
चुभोती न थी, काँटों सी चुभन!
दुश्वार कितने, हैं क्षण!
जाने बिना, पल के सारे विकर्षण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

गर, सुन लेते मन की, तो आते न तुम!
दर्द में सिहरन, यूँ बढ़ाते न तुम!
दे गई पीड़, तेरी छुअन!
सर्द आहों में भर के, सारे ही गम,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 27 April 2020

हर बार - (1200वाँ पोस्ट)

बाकी, रह जाती हैं, कितनी ही वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

कभी, चुन कर, मन के भावों को,
कभी, सह कर, दर्द से टीसते घावों को,
कभी, गिन कर, पाँवों के छालों को,
या पोंछ कर, रिश्तों के जालों को,
या सुन कर, अनुभव, खट्ठे-मीठे, 
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर, सोचता हूँ, हर बार,
शायद, फिर से ना दोहराए जाएंगे, 
वो दर्द भरे अफसाने,
शायद, अब हट जाएंगे, 
रिश्तों से वो जाले,
फिर न आएंगे, पाँवों में वो छाले,
उभरेगी, इक सोंच नई,
लेकिन! हर बार,
फिर से, उग आते हैं,
वो ही काँटें,
वो ही, कटैले वन,
मन के चुभन,
वो ही, नागफनी, हर बार!
अधूरी, रह जाती हैं,
लिखने को,
कितनी ही बातें, हर बार!

फिर, चुन कर, राहों के काँटों को,
फिर, पोंछ कर, पाँवों से रिसते घावों को,
फिर, बुन कर, सपनों के जालों को,
देख कर, रातों के, उजालों को,
या, तोड़ कर, सारे ही मिथक,
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर भी, रह जाती हैं कितनी वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 17 January 2020

एक दर्द

चल पड़ी, बादलों से, बिछड़ कर,
चल ना सकी, वो इक पल सम्भल कर,
बूँदें कई, गिरी थी बदन पर,
गम ही सुना कर गई, बारिश का पानी!

छुपी बादलों में, रुकी काजलों में,
सिसकती सी रही, भीगे से आँचलों में,
रही कैद, मन में उतर कर,
वो भिगोती रही नैन, बारिश का पानी!

रही गीत गाती, कोई वो रात भर,
विरह सुनाती गई, अपनी वो रात भर,
गम में डूबे, भीगे वे स्वर,
कोई दर्द दे कर गई, बारिश का पानी!

प्यास कैसी, रह गई है अंजानी!
झूमकर, झमा-झम, बरसा ये बादल,
तरसा है, फिर भी ये मन,
यूँ गुजरा है छूकर, बारिश का पानी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 17 February 2019

दर्द के गीत -पुलवामा

सुबह नहीं होती आजकल, ऐ मेरे मीत..

सुनता रहा रातभर, मैं दर्द का गीत,
निर्झर सी, बहती रही ये आँखें,
रोता रहा मन, देख कर हाले वतन,
संग कलपती रही रात, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

सह जाऊँ कैसे, उन आँखों के गम,
सो जाऊँ कैसे, ऐ सोजे-वतन,
बैचैन सी फ़िज़ाएं, है मुझको जगाए,
कोई तड़पता है रातभर, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

है दर्द में डूबी, वो आवाज माँ की,
है पिता के लिए, बेहोश बेटी,
तकती है शून्य को, इक अभागिन,
विलखती है वो बेवश, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

उस आत्मा की, सुनता हूँ चीखें,
गूंज उनकी, आ-आ के टोके,
प्रतिध्वनि उनकी, बार-बार रोके!
आह करती है बेचैन, ऐ मेरे मीत!

सुबह नही होती आजकल.....

न जाने फिर कब, होगा सवेरा?
क्या फिर हँसेगा, ये देश मेरा?
कब फिर से बसेगा, ये टूटा बसेरा?
कब चमकेंगी आँखें, ऐ मेरे मीत?

सुबह नहीं होती आजकल, ऐ मेरे मीत....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 26 May 2018

दर्द-ए-दयार

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

थी इक खुशी की मुझको तलाश,
दर्द इक पल का भी, मुझको गँवारा न था,
यूं ही आँखों से कोई बेकरार कर गया,
बस ढ़ूंढ़ता ही रहा, मैं वो करार,
दर्द का आलम, वो ही बेसुमार दे गया....

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

लिए जाऊं कहाँ, मैं ये दर्दे दयार,
हर तरफ वही पीर, हर राह वो ही बयार,
गुजारिशें मैं दर्द से बार-बार कर गया,
कर गया मिन्नतें वो दरकिनार,
इन आँखों में, वो बस इन्तजार दे गया....

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

हर शै में है पीर, दर्द है बेशुमार,
इस दर्द से परे, कहीं न था मेरा दयार,
तो दर्द क्यूं वो मेरे दयार रख गया,
हर लम्हा है दर्द का कतार,
फिर क्यूं, इक नया दर्द यार दे गया....

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

Tuesday 27 March 2018

भावना या यातना

तुम बहाओ ना मुझे, फिर उसी भावना में.....

ठहर जाओ, न गीत ऐसे गाओ तुम,
रुक भी जाओ, प्रणय पीर ना सुनाओ तुम,
जी न पाऊँगा मैं, कभी इस यातना में....

न सुन सकूंगा, मैं तुम्हारी ये व्यथा!
फिर से प्रणय के टूटने की व्याकुल कथा,
टूट मैं ही न जाऊँ, कहीं इस यातना में....

यूं इक-इक दल, बिखरते हैं फूल से,
आह तक न भरते है, वो लबों पे भूल से,
यूं ना डुबोओ, तुम मुझे यूं भावना मे....

यूं दर्द के साज, क्यूं बजा रहे हो तुम,
सो चुके हम चैन से, क्यूं जगा रहे हो तुम,
चैन खो न जाए मेरा, इस यातना में.....

हाल पे मेरी, जरा तरस खाओ तुम...
भावना या यातना! ये मुझको बताओ तुम,
गुजरा हूं मैं भी, कभी इस यातना मे.....

बह न जाऊँ मैं, कहीं फिर उसी भावना में......

Saturday 24 March 2018

कशमकश

न जाने, दर्द का कौन सा शहर है अन्दर,
लिखता हूँ गीत, तो आँखें रीत जाती हैं,
कहता हूँ गजल, तो आँखें सजल हो जाती हैं...

ये कशमकश का, कौन सा दौर है अन्दर,
देखता हूँ तुम्हें, तो आँखे भीग जाती हैं,
सोचता हूँ तुम्हें, तो आँखें मचल सी जाती हैं...

इक रेगिस्तान सा है, मेरे मन का शहर,
ये विरानियाँ, इक तुझे ही बुलाती है,
तू मृगमरीचिका सी, बस तृष्णा बढाती है...

ये कशमकश है कैसी, ये कैसा है मंजर,
जो देखूँ दूर तक, तू ही नजर आती है,
जो छूता हूँ तुम्हें, सायों सी फिसल जाती है...

न जाने, अब किन गर्दिशों का है कहर,
पहर दो पहर, यादों में बीत जाती है,
ये तन्हाई मेरी, कोई गजल सी बन जाती है....

Thursday 22 September 2016

सरहदें

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

लकीरें पाबन्दियों के खींच दी थी किसी ने,
खो गई थी उन्मुक्तता मन की उमरते आकाश के,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ सो हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

Monday 20 June 2016

उफ यह रात

उफ, यह डरी सहमी सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

उफ, ये रात ढलती है कितनी धीरे-धीरे,
कितने ही मर्म अपने गर्त अंधेरे साए में समेटे,
दर्द की चिंगारी में खुद ही जल-जलके,
तड़पी है यह रात अपनों से ठोकर खा-खा के,

उफ, यह बेचारी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

पड़े हैं कितने ही छाले इनके पैरों में,
दिन की चकाचौंध उजियारों मे चल-चल के,
लूटे हैं चैन अपनों नें ही इन रातों के,
सपन सलोने भी अब आते हैं बहके-बहके,

उफ, यह तन्हा सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

सुर्ख रातों की गहरी तम सी तन्हाई,
भाग्य की लकीरों सी इनकी हाथों मे गहराई,
सन्नाटों की चीरती आवाज सी लहराई,
आँखे रातों की भय, व्यथा, घबराहट से भर आई,

उफ, अंधेरी स्याह सी रात, तेज ढ़ले भी तो कैसे..,.....?

Thursday 31 March 2016

चीख निकल आई दर्द की

दर्द को दर्द हुआ तब चीख निकल आई दर्द की!

लम्बी श्रृंखला दर्द के मणिकाओं सी,
एक के बाद एक दर्द एक नई सी,
सदियों से चुभन रोज एक नए दर्द की,
खीज चुका मैं देख तमाशा दर्द की,
तोड़ डाला है घर मैने दर्द के उन गाँवो की!

दर्द को दर्द हुआ तब चीख निकल आई दर्द की!

अब अंजाना सा है हर दर्द मुझसे,
दंश दर्द का होता क्या समझा है दर्द नें,
तिरस्कार जी भरकर झेला है दर्द नें,
दर्द की झोली में रख डाले हजार दर्द मैंनें,
अवहेलना की है मैने दर्द के उच्च-आदेशों की!

दर्द को दर्द हुआ तब चीख निकल आई दर्द की!

Thursday 14 January 2016

विरहन का विरह

पूछे उस विरहन से कोई! 
क्या है विरह? क्या है इन्तजार की पीड़ा?

क्षण भर को उस विरहन का हृदय खिल उठता,
जब अपने प्रिय की आवाज वो सुनती फोन पर,
उसकी सिमटी विरान दुनियाँ मे हरितिमा छा जाती,
बुझी आँखों की पुतलियाँ में चमक सी आ जाती,
सुध-बुध खो देती उसकी बेमतलब सी बातों मे वो,
बस सुनती रह जाती मन मे बसी उस आवाज को ,
फिर कह पाती बस एक ही बात "कब आओगे"!

पूछे उस विरहन से कोई! 
कैसे गिनती वो विरह के इन्तजार की घड़ियाँ?

आकुल हृदय की धड़कनें अगले ही क्षण थम जाती,
जब विरानियों के साए में, वो आवाज गुम हो जाती,
चलता फिर तन्हाईयों का लम्बा पहाड़ सा सिलसिला,
सूख जाते आँसू, बुझ जाती चमक पुतलियों की भी,
काटने दौड़ती मखमली मुलायम चादर की सिलवटें,
इन्तजार के अन्तहीन अनगिनत पल उबा जाते उसे,
सपनों मे भी पूछती बस एक ही बात "कब आओगे"!

पूछे उस विरहन से कोई! 
कैसा है विरह के दर्द का इन्तजार भरा जीवन?

Sunday 10 January 2016

दर्द की दास्तान

चौराहे पर गाड़ियों की कतार में,
रुकी मेरी कार के शीशे से,
फिर झांकती वही उदास आँखें!

जानें कितनी कहानियाँ,
हैं उन आँखो मे समाई,
कितने दर्द उन लबों पर सिले,
चेहरों की अनगिनत झुर्रियों मे,
असंख्य दु:ख के पलों के एहसास समेटे,
झुकी हुई कमर दुनिया भर के बोझ से दबी,
तन पर मैले फटे से कपड़े,
मुश्किल से बदन ढकने को काफी,
हाथों मे लाठी का सहारा लिए,
किसी तरह कटोरा पकड़े,
कहती, "कुछ दे दो बाबू"!

तभी हरी सिग्नल देख,
चल पड़ती गाड़ियों के कारवाँ,
मैं भौचक्का सा!
उसे देखता रह जाता!
फिर पीछे से तेज हार्न में,
मैं भी आगे बढ़ जाने को विवश!

पर मन में उठते कई प्रश्न,
क्या इंसान की कीमत सिर्फ इतनी?
क्या अभाव मे बुजुर्ग हो जाना है गुनाह?
क्या हम इतने भावविहीन हो चुके है?
समाज के प्रति हमारी संवेदना कहाँ है?
क्या मेरा व्यक्तिगत प्रयास काफी होगा?

सोचता मैं बढ़ जाता आगे,
पर अगले चौराहे पर देखता,
झांकती फिर वैसी ही उदास आँखें!
जीवन के दर्द की दूसरी दास्तान समेटे!
फफक-फफक कर रो पड़ता मन,
उनकी मदद कर पाने में,
खुद को असह्य अक्षम पाकर।