Friday 18 February 2022

निरुत्तर

किसी ने, उकसाया था, शायद!
यूं ही, पूछ बैठी,
प्रेयसी मेरी, मुझसे ही,
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

क्यूं रहती हूं, मैं बिल्कुल पास, तुम्हारे ही,
जबकि, कभी, चुभ जाती हैं, 
तुम्हारी, कुछ बातें, आकर यूं ही,
अक्सर, होते हो रूखे,
कर जाते हो, अनसुना, एहसासों को मेरे,
दो पल को, होती हूं, भावुक,
फिर, दूजे ही पल, 
हो उठती हूं, भाव-विभोर,
खो जाती हूं, बस तुझमें ही,
सुना है, टूटकर भी, सूखते नहीं, नागफनी!
जबकि, पल में, सूख जाते हैं फूल,
कहो ना, 
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

निरंतर, उनसे, ये बातें सुन कर,
निरुत्तर सा था मैं!
विषयवस्तु ही थे कठिन,
निरंतर कुछ प्रश्न, थे और जटिल! 

क्यूं, घबराता है मन, तुम्हारे न आने से,
एहसास, क्यूं हो उठते सूने!
घेरे होते हैं, तेरी बातों के, वलय,
व्यस्तता भी नहीं, कोई,
फिर भी, ख्यालों में व्यस्त सी दिन भर,
डंसते हुए,  सांझ के वो पल,
चुभता सा इंतजार,
खिंची सी होती, उस ओर,
ज्यूं पतंग संग, बंधी कोई डोर,
सुना है, उम्र भर कुम्हलाते नहीं नागफनी!
लेकिन, क्षण भर में मुर्झाते ये फूल,
कहो ना, 
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

डूब चुका था, गहरी सोंच में मैं,
प्रश्न ही था ऐसा,
भिन्न कर पाता मैं कैसे,
यह, प्रेम हमारा, कांटा है या फूल?

हां, एक दिलासा भर, मैं दे सकता था,
सपने, संग बुन सकता था,
संग, दूर तलक चल सकता था,
मैं, बो देता कांटे कैसे!
हाँ, बिछ जाता, उनकी प्रगति पथ पर,
लेकिन, कैसी थी यह शंका!
क्या, कारण था?
शायद, मेरी ही अनदेखी!
मैंने ही, कब उनका प्रेम जाना!
अधिकारवश, कुछ भी मेरा कह जाना,
अकारण से ही, कोई दोषारोपण,
या मैंने,
नादानी में ही, की थी कुछ भूल?

मैंने ही, उकसाया था, शायद!
या, यूंही पूछ बैठी,
प्रेयसी मेरी, मुझसे ही,
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 15 February 2022

निमंत्रण

ले हल्दियों से रंग, गुलमोहर संग,
लगी झूलने फिर, शाखें अमलतास की!

छूकर बदन, गुजरने लगी, शोख सी पवन,
घोलकर हवाओं में, इक सौंधी सी खूश्बू,
गीत कोई सुनाने लगी, भोर की पहली किरण,
झूमकर, थिरकने लगा वो गगन‌!
 
ले किरणों से रंग, गुलमोहर संग,
लुभाने लगी मन, शाखें अमलतास की!

कर गईं क्या ईशारा, ले गई मन ये हमारा,
उड़ेलकर इन नैनों में, पीत रंग प्रेम का,
रिझाने लगी, झूल कर शाखें अमलतास की,
बात कोई, कहने लगी हर पहर!

ले सरसों सा रंग, गुलमोहर संग,
गुन-गुनाने लगी, शाखें अमलतास की!

पट चुकी, फूलों से, हर तरफ, राह सूनी,
मखमली सेज जैसे, बिछाई हो उसने,
दे रही निमंत्रण, कि यहीं पर, रमा लो धूनी,
अब, वश में कहां, ये अधीर मन!

ले सपनों सा रंग, गुलमोहर संग,
बुलाए उधर, वो शाखें अमलतास की!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 13 February 2022

क्या फिर!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

कहीं न कहीं,
उम्मीद तो, इक रहेगी बनी,
इक आसरा, टिमटिमाता सा, इक सहारा,
एक संबल,
कि, कोई तो है, उस किनारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

अब जो कहीं,
बिछड़ोगे, तो बिसारोगे तुम,
बंदिशों में, आ भी न पाओगे, चाहकर भी,
रखना याद,
कि, हम हैं खड़े, बांहें पसारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

झूठा ही सही,
आसरा, इक, कम तो नहीं,
टूट जाए, भले कल, कल्पना की इमारत,
पले चाहत,
कि, कोई तो है, मेरे भरोसे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 12 February 2022

आवाज

कल, कहीं, किस्सों में मिलूंगा,
किधर, न जाने, कितने हिस्सों में बटूंगा,
आज, पुरकशिश, इक आवाज़ हूँ,
सुन लो, धड़कता साज हूँ!

भटक कर रह गई, कहीं, कितनी आवाजें,
सुनता कौन, उनकी गुजारिशें,
बेअसर, लौट आईं कभी, उभरती गूंज बनकर,
कभी, दब कर रह गईं, इक आह बनकर,
पिरोए, एहसास कितने, आज हूँ,
सुन लो, तड़पता साज हूँ!

गूंज वो ही, रखे हैं, चंद शब्दों में पिरोकर,
उभर आते, गीतों में वो अक्सर,
वो ही, बन चले हैं, गुजरते वक्त के हमसफर,
सांझ जो, ढ़ल न पाए, इक रात बनकर,
उस, ठहरे सांझ का अल्फ़ाज़ हूँ,
सुन लो, बिखरता साज हूँ!

जाओगे जिधर, बुलाएंगी, वो ही सदाएं,
अक्सर, राह वो ही, टोक जाएं,
कस्तियां, मुड़ ही जाएंगी, किनारा हो जिधर, 
ये आवाज, कभी कर ही जाएंगी असर,
लिखूं शिलाओं पर, संगतराश हूँ,
सुन लो, बहकता साज हूँ!

इस धार में, बह, जाऊं किधर,
समय के मझधार में, रह, जाऊं किधर,
अनसुना अब तलक, वो राज हूँ,
सुन लो, धड़कता साज हूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 10 February 2022

लता

शाख से, बिछड़ी इक लता!
कुछ तो, डालियों ने भी, की होगी खता!

यूं तो, झूलती थी वो, पवन की बांहों में,
विहँसती थी, टोककर,
उड़ते पंछियों को, उन राहों में,
मचल उठती थी, अजनबी मुसाफिरों संग,
शायद, सोचकर कि,
गुजर जाएंगे, चैन से तन्हा पल,
कुछ तो, रहबरों ने भी, की होगी खता,
टूट कर बिखरी, इक लता!

यूं तो अक्सर, लौटकर आती है बहारें,
बरस जाती है, फुहारें,
पर, खिल न सकेगी वो लता,
इस दफा, ये बागवां, पूछेंगी उनका पता,
चुप सी, रहेगी, घटा,
शायद, पतझड़ सा हो बसन्त,
कुछ तो, इन गुलों ने, की होगी खता,
टूट कर बिखरी, इक लता!

यूं तो, सितार कोई, फिर छेड़ जाएगा,
नज़्म, न होंगे बज़्म में,
न होगी, फिज़ाओं में तरंगिनि,
हर दफा, ये हवाएं, पूछेंगी उनका पता,
चुप सी, होगी, सदा,
शायद, ख़ामोश सी होगी लहर,
कुछ तो, सरगमों ने, की होगी खता,
टूट कर बिखरी, इक लता!

शाख से, बिछड़ी इक लता!
कुछ तो, डालियों ने भी, की होगी खता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

:::::श्रद्धांजलि लता मंगेशकर दी .......