Friday 30 December 2022

रुकना क्या

रुक जाने की जिद ना कर....

इस धार में, बह जाने दे,
अन्त: जो बातें, मझधार में कह जाने दे,
ले हाथों में पतवार,
वक्त का क्या! 
रोक ले, कब, हवाओं का रुख!
छीन ले कब, ये सुख!

रुक जाने की जिद ना कर....

यूं जिरह, फिर कर लेना,
जिद, रुक जाने की, यूं फिर ना करना,
पर, रखना ऐतबार,
धर लेना करार!
भीगे अँसुवन से ये नैन तुम्हारे,
यूं रोके ना, राह हमारे!

रुक जाने की जिद ना कर....

गर इस जिद पर, मैं हारा,
क्या रुक जाएगी ये जीवन की धारा?
बड़ा तीव्र ये बहाव,
बहा लेगी, नाव!
ले जाएगी उस सागर की ओर,
छूट जाएगी, हर डोर!

रुक जाने की जिद ना कर....

जीवन, चलने का नाम,
चलते ही रहते, ये सुबहो और शाम,
नित ही नया सवेरा,
नित नव जीवन!
इक ज़िद रख, बस चलने की,
सूरज सा ढ़लने की!

रुक जाने की जिद ना कर....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 25 December 2022

निशा

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशीथ काल, 
जब पल हो जाते प्रशीत,
तब दबे पांव, घूंघट ओढ़े, कोई आता,
पग धरता, बोझिल मन मानस पर,
सिहर कर, जग उठती,
सोई चेतना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

पंख पसारे,
ये विहग‌ आकाश निहारे,
विस्तृत आंचल के, दोनो छोर किनारे,
उन तारों से, न जाने कौन पुकारे,
हृदय के, गलियारों में,
जागे वेदना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशा जागती,
खिल उठती, रजनीगंधा,
लय पर नाद-मृदंग की, झूमती निशा,
सहचर बन, गा उठते निशाचर,
ज्यूं, नव राग की हुई,
इक रचना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 20 December 2022

गर फिर ना मिलूं

गर, फिर ना दिखूं मैं, नजर में दूर तक!

गर, चल ना सकूं मैं, सफर में दूर तक!
थक कर चूर हो जाऊं,
हमेशा के लिए, तुमसे दूर हो जाऊं,
जारी, तुम सफर रखना,
कहीं, मेरी खातिर, तुम न रुकना,
सफर के, आखिरी छोर तक,
लक्ष्य साधे,
रुकना वहीं, उस भोर तक,
वहीं, इक सांस भरना,
विश्राम करना!
तभी आराम, मुझको भी मिल सकेगा!
बस, वहीं तब!

अगर, रह ना सकूं मैं सफर में संग तेरे!
सांसें, विवश कर जाएं,
ये बहारें, लौट कर फिर से न आएं,
ये दामन, तुम ना भिगोना,
क्रूर नियति, अपनी चालें चलेगा,
रफ़्तार, थोड़ी कम ना करेगा,
राह पूछते,
चले आना, उस छोर तक,
सिमटना उसी राख में,
विश्राम करना!
तभी आराम, मुझको भी मिल सकेगा!
बस, वहीं तब!

गर, फिर ना दिखूं मैं, नजर में दूर तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 17 December 2022

लम्हातें

तुम थे, उस तरफ,
और इस तरफ थी, बस यादें तेरी,
यूं सफर में, कुछ कटती रही,
लम्हातें मेरी!

यूं तो संग था, एक टुकड़ा आकाश,
एक तन्हा काश,
और, ताश के घर कटती रही,
लम्हातें मेरी!

और ये मन, जाए कभी उस तरफ,
और, इस तरफ,
राह तकती, रह जाए अकेली,
लम्हातें मेरी!

तस्वीरें कोई, इन दीवारों पर नहीं,
लगे वो है यहीं,
खींच लाती है यूं पास तुमको,
लम्हातें मेरी!

खुश्बू सी, अब भी आती है सदा,
कहीं तुम जुदा,
यूं गुजरती है, तुम्हारे संग ही,
लम्हातें मेरी!

उधर, जाने किधर,
गुम हमसे वो राहें, न जाने किधर,
ले ही आई, पर पास तुमको,
लम्हातें मेरी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 13 December 2022

बदलाव

युग किये, समर्पण,
पर अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
हैरान सा मैं, 
क्यूं आज अंजान सा मैं?

बेगानों सा, ताकता वो मुझको, 
झांकता वो, अंजानों सा,
भुलाकर, युगों का मेरा समर्पण,
बिसरा, वो मुझको!
 
अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

यूं हंसकर सदा, सदियों मिला,
बाग सा, हंसकर खिला,
यूं भुलाकर, सदियों का अर्पण,
दे रहा, कैसा सिला!

अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

हूं अब भी, इक शख्स मैं वही,
जरा शक्ल, बदली सही,
भरकर आगोश में, ये दर्पण,
सदियां बिताई यहीं!

अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

चेहरे पे पड़ी, वक्त की धमक,
हरी झुर्रियों की चमक,
हर ले गईं, मुझसे ये यौवन,
समझा न, नासमझ!

युग किये, समर्पण,
अब ना लगे, उस पहले सा ये दर्पण!
हैरान हूं मैं, 
क्यूं आज अंजान हूं मैं?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 11 December 2022

आईने का सच

सच ही कहता था आईना....
करीब होकर भी, कितना वो अंजाना!

हो पास, जैसे कोई परछाईं,
किरण कोई, छांव लेकर हो आई,
छुईमुई, छूते ही सरमाई,
अपनत्व ये, सच सा लगे कितना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

बिना बोले , ये कैसा वादा?
करे यकीं, कोई हद से भी ज्यादा,
करे बेशर्त, कोई समर्पण,
अर्पण करे, अन्तस्थ की भावना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

खींच ले, कोई अपनी ओर,
यूं कहीं बांध ले, पतंगों सा डोर,
उलझाए, धागों सा मन,
पर आसां कहां, वो डोर थामना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

अपरिचित से इक परिचय, 
छुपा, निरर्थक बातों में आशय,
यूं ढूंढता, बातों में सार,
ज्यूं, शब्दों नें गढ़ी कोई अल्पना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

सच ही कहता था आईना....
करीब होकर भी, कितना वो अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वही धुंध वही कोहरे

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

यूं ही दिन भी, बह चलेगा ओढ़कर चादर,
ज्यूं बंधी हों, पट्टियां आंखों पर,
और चल रहा हो,
इक मुसाफिर, उसी राह पर,
सर पर, एक गठरी धरे,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

अंजान, उधर, उस रौशनी को क्या खबर,
कि किधर, धुंध की गरी नजर!
कितना है सवेरा,
छुपा है कहां, कितना अंधेरा,
भटकता, किधर आदमी,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

रहे कब तक, न जाने, धुंध की सियासत,
सहे कब तक, उनकी नसीहत,
कोहरे सा आलम,
बदहवास, पसरे से ये दोराहे,
जाने कहां, लिए जाए,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 7 December 2022

पीपल सा पल

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

मन्द झौंके उनके, बड़े शीतल,
पत्तियों की, इक सरसराहट,
जैसे, बज उठे हों पायल,
मृदु सी छुअन उसकी, करे चंचल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

यूं भटका सा, इक पथिक मैं,
आकुल, हद से अधिक मैं,
जा ठहरूं, वहीं हर पल,
घनी सी छांव उसकी, करे घायल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

वो घोल दे, हवाओं में संगीत,
छेड़ जाए, सुरमई हर गीत,
तान वो ही, करे पागल,
हैं वो पल समेटे, कितने हलचल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 6 December 2022

बहाव में (१५०० वां पोस्ट)


उनकी ही बहाव में, बह गए हम,
उस क्षण, वहीं रह गए हम!

यूं थे भंवर कितने, बहाव में,
खुश थे कितने, हम उसी ठहराव में,
दर्द सारे, सह गए हम,
संग बहाव में, बह गए हम!

आसां कहां, यूं था संभलना,
उन्हीं अट-खेलियों संग, यूं भटकना,
यूं भंवर में, बहे हम,
उसी बहाव में, रह गए हम!

निष्प्रभावी से रहे यत्न सारे,
बन चले, ये बहाव ही दोनो किनारे,
विवश, प्रवाह में हम,
उसी चाह में, बह गए हम!

अब तो बस, है चाह इतनी,
यूं‌‌ बहते रहे, शेष है प्रवाह जितनी,
वश में, बहाव के हम,
बह जाएं, उसी राह में हम!

उनकी ही बहाव में, बह गए हम,
उस क्षण, वहीं रह गए हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 December 2022

छोर

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

छोड़ आए, उधर ही, कितनी गलियां,
कितने सपने, छूटे उधर,
मन के मनके, टूटकर, बिखरे राह में,
अब, लौट भी न, पाएं उधर,
छूटा जिधर, वो डोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

शक्ल अंजान कितने, इस छोर पर,
हैं हादसे, हर मोड़ पर,
सिमटता हर आदमी अपने आप में,
डस रही, अपनी परछाइयां,
विरान कैसा, ये छोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

धूल-धुसरित हो चले, ये पांव सारे,
धूमिल से दोनों किनारे,
ढूंढता खुद की ही, पहचान राहों में,
थक कर, चूर-चूर ये बदन, 
करे हैरान, यह छोर है!

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 27 November 2022

सालगिरह - 29वां


उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

बहाव सारे, बन गए किनारे,
ठहराव में हमारे,
रुक गया, ये कहकशां,
बनकर रह-गुजर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

रश्क करता, मुझ पे दर्पण,
भर के आलिंगन,
निहारकर, पल दो पल, 
यूं जाता है ठहर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

जज्बात में, इक साथ वो,
अनकही बात वो,
लिख दूं, कैसे, सार वो,
यूं ही कागजों पर!

उनको छू कर,
किनारों से, गुजर रही है ये उमर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
At Kolkata....


Saturday 19 November 2022

जब-जब ढूंढ़ोगे


विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं तो, दो पल चैन कहां, लेने देगी,
यह जीवन, जां ही लेगी,
वन-वन, ये पतझड़ ही, ले जाएगी,
मरुवन सा, जीवन,
बिखरे पलों के रेत शिखर,
लख कर,
अंन्तःवन की,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

ठहरा सा, गुजरा इक, वक्त भले हूं,
पर लम्हा, इक, जीवंत हूं,
पीछे मुड़कर देखो, तो राह अनंत हूं,
थकाएंगी, ये लम्हा,
पर, सहलाएंगी, वो लम्हा,
हर पग,
थक-थक कर,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं ना डूबो, उन अनंत रिक्तियों में,
झांको, उन विस्मृतियों में,
ले जाओ, खुद को उन्हीं स्मृतियों में,
वहीं, ठहरा हो कोई,
दो पलकें, यूं ही हों खोई,
जागी सी,
छू जाए शायद!
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 16 November 2022

झरोखा काम का


वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

उभर आती है जो, कितनी सायों के संग,
कभी संदली, कभी गोधूलि,
रातें कभी, बूंदों से धुली,
कहीं झांकती, कली कोई अधखुली,
हर रंग, जिंदगी के नाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

समेट कर, सिलवटों में, वक्त की करवटें,
यूं लपेटे, कोहरों की चादरें,
वो तो, बस पुकारा करे,
झांकते वो उधर, लिए पलकें खुली,
वो ही सहारा, इक शाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

वो तो, कैद कर गया, बस परिदृश्य सारे,
बे-आस से वो, दोनों किनारे,
उन, रिक्तियों में पुकारे,
क्षणभंगुर क्षण ये, जिधर थी ढ़ली,
बिखरा, वो सागर जाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

पर, वो करता कहां अंत की परिकल्पना,
जीवन्त सी, उसकी साधना,
अलकों में, नई अल्पना,
नित, फलक के, नव-रंगों में ढ़ली,
परवाह कहां, उसे शाम का!

वही इक झरोखा...
मेरे काम का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 8 November 2022

यह क्षण


इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!
इस क्षण ही जीना, इस क्षण ही मरना।

पीकर जीवन-गरल, ढ़ल गए वो कल,
लूट चले जो सुख चैन, बीत चुके वो पल,
गूंज उसी कल की, क्या सुनना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

वो बीता क्षण, दे जाए ना भीगा जीवन,
मंद कहीं पर जाए ना, इस क्षण की गुंजन,
उन चिथड़ों को, फिर क्या सीना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

विदा कर, उस पल को, जो गम ही दे,
अलविदा कर दे उन यादों को, जो दुख दे,
बीते उस पल में, अब क्या जीना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!

कितनी प्यारी सी, इस क्षण की कंपन,
सपनों की क्यारी सी, लगती यह गुलशन,
उन कांटों को, अब क्या चुनना?

इस क्षण में, उस क्षण की बातें क्या करना!
इस क्षण ही जीना, इस क्षण ही मरना।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 7 November 2022

क्षणभंगुर


ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

पलकों में, बूटे उग आए थे,
शायद, मेरी ख्वाबों के, वो सरमाए थे!
और, नैन तले, छाए काले घन,
अंतः, मेघों सा गर्जन,
लिए अधीर मन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

सोचे, अब, कैसे ये ख्वाब!
कैसा ये पागलपन, पाले क्यूं, उलझन!
टूट जाते, सावन में ही ये घन,
बिखर जाते हैं, तन,
क्यूं दीवानापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

क्षण-भंगुर, मेघों के साए,
क्षण भर ही, भाएंगी इनकी क्षणिकाएं,
मुड़ जाएंगे, जाने किस ओर,
ढूंढोगे, कल ये शोर,
फिरोगे, वन-वन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

फिर से ये बूटे, ना उगने दो,
फिर, ख्वाबों के सरमाए, ना बनने दो,
नभ पर, घन आएं, बरस जाएं,
ना ही, ख्वाब दिखाएं,
ना ही अपनापन!

ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 29 October 2022

मैं चाहूँ

मैं चाहूँ....

ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!

मैं चाहूँ....

नैन पटल पर, तेरे, उभरे ना रंग कोई,
मैं ही, उभरूं,
क्षितिज के, सिंदूरी अलकों से,
उतरूं, तेरी पलकों में,
यूं ही, संवरूं!

मैं चाहूँ....

कोई दूजी ना हो, और, कहीं कल्पना,
इक, मेरे सिवा,
उभरे ना, सिंदूरी कोई अल्पना,
बस, सजती रहो तुम,
और, मैं देखूं!

मैं चाहूँ....

मध्य कहीं, रह लो तुम व्यस्त क्षणों में,
छू जाओ तन,
मंद सलिल बन, सांझी वनों में,
दे जाओ, इक एहसास,
मन, रंग लूं!

मैं चाहूँ....

तेरी खुशबू, ले आए मंद बयार कोई,
बस, मुझ तक,
रुक जाए, वो महकी पुरवाई,
यूं, मंत्रमुग्ध करो तुम,
मैं खो जाऊं!

मैं चाहूँ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 24 October 2022

अतः शीघ्रता कर

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

ताकि, दीप्त सा वो राह, प्रदीप्त रहे,
अंधियारा, संक्षिप्त रहे,
मुक्तकंठ पल हों, आशाओं के कल हों,
निराशा के क्षण, लुप्त रहें!

अतः शीघ्रता कर......

कदम डगे ना, रोभर उन, राहों पर,
तमस, हंसे ना तुझपर,
जलते से, नन्हें प्यालों में, संताप जले,
अधर-अधर, बस हास पले!

अतः शीघ्रता कर......

आलोकित कर, साधना का पथ,
तू साध जरा, यह रथ,
हों बाधा-विहीन, अग्रसर हों पग-पग,
मन-विहग, हर डाल मिले!

अतः शीघ्रता कर......

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 22 October 2022

ले चला कौन

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

शायद, बरस चुके हैं, बादल!
बिखर चले हैं, घन,
इक शून्य सा है, अन्दर,
ले चला कौन,
उन बादलों से, वो भीगापन!

यूं, शब्द सारे, हो चले हैं गूंगे!
क्यूं, लबों को ढूंढें?
हैं पुकार सारे, बेअसर,
ले चला कौन,
मुखर शब्दों से, वो पैनापन!

बेनूर, बेरंग सी मेरी परछाईं,
संग, बची है, बस,
वे हंस रही मुँह फेरकर,
ले चला कौन,
इस परछाईं से, मेरी लगन!

अब कहां, आती है वो सदा!
रंग, नैनों से जुदा,
राह, खुद गए हैं मुकर,
ले चला कौन,
सदाओं से, वो दिवानापन!

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 15 October 2022

चुभते कांटे

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

हरेक अंतराल,
हर घड़ी, पूछते मेरा हाल,
दर्द भरे, वही सवाल,
बिन मलाल!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

उनकी चुभन,
वही, अन्तहीन इक लगन,
हर पल, बिन थकन,
वही छुअन!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

जो, वो न हो,
ये मौसम, ये बारिशें न हों,
सब्रो आलम तो हो,
हम न हों!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

क्यूं, उन्हें बांटें,
मीठी, दर्द की ये सौगातें,
तन्हा डूबती ये रातें,
यूं क्यूं छांटें!

अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 28 September 2022

जो हाथों से परे


जो हाथों से परे.....

याद करे, वो ही बचपन,
वही लौ, फिर छू लेने का पागलपन,
बरस चला, जो घन,
पतझड़ में, वही सावन का वन,
करे यतन,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

दूर जितना, वो क्षितिज,
प्रबल होते उतने, अतृप्ति के बीज,
होते, अंकुरित रोज,
शून्य में, क्षितिज की ही खोज,
अलब्ध जो,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

कैद भला, कब वो होते,
बहते पवन, इक ठांव कहां रुकते,
अक्सर, चुभो जाते,
छुवन भरे, कई हौले से कांटे,
जो डसते,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

पूर्ण, अतृप्त चाह कहां,
आस लिए, यह मानव, मरता यहाँ,
पाने को, दोनो जहां,
मानव, घृणित पाप करता यहां,
स्वार्थ पले,
वही पाना चाहे मन!

जो हाथों से परे.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

आभार ......

Sunday 25 September 2022

अन्तर्निहित


निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

फूलों का, यूं खिल आना,
निरर्थक, कब था!
अर्थ लिए, आए वो, मौसम के बदलावों में, 
मुकम्मल सा, श्रृंगार कोई!

हवाओं में घुलते कलरव,
इक संशय में, सब,
रीत, ये कैसा, राग कौन सा, पिरोए विहग!
या अर्थपूर्ण, विहाग कोई!

नत-मस्तक, इक बादल,
शीष उठाए, पर्वत,
अधूरे से दोनों, दोनों ही इक दूजे के पूरक,
भावप्रवण ये, प्रीत कोई!

चुपचुप गुमसुम सी रात,
अर्थपूर्ण, हर बात,
उस छोर, वही लिख जाती सुरीली प्रभात,
रहस्यमई, जज्बात कोई!

निरर्थक सी, उन बातों में,
शायद, अन्तर्निहित हैं जीवन के अर्थ सारे!
मैं ही, ना-समझ,
बुनता रहता हूँ, अर्थ कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 20 September 2022

प्रेमांकुर

प्रेमांकुर
अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

पतझड़ों सा है रंग, पर, बसन्त सा उमंग,
सूखे से बीज में, जागे अंकुरण,
उम्र से परे, नर्म सा ये चुभन,
एहसास, फिर से वही,
लिए ही आते हैं, प्रेम के ये वृक्ष!

अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

60 से बस चार कम, अब 56 के हैं हम,
प्रेम, इस उम्र में, अब क्या करें!
पर, रुकते हैं कब ये अंकुरण,
इस बीज के प्रस्फुटन,
उग ही आते हैं, प्रेम के ये वृक्ष!

अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

बह तो जाएंगे हम, उम्र के इस बहाव में,
ओस बन जाएंगे, इस पड़ाव में,
जगा के, सर्द सी इक छुअन, 
देकर, दर्द का चलन,
संवर ही जाएंगे, प्रेम के ये वृक्ष!

अकथ्य, अकल्पनीय, प्रेम के ये दृश्य...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 18 September 2022

फरफराते पन्ने

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

जैसे, पढ़ गया वो किताब सारी,
खोल कर आलमारी,
उकेर कर हर एक पन्ने किताब के,
रख गया, वो खोलकर!

थी, सामने ही, हमारी उम्र सारी,
गुजरी थी या गुजारी,
जो टंकित थे, कहीं, वो शब्द सारे,
फिर, हो चले थे मुखर!
 
शब्दों की सुनूं, या खुद को चुनूं,
अब ये ही संशय बुनूं,
वो ही, गूंजित शब्दों के, प्रतिश्राव,
घाव कितने गया देकर!

अपना सा बन चला जो मिला,
वही फिर सिलसिला,
बिछड़ते, दो-मुहानों पर, वे रिश्ते,
गए नैनों को भिगोकर!

सूनी थी पड़ी, वो पगडंडियां,
कितनी सूनी वादियां,
यूं, मुश्किल बड़ा ही था गुजरना,
फिर, उसी राह होकर!

आज, कितना अपूर्ण था मैं,
यूं खुद में पूर्ण था मैं,
बोलते, फर-फराते, वो सारे पन्ने,
यूं गया कुछ उकेर कर!

गुजरा था एक क्षण, अभी मुझमें होकर,
मुझको उकेर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 16 September 2022

बेचैनियाँ


न मन है, जमीं पर कहीं,
न मन की आहटें,
उमरता, सन्नाटों में, बिखरता वो बादल,
किससे, कहे,
अपनी, बेचैनियों के किस्से!

बहा लिए जाए, ये अल्हड़ पवन,
चल दे, कहीं छोड़ कर,
सूने पर्वतों के, उन्हीं मोड़ पर,
कल, छोड़ आए,
थे जिसे!

ले उड़े कहीं, बन्द, दायरों से परे,
तोड़ कर, वो, बंध सारे,
बह चले , फिर उन रास्तों पर,
कल, भूल आए,
थे जिसे!

गगन के, दो किनारे, दूर कितने,
हारे-बेसहारे, वो सपने,
चाहे बांधना वो, अंकपाश में,
ना, बिसार पाए,
थे जिसे!

न मन है, जमीं पर कहीं,
न मन की आहटें,
उमरता, सन्नाटों में, बिखरता वो बादल,
किससे, कहे,
अपनी, बेचैनियों के किस्से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 15 September 2022

शब की परछाईं


रैन ढ़ले, सब ढ़ल जाए,
शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

तमस भरा, आंचल,
रचता जाए, नैनों में काजल,
उभरता, तम सा बादल,
बाहें खोल, बुलाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

इक, अँधियारा पथ, 
और, ये सरपट दौड़ता रथ,
अन-हद अनबुझ कथ
यूं , कहता जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जलते बुझते सपने,
ये हल्के, टिमटिम से गहने,
बोझिल सी पलकों पर,
कुछ लिख जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जीवन्त, सार यही,
शब सा, इक संसार यही,
सौगातें, सपन सरीखी,
नैनों को दे जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 5 September 2022

सफर में


खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं,
इस सफर में, जो भी मिला!

भींच लूं, कितनी भी, ये मुठ्ठियां,
समेट लूं, दोनों जहां,
फिर भी, यहां दामन, खाली ही मिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

फिर भी, थामे हाथ सब चल रहे,
बर्फ माफिक, गल रहे,
बूंद जैसा, वो फिसल कर, बह चला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

खुश्बू, दो घड़ी ही दे सका फूल,
कर गया, कैसी भूल,
रंग देकर, बाग को,  वहीं मिट चला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला....

बनता, फिर बिखरता, कारवां,
लेता, ठौर कोई नया,
होता, फिर शुरू इक सिलसिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

खत्म होता नहीं, ये सिलसिला,
बिछड़ा यहीं, 
इस सफर में, जो भी मिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

फिक्र


फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

यूं, बिछड़ कर, सदा जिक्र में जो रहे,
क्या हो, कल किसी राह में, अगर वो फिर मिले!
जग उठे, शायद, फिर वो ही अनबुने सपने,
जल उठे, फिर, अधबुझी सी वो शमां,
इक अंधेरी रात में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

जिक्र फिर, उनकी ही हो, हर घड़ी,
जल उठे, अंधेरों में, इक संग, करोड़ों फुलझड़ी,
जलती हर किरण, राहों में, उनको ही ढूंढे,
बस फिक्र ये ही, कि वो फिर ना रूठे,
यूं जरा सी बात में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

गुम है मगर, उन रास्तों का सफर,
न उन राहों का पता, न उन दरक्तों की है खबर,
धूमिल से हो चले, उन कदमों के निशान,
गहराते इस रात का, न कोई विहान,
न ही कोई साथ में!

फिक्र, उनकी ही फिर भी.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 23 August 2022

किनारों पर


खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

हर बार, छू जाती है, जो, आकर किनारों पर,
और लौट जाती है, न जाने किधर,
फिर उठती है, बनकर इक ढे़ह सी उधर,
देखता हूं, मैं वो लहर,
अनवरत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

करे क्या! हैरान सा, हारा वो बेवश मुसाफ़िर,
बेपरवाह, उन्हीं लहरों का मुंतजिर,
हर पल, छूकर, करती जाती है जो छल,
लिए, उसी की आस,
प्रतीक्षारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

झंकृत, हर ओर दिशा, और वो, मंत्रमुग्ध सा,
कोई संगीत सी, बज उठती लहर,
बज उठते, कई साज, उनकी इशारों पर,
वो चुने, वो ही गीत,
कल्पनारत, वहीं सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

उन लहरों से इतर, बे-सबर, जाए तो किधर,
अमिट इक चाह, अमृत की उधर,
और अन्तः, गरल कितने छुपाए सागर,
धारे, वो ही प्यास,
प्रतिमावत, खड़ा सागर की किनारों पर!

और, छूकर जाती, उफनती वो लहर!

खड़ा, सागर की, किनारों पर,
इक टक देखता, उस मुसाफ़िर की मानिंद था मैं,
और वो, उस लहर की तरह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 18 August 2022

परिचय


क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

गल जाना है इक दिन, मिल जाना है माटी में,
फिर, पहने फिरते हो क्यूं,माया का गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

अन्त:स्थित इक चित्त, रहा सर्वथा अपरिचित,
पहले, इक डोर परिचय के, उनसे बांधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

पूजे जाते वो शील, जिनमें अनुशीलन रब का,
राह पड़े उन शीलों को, कौन बनाए गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

मिल लेना, उस से, जो मिलता हो मुश्किल से,
छिछले से सागर तट पर, मोती क्या चुनना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

ढूंढो तो इस कण-कण मिल जाएं, शायद राम,
पर आवश्यक, विश्वास, लगन और साधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 14 August 2022

कुछ तो है


बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

है उनको खबर,
कि, तय करना है उन्हें, एक लम्बा सफर,
उधर, इस छोर से, उस छोर तक,
हठीले, मोड़ तक,
टूटकर, कहीं बिखरेंगे वो,
बरस जाएंगे, मुस्कुराकर, तप्त धरा पर,
काम आ जाएंगे, किसी के,
प्यासे जो है!

बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

वो, दे जाएंगे,
किसी सर, घनी सी, इक छांव क्षण भर,
सब कुछ, यूं दामन से, लुटा कर,
खुद को भुलाकर,
बस जाएंगे, उन्हीं की, सुप्त चेतना में,
विलख कर, विरह वेदना में,
तरपे जो हैं!

बादलों की, चपलता,
और, भीगे मेघों की, गर्जना के मध्य,
कुछ, तो है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 13 August 2022

एहसास


वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो बांध गए, किन एहसासों की डोरी से,
शायद चोरी से!
चुपके से, यूं पांव दबे,
जब सांझ ढ़ले,
ढ़लती किरणों संग, उनकी ही बात चले,
रात ढ़ले,
जिन्दा हो, एहसास कोई,
है साथ वही!

वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो कब ठहरे, रुक जाए कब, यूं राहों में,
उन्ही, आहों में,
भर दे, हल्की सिहरन,
उस, छांव तले,
जब भोर जगे, फिर उनकी ही बात चले,
राह चले,
झौंकों सी, इक वात कोई,
हो, संग वही!

वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

घन


हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

पहले छा जाना, मन को भा जाना,
धुंधला सा, ये गहरा आंचल, फिर फैलाना,
उतर आना, इक बदली सा आंगन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

यूं भर लेना नैनों में थोड़ा काजल,
ज्यूं रात, मचल कर,  गाती हो एक ग़ज़ल,
और साज कहीं, बजते हों उपवन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

फिर चाहे तू कहना मन की व्यथा,
या रखना, मन की बातें, मन में ही सर्वथा,
उतर आना, नीर सरीखे, नयनन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में!

सूना ये आंगन, संवर जाए थोड़ा,
सरगम की छमछम से, भर जाए ये जरा,
बज उठे शंख कई, इस सूनेपन में!

हौले से, आ बरसो, हृदय के आंगन में,
यूं जैसे, घन बरसे सावन में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 9 August 2022

दो दिन जीवन


शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई, बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!

शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 August 2022

कोरी कल्पना


रहना हो, तो ‌‌‌‌‌‌‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
और, रोज मिलना!

चल देते हो, तुम, ऐसे,
जैसे, दिन ढ़ले, ढ़ल जाते हैं असंख्य तारे,
खुल जाते हैं, आकाश के, दो किनारे,
यूं ठहरते हो, कब!

ठहर जाओ कुछ ऐसे,
जैसे, गहराते हैं, मेंहदी के रंग, हौले-हौले,
बहती ये नदियाँ, ज्यूं, सागर को छूले,
और, निखर जाए!

सब दरवाजे, हैं खुले,
रिक्त सारे, कल्पनाओं के ये उन्मुक्त झूले,
खाली सा, आकाश का सारा दामन,
जरा, सँवर जाए!

रहना हो, तो ‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
क्या, रह सकोगे सदा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 5 August 2022

संवेदना


जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

संवेदनाओं से विमुख, रहा कौन?
बस चीर जाती है हृदय, किसी का मौन!
तड़पा जाती है, चेतना,
यूं चुभोती इक कसक, मन के आंगना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर न हो, तेरा, हृदय एक पाषाण,
शर्म हो, खुद को कहलाने में एक इन्सान,
सो ना चुकी हो, चेतना,
बींध जाएगी, मन को, किसी की वेदना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

गर सुन सको, तुम, उनकी चीखें,
आह, किसी की, आ तेरे कदमों को रोके,
पड़े, यूं नींद से जागना,
अन्त:करण, देने लगे तुझको उलाहना,
जगाएगी, उम्र भर, 
ये संवेदना!

इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!

जगाएगी, उम्र भर,
इस सफर में, दे ही जाएगी वेदना!
ये संवेदना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 3 August 2022

काश


धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, वो एहसास, सुखद न होते इतने,
काश, लगते, इतने न वो अपने,
काश, आते न वो सपने,
यूं दूर बैठी, सिमटी वो परछाईं,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, कुम्भला जाते ये खिले एहसास,
काश, न आते, वो मन को रास,
काश, यूं भूल जाते हम,
वो बदली, बरस भी न जो पाई,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, छू न लेती यूं परछाइयाँ हमको,
काश, यूं न बांधती यहां हमको,
काश, बहती न, ये पवन,
कह गई जो, वही इक कहानी,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 2 August 2022

आहट


घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हर तरफ, एक धुंधली सी नमीं,
भीगी-भीगी, सी ज़मीं,
हैं नभ पर बिखेरे, किसी ने आंचल,
और बज उठे हैं, गीत छलछल,
हर तरफ इक रागिनी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

पल-पल, धड़कता है, वो घन,
कांप उठता, है ये मन,
झपक जाती हैं, पलकें यूं चौंक कर,
ज्यूं, खड़ा कोई, राहें रोककर,
अजब सी, दीवानगी!

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

हो न हो, ये सरगम, है उसी की,
है मद्धम, राग जिसकी,
सुरों में, सुरीली है आवाज जिसकी,
छेड़ जाते हैं, जो सितार मन के,
कर दूं कैसे अनसुनी?

घुल रही है, यूं फिजा में आहट किसी की ....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 27 July 2022

खानाबदोश


मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

करता भी क्या, पंख लगे थे पैरों पर,
मुड़ जाता भी कैसे, मजबूरी हर कदमों पर,
रहा देखता, कभी, यूं रुक-रुक कर,
बहते राहों के, उन साहिल पर,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

अनसुनी, संवेदनाओं की सिसकियां,
अनकहे जज्बातों की, बिसरी सब गलियां,
पुकारती हैं कभी, अनुगूंज बनकर,
रोकते कहीं, टूटे वादों के गूंज,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

धीर धरे कैसे, और, आए कैसे होश,
वश के बाहर, बेवश सा इक खानाबदोश,
बना लेता, भंगुर, अरमानों का ठांव,
ढूंढता, उन्हीं हसरतों का छांव,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 July 2022

एकाकी ही भला


एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम, जो दे जाते हैं, वो मन के बंधन,
क्यूँ, बांध रहे, मुझसे हर क्षण,
ये गीत, न वो गाएंगे,
सर्वदा, मन को न तेरे बहलाएंगे,
न रखना, कोई गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम न, इक और, ले पाऊंगा सर्वथा,
रह न पाऊंगा, यूं संग सर्वदा,
न रख, यादों में कहीं,
रखना, पर, बीती बातों में कहीं,
जैसे कोई, कहीं मिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

क्यूं ठहर जाऊं, आंगन में किसी के,
क्यूं बना लूं, घर इक कहीं पे,
रेत जैसे हैं ख्वाब ये,
प्यास नजरों को हो, गर, दो घूंट,
अपनी, आंसू के पिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

हो बेहतर, रख ले मन पे एक पत्थर,
मत मांग, प्रश्नों के कोई उत्तर,
जो, हल न हो पाएंगे,
वो अन्तर्मन को और बींध जाएंगे,
यूं होगा, किसका भला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

उड़ा मत, आसमां पर, पंछी चाह के,
कल, रख न पाओगे बांध के,
वो, छल ही जाएंगे,
टूटे बांध जो, वो कल बंध न पाएंगे,
यूं होगा, खुद से गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  ‌‌ (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 23 July 2022

अनमनस्क तरंगें


ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

बीते कई दिन, बस यूँ ही, अनमने से,
अर्ध-स्वप्न सी, बीती रातें कई,
मलता रहा नैन, बस यूँ ही, जागा-जागा,
दूर, जीवन कहीं, रंगों से भागा,
फीकी सी, सब उमंगें!

ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

बही प्रतिकूल, यूँ ही, ये चंचल हवाएँ,
छू ले, कभी, यूँ नाहक जगाए,
अनमनस्क लग रहे, नदी के ये किनारे,
दूर, बहते रहे, अनवरत वो धारे,
बहा गई, सारी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

शायद, बहने लगे, पवन हौले-हौले,
मन को मेरे, कोई यूँ ही छू ले!
शून्य क्यूँ है इतना, कोई आए टटोले!
दूर, क्षितिज पर, फिर से बिखेरे,
वो ही, सतरंगी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

Thursday 21 July 2022

बस चुनना था


रंग कई थे, बस चुनना था!

उभरे थे, पटल पर, अनगिन परिदृश्य,
छुपा उनमें ही, इक, बिंबित भविष्य,
कोई इक राह, पहुंचाती होगी साहिल तक,
राह वही, इक चुनना था,
दूर तलक, बस, उन पर चलना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

पंख लिए, उड़ा ले जाते, ख्वाब कहीं,
मन को, पथ से भटकाते चाह कई,
कहीं दूर, बहा ले जाते, दुविधाओं के पल,
हासिल जो, चुनना था,
चाहत के रंग, उनमें ही, भरना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

उलझन, उलझाएगी, हर चौराहों पर,
जीवन, ले ही जाएगी दो राहों पर,
हर सांझ, पटल पर छाएंगे रंगी परिदृश्य,
लक्षित, पथ चुनना था, 
उलझे भ्रम के जालों से बचना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

अशांत मन, होता है यूं ही शांत कहां,
बेवजह उलझन का, यूं अंत कहां,
सपन अनोखे, भर लाएंगे दो चंचल नैन,
चैन खुद ही चुनना था,
चुनकर ख्वाब वही इक बुनना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 15 July 2022

भूल जाता हूं


झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

गहराता वो क्षितिज, हर क्षण बुलाता है उधर,
खींच कर, जरा सा आंचल में भींच कर,
कर जाता है, सराबोर,
उड़ चलते हैं, मन के सारे उत्श्रृंखल पंछी,
गगन के सहारे, क्षितिज के किनारे,
छोड़ कर, मुझको,
ओढ़ कर, वो ही रुपहला सा आंगन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

वो टूटा सा बादल, विस्तृत नीला सा आंचल,
सिमटे पलों में, अजब सी, एक हलचल,
चहुं ओर, फैली दिशाएं,
टोक कर, मुझको, उधर ही बुलाए,
पाकर, रंगी इशारे,
देख कर, वादियों का पिघलता दामन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 13 July 2022

कभी यूं ही


यूं ही.....

कभी यूं ही, रुक जाती हैं पलकें,
दर्द कभी, यूं हल्के -हल्के,
उस ओर कभी, मुड़ जाते हैं सब रस्ते,
कभी इक वादा खुद से,
न गुजरेंगे, 
फिर, उन रस्तों से!

यूं ही.....

कभी यूं ही, दे जाए बहके लम्हें,
उलझे शब्दों के, अनकहे,
खोले, राज सभी, बहके जज्बातों के,
स्वप्निल, सारी रातों के,
नींद चुरा ले,
अपनाए, गैर कहाए!

यूं ही.....

कभी यूं ही, आ जाए ख्वाबों में,
बिसराए, उलझी राहों में,
दो लम्हा, वो ही यहां, ठहरा बाहों में,
ठहरे से, जाते लम्हों में,
आए यादों में,
तरसाए, हर बातों में!

यूं ही.....

कभी यूं ही, रुकते ये धार नहीं,
सपने, सब साकार नहीं,
बारिश की बादल का, आकार नहीं,
निर्मूल, ये आधार नहीं,
ये प्यार नहीं,
तू, क्यूं ढूंढ़े ठौर यहीं!

यूं ही.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 10 July 2022

यकीन


हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!

वीथिकाएं, बिखरी यादों की भुजाएं,
बीते, उन पलों के, हर लम्हे,
उस ओर, बुलाए!
वही, ऊंचे, दरक्तों के साए,
मौसम, पतझड़ के,
जिन पर,
बे-वक्त, उभर आए!

हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!

बह चले धार संग, इस उम्र के सहारे,
रह गए खाली, बेपीर किनारे,
उस ओर, पुकारे,
कौन सुने, ये मौन भरमाए,
वो खामोश दिशाएं,
रह-रह,
अनबुझ, गीत सुनाए!

हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!

पूछे पता, दरक्तों से घिरी ये वीथिका,
दे इक छुवन, वो कौन गुजरा,
ये किसका, पहरा,
बंधा कर आस, छल जाए,
वो उनके ही साए,
खींच लाए,
भरमाए, संग बिठाए! 

हो यकीन कैसे, इन मौसमों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)