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Friday 1 July 2022

बिन पूछे


मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जैसे, बिन पूछे,
इक परदेसी, आ बैठा हो आंगन,
सूने से पर्वत पर, घिर आया हो घन,
बदली, ले आया हो सावन,
बूंदों की छमछम से, मन,
दीवाना सा.....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

कोई, क्या जाने,
हलचल, क्यूं , सागर के तट पर,
सदियों, इक खामोशी क्यूं पर्वत पर,
बूंदें, क्यूं उस बदली में गौन,
अन्तःमन, क्यूं इतना मौन,
बेगाना सा .....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जाने, है कैसा,
अंजाने धागों का, यह गठबंधन,
पल-पल, अजीब सा इक आकर्षण,
परछाईं से, बढ़ता अपनापन,
हर ओर, गहराता सूनापन,
सुहाना सा .....

मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 12 June 2020

परिप्रेक्ष्य

वही रंग, वही कैनवास,
वही ब्रश,
वही कूचियाँ,
वही मन,
बदल सी जाती है, तो बस,
इक तस्वीर!

शायद, बदल से जाते हैं परिदृश्य!
या शायद, परिप्रेक्ष्य!
ये रंग, ये कैनवास, ये ब्रश, ये कूचियाँ, 
निर्जीव से हैं ये सारे,
पर, ये मन!
उकेरता है जो, अपने ही सपन,
फिर, बेवशी में, सच से, फेरता है नयन?
उड़ेलता है रंग,
और बेख्याल हो, उकेरता है वो,
इक तस्वीर!

शायद, पूर्णताओं में छुपी रिक्तता,
या शेष, कोई चाह!
यूँ जमीं पे इन्द्रधनुष, उतरते क्यूँ यहाँ?
रंगों में, ढ़लती क्यूँ धरा,
और, ये मन!
क्यूँ उसी को, सोचता है मगन,
बेजार हो, अश्क में, भिगोता वो नयन?
संजोता है सपन,
और रिक्तताओं में, ढूंढता है वो,
इक तस्वीर!

वही रंग, वही कैनवास,
वही ब्रश,
वही कूचियाँ,
वही मन,
बदल सी जाती है, तो बस,
इक तस्वीर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 20 February 2020

आर-पार

यूँ हर घड़ी, मैं, किसकी बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
जैसे दर्पण क़ोई, करे खुद का ही दीदार,
क्यूँ ना, मैं इन्कार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

यूँ बूँद कोई, कभी छलक आए,
चले पवन कोई, बहा दूर कहीं ले जाए,
बहकी, कोई बात करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हुई ओझल, कहीं तस्वीर कोई,
रंग ख्यालों में लिए, बनाऊं ताबीर कोई,
अजनबी, कोई रंग भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

निहारूँ राह वही, यूँ अपलक,
वो सूना सा फलक, कोई ना दूर तलक,
यूँ बेखुदी में, जाम भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
है परछाईं कोई, या वो कल्पना साकार,
यूँ मैं क्यूँ, इंतजार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 11 September 2018

बीहड़- इक याद

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

यत्र तत्र झाड़ झंखर, राहों में धूल कंकड़,
कंटीली झाड़ियों से ढ़की, वीरान सी वो बीहड़,
वृक्ष विशाल से उग आए हैं अब वहाँ,
शेष है कुछ तस्वीरें, बसी है जिनसे वो जहाँ,
कुछ बातें कर लेता हूँ मैं उनसे वहाँ...

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

कुछ भी तो अब नहीं बचा, उस बीहड़ में,
हर शै में समय की जंग, खुद समय भी है दंग,
हैरान हूँ मैं भी, समय ये क्या कर गया?
खुद ही रचयिता, खुद ही विनाशक वो बना,
समय से बातें कर लेता हूँ मैं वहाँ....

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

घने वृक्ष, चीखते झींगुर, अंतहीन बीहड़,
चीखते फड़फड़ाते, अनमनस्क से चमगादड़,
कुछ ज़िन्दगियाँ अब भी रहती है वहाँ,
दम घोंटती हवाओं में, पैबन्द हैं साँसें जहाँ,
जिन्दगी को ढ़ूँढ़ने जाता हूँ मैं वहाँ...

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

ऐ वक्त, ऐ निर्मम समय, ये कैसा बीहड़!
रचता ही है तो रच, बीहड़ साँसों की लय पर,
वो बीहड़! तरन्नुम हवाओं में हों जहाँ,
तैरते हों शुकून, मन की तलैय्या पर जहाँ,
मन कहता रहे, तू ले चल मोहे वहाँ....

यदा कदा जाता हूँ मैं यादों के उन बीहड़ में....

Wednesday 10 May 2017

मोहब्बत

शब्दों की शक्ल में ढलती रही, इक तस्वीर सी वो!

युँ ही कुछ लिखने लगा था मैं,
शब्दों से कुछ भाव मन के बुनने लगा था मैं,
दूर...खुद से कहीं दूर होने लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

तस्वीर से निकल दबे पाँव, तावीर में ढली सी वो!

युँ ही कुछ कहने लगी थी वो,
जरा सा भाव उस मन के सुनने लगा था मैं,
न जाने क्युँ कुछ खोने सा लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

शायद शब्दों से निकल, किसी बुत में ढली सी वो!

युँ ही अब कुछ करीब थी वो,
महसूस बुत की धड़कनें करने लगा था मैं,
शायद अब मोहब्बत करने लगा था मैं,
फिर याद नहीं, ये क्या लिखने लगा था मै?

शब्दों की स्पंदनो में ढलती रही, इक तावीर सी वो!

Tuesday 14 June 2016

वो तस्वीर

बनती-बिगरती बादलों में उलझी सी इक तस्वीर,

हर क्षण रंग रूप बदलती वो तस्वीर,
पल पल दृग को वो छलती,
मनमोहक भावों से वो मन को हरती,
खुली जटाओं मे बादल की कहीं गुम हो जाती,

बरसती-बिखरती बादलों में बिखरी सी वो तस्वीर,

आकाश में फिर उभरती वो तस्वीर,
बादलों संग अठखेलियाँ करती,
चंचल सी स्वच्छंद विचरती वो तस्वीर,
भावप्रवण मन को कर खुद भावविहीन हो जाती,

जीवन के कितने ही किस्से कह जाती वो तस्वीर,

निःस्वार्थ जीवन जीती वो तस्वीर,
कुछ पल जग के दुख हर लेती,
आँखों में सपने जीने के भरती वो तस्वीर,
कर्मों की राह पर चलती फना हर बार वो होती,

कर्मपथ पर चलना सिखाती उलझी सी वो तस्वीर।

Wednesday 27 April 2016

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

Sunday 10 April 2016

लब्जों मे बयाँ

लब्जों में बयाँ जो हम कर न सके,
अल्फाज वो ही दिलों में दबी रह गई,
वो फसाना बहुत खूबसूरत सा था,
बात गुजरे जमाने की अब वो हो गई।

वो अल्हड़ सी उनकी नादानियाँ,
शब्दों में लिखी जैसे अनकही कहानियाँ,
लब्जों पे रुकी लहर सी कहीं,
अब गुनगुनाती हुई कोई गजल बन गईं।

जुल्फ खुल के कभी लहराए थे,
खुली गेसुओं में कुछ धुंधले से साये भी थे,
सीरत-ए-बयाँ ये लब्ज कर न सके,
वो लहराते से मंजर अब यादों में बस गईं।

छलके नैनों में अब अक्श एक ही,
उन खुले नैनों में उभरी है इक तस्वीर वही,
नीर नैनों के लब्जों पे बह न सके,
वो छलकते से नैन अब जाम में ढ़ल गई।

Tuesday 5 April 2016

आकृति

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

कहीं खयालों में उभरी है इक तस्वीर,
कुछ धुंधली सी अबतक मानस पटल पर अंकित,
ठहरे झील में नजर आई थी वो मुस्काती,
लहर ये कैसी? कही गुम हुई वो झिलमिल आकृति।

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

नभ पर घटाओं में उभरी है वो तस्वीर,
पल पल रूप बदलती चंचल बादलों में मुस्काती,
लट काले घुँघराले ठिठोली बूँदों संग वो करती,
हवा ये कैसी? कही गुम हुई बिखरी नभ में वो आकृति।

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

मन के सूने महल में अंकित वो तस्वीर,
खाली घर की दीवारों पर उभर आती वो रंगों सी,
स्नेहिल पलकों से अपलक वो निहारती,
आहट ये कैसी? कही गुम हुई नजरों में वो आकृति!

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

Saturday 2 April 2016

इबादत की शिद्दत

ख्यालों में उनके है तस्वीर कोई!
मगर कौन वो? दिखती कहाँ लेकिन सूरत है उसकी?

शिद्दत तो दिखती है इबादत में उनकी,
एहसास भी कुछ भीगे से जज्बातों मे उनकी,
पर शोहबत कहाँ है हकीकत में उनकी।

उमरता हुआ इक लहर उधर दिख रहा है,
बेकरारी भी दिखती उमरते लहर की रवानियों में,
पर साहिल से मिलने की नीयत कहाँ है।

उन फूलों में दिखती है खिलने की चाहत,
खुशबु भी कुछ भीनी कोमल पंखुड़ियो में उसकी,
पर कुचली सी पूजा की चाहत है उसकी।

हो न हो, शिद्दत तो दिखती है इबादत में उनकी......!