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Thursday 30 September 2021

वो अक्सर

मचल कर, मखमली सवालों में!
वो अक्सर, आ ‌‌‌‌‌ही जाते हैं, ख्यालों में!

न बदली, अब तक, उनकी शोखियां,
वो ही रंग, अब भी, वो ही खुश्बू,
और वही, नादानियां,
वो अक्सर, कर ही जाते हैं ख्यालों में!

पर, ठहरती है, कब वो, चंचल पवन,
गुजर से जाते हैं, पल वो आकर,
जरा सा, गुदगुदा कर,
अक्सर, भरमा ही जाते हैं, ख्यालों में!

बज ही उठती हैं, ये टूटी सी, वीणा,
थिरक से, उठते हैं, ये तार-तार,
इक पल, गुनगुना कर,
वो अक्सर, बस ही जाते हैं ख्यालों में!

दोष, उन उफनती , लहरों का क्या,
बे-सहारे, किनारों के, वो सहारे,
टकराकर, किनारों से,
अक्सर, भीगो ही जाते हैं, ख्यालों में!

मचल कर, मखमली सवालों में!
वो अक्सर, आ ‌‌‌‌‌ही जाते हैं, ख्यालों में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 March 2021

चुप न रह पाओगे

मेरी ख़ामोशियों को,
जब भी, तन्हाईयों में गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

रोक ही लेगी तेरी राहें, मेरी सर्द आहें, 
कदम, डगमगाएंगे,
थमीं पलकें, भिगो ही जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

यूँ तो, मन के हारे, तुम हो संग हमारे,
नहीं हम, बेसहारे,
इक छवि में, ढ़ल कर गाओगे,
चुप न रह पाओगे!

गगण के पार हो, या हो गगण से परे,
सर्वदा ही, हो मेरे,
मल्हार बन कर, बरस जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खुद में झाँकना, यूँ खुद को आँकना,
खुदा को, माँगना,
सारी खुदाई, यूँ भूल जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

रह-रह बज उठेंगी, हाथों की चूड़ियाँ,
तोड़ कर, बेरियाँ,
खाली पाँव, दौड़ कर आओगे,
चुप न रह पाओगे!

गुजरते वक्त की, हर शै पर मैं लिखूँ,
चुप रहूँ, खुद बुनूँ,
जब पढ़़ोगे, तुम जान जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खनक ही उठेंगे, जीर्ण वीणा के तार,
कर उठोगे, श्रृंगार,
ये हृदय, कैसे संभाल पाओगे,
चुप न रह पाओगे!

मेरी ख़ामोशियों को,
तन्हाईयों में, जब भी गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

Wednesday 4 March 2020

प्रतिध्वनि

प्रतिध्वनि बुनो!
गूंज सुनो, इस धड़कन की!
धक-धक, धक-धक,
रह-रह, ये कुछ कहती है,
या, चुप ही रहती है!

आइए, कुछ तथ्य व एक रचना के माध्यम से प्रतिध्वनि को एक आयाम देने की कोशिश करते हैं ......

प्रतिध्वनि! एक एहसास, जिसे हम अवश्य ही सुनना या महसूस करना पसंद करते हैं। मानव मन, हमेशा ही, किसी क्रिया की प्रतिक्रिया जानने हेतु, लालायित रहता है और यह उत्सुकता ही, कभी-कभी, जीने का कारण बनती है।

कल्पना करें कि आपने ईश्वर को रिझाने हेतु मंदिर की घंटी बजाई, लेकिन उस आवाज, उस टंकार की गूंज, आपको सुनाई ही नहीं पड़ी, तो उस क्षण आप विचलित हो उठते हैं । 

शंख बजे, पर गूंज उत्पन्न न हो तो वो शंख क्या? यह एक ऐसी स्थिति होती है जैसे कि किसी वादी में आपकी आवाज गूंजती ही न हो और कहीं खो जाती हो। 

प्रतिध्वनि, एक संवाद है, जिसमें वक्ता व स्त्रोता दोनों पर एक प्रभाव पड़ता है और एहसास के स्वर एक दूसरे को छूकर गुजरते रहते हैं।

प्रतिध्वनि बुनने की, एक कोशिश .....

धक-धक, धक-धक,
धड़कती है!
गूंज सुनो ना, तुम इस धड़कन की!
रह-रह, हृदय कुछ कहती है,
या, चुप ही रहती है!
बेसुर हैं, इसकी एहसासों के स्वर!
रह-रह, चुप सी रहती है,
या, कुछ कहती है!

इस चुप्पी में, सिर्फ संशय पलते हैं!
है आशय क्या, संशय का!
ठहरी सी, संवादें है!
धक-धक, धक-धक,
मन ही मन गुनना, खुद ही सुनना,
या, इक संवाद-हीनता है
या, बातें बहकी हैं!

धक-धक, धक-धक,
क्या प्रतिध्वनित, नहीं होते ये स्वर?
कह दो ना, तुम आकर,
या, झंकार कोई दो!
टूटी वीणा, रह-रह होती हैं कंपित,
सुर वो, फिर दोहराती है,
या, गुम रहती है!

धक-धक, धक-धक,
संवाद कोई हो, फिर याद कोई हो!
फिर शुरु, विवाद वही हो,
या, प्रश्न कई कर लो!
उत्सुकता, घट जाए थोड़ी-थोड़ी,P
रह-रह, जो ये बढ़ जाती है,
या, दबी सी रहती है!

प्रतिध्वनि बुनो,
गूंज सुनो ना, तुम इस धड़कन की!
धक-धक, धक-धक,
रह-रह, ये कुछ कहती है,
या, चुप ही रहती है!
धक-धक, धक-धक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 5 June 2018

यहीं सांझ तले

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

दरख्त-दरख्त जब ठूंठ हो जाए,
धूप दरख्तों से छनकर तन को छू जाए,
आस बने जब इक सपना,
भीड़ भरे जीवन में, कोई ना हो अपना,
जब एकाकी सा ये दिन ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

धूप तले जब यूं ही दिन ढ़ल जाए,
थककर चूर कहीं जब ये बदन हो जाए,
वक्त बदल ले सुर अपना,
छलके आँसू बनकर, आँखों से सपना,
वक्त की धूप, बदन छू ले...

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

जब जीवन सुर मद्धिम पड़ जाए,
कोयल इन बागों में, कोई गीत न गाए,
जर्जर हो जाए ये मन वीणा,
झंकार न हो कोई, सूना सा हो अंगना,
सूना-सूना सा ये सांझ ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

Saturday 3 March 2018

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

Friday 23 June 2017

विखंडित मन

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं तुझको कैसे समझाऊँ?

हैं अपने ही, वो जिनसे रूठा है तू,
हुआ क्या जो, खंड-खंड बिखरा या टूटा है तू,
है उनकी ये नादानी, जिनके हाथों टूटा है तू,
माना कि टूटी है, वीणा तेरे अन्तर की,
अब मान भी जा, गीत वही फिर से दोहरा दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं मन ही मन कैसे मुस्काऊँ?

संताप लिए, अन्दर क्यूं बिखरा है तू,
विषाद लिए, अपने ही मन में क्यूं ठहरा है तू,
उसने खोया है जिसको, वो ही हीरा है तू,
क्यूं फीकी है, मुस्कान तेरे अन्तर की?
अब मान भी जा, फिर से खुलकर मुस्का दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! चल गीत कोई गा मेरे संग तू!

Friday 12 February 2016

अवसाद में जन्मदिन

क्षण क्षण उम्र बढ़ रही है अवसान को,
 यह जन्मदिन जन्म दे रही अवसाद को।

अब तो प्रहर सांझ की ढलने को आई,
 मुझसे मीलों पीछे छूटी है मेरी तरुणाई।

मनाऊँ कैसे जन्मदिन इस उम्र में अब,
तार वीणा के सुर में बजते नही है अब।

मृदंग के स्वर कानों में गूंजते नहीं अब,
तानपूरे की उम्र ही ढल गई मानो अब।

केक मिठाई तो बन चुके है मेरे दुश्मन,
जन्मदिन मनाने का अब रहा नहीं मन।