Showing posts with label दहलीज. Show all posts
Showing posts with label दहलीज. Show all posts

Sunday 30 May 2021

जागे सपने

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

शायद, सपनों के पर, 
छूट चले हों, बोझिल पलकों के घर,
उड़ चली नींद,
झिलमिल, तारों के घर,
आकाश तले, संजोए ख्वाब कई,
जागा सा मैं!

जाने, फिर लौटे कब,
शायद, तारों के घर, मिल जाए रब,
खोई सी नींद,
दिखाए, दूजा ही सबब,
पलकें मींचे, नीले आकाश तले,
जागा सा मैं!

ये, सपनों की परियाँ,
शायद, हों इनकी, अपनी ही दुनियाँ,
भूली हो नींद,
अपने, पलकों का जहाँ,
खाली उम्मीदों के, दहलीज पर,
जागा सा मैं!

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 14 September 2018

दायरा

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

छोड़ कर बाबुल का आंगन,
इक दहलीज ही तो बस लांघी थी तुमने!
आशा के फूल खिले थे मन में,
नैनों में थे आने वाले कल के सपने,
उद्विग्नता मन में थी कहीं,
विस्तृत आकाश था दामन में तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कितने चंचल थे तुम्हारे नयन!
फूट पड़तीं थी जिनसे आशा की किरण,
उन्माद था रक्त की शिराओं में,
रगों में कूट-कूटकर भरा था जोश,
उच्छृंखलता थी यौवन की,
जीवन करता था कलरव साथ तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कुंठित है क्यूँ मन का आंगन?
संकुचित हुए क्यूँ सोच के विस्तृत दायरे?
क्यूँ कैद हुए तुम चार दिवारों में?
साँसों में हरपल तुम्हारे विषाद कैसा?
घिरे हो क्यूँ अवसाद में तुम?
क्यूँ है हजार अंकुश जीवन पे तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

Sunday 10 April 2016

उम्र के साथी

आ गई अब उम्र वो, तलाशता हूँ जिन्दगी को,
उम्र की इस दहलीज पे, साथ मेरे कोई तो हो।

कभी मगन हो लिए हम, खुद अपने ही आप में,
फिर कभी तलाशता हूँ, खुद में अपने आप को।

कहते हैं जिन्हे अपना हम, दिखते हैं वो दूर से,
पास अपनी इक जिन्दगी, क्युँ रहें हम मायूश से।

जिन्दगी की प्यारी सी धुन, हर घड़ी बजती रहे,
साए सी तुम संग-संग रहो, जिन्दगी चलती रहे।

तन्हा हैं जो इस सफर में, हम उनकी जिन्दगी बनें,
कुछ लम्हें जिन्दगीे, संग उनके भी हम गुजार लें।

खिल-खिलाएगी ये जिन्दगी, जहाँ तेरे कदम पड़े,
तलाशेंगी ये तुमको खुशी, उठकर आप कहाँ चले।

उम्र गुजर जाएगी ये, जिन्दगी के आस-पास ही,
साथी तेरे कहलाएंगे ये, इस जिन्दगी के बाद भी।

Saturday 6 February 2016

दहलीज में बिटिया

घुटन कैसी इस दहलीज के अन्दर,
चेहरे की सुन्दरता कुचल दी गई हो जैसे,
मासूमियत उसकी मसली गई है शायद,
नजर अंदाज कर दिए गए हैं गुण सारे।

जीवन भारी इस दहलीज के अन्दर,
जीने की आजादी छीन ली गई हो जैसे,
सुन्दरता उसके मन की बिखर गई है शायद,
जीवन अस्तित्व ही दाँव पे लगी हो सारी।

एक मानव रहता है उस बिटिया के अन्दर,
सोच विस्तृत उसके भी हर मानव के जैसे,
शक्ति उसमे भी कुछ हासिल कर लेने की शायद,
अस्तित्व उसकी फिर क्युँ वश मे तुम्हारे।

कल्पनाशीलता खोई दहलीज के अन्दर,
अंकुश लग गई हों विचारों पर बिटिया के जैसे,
अभिव्यक्ति की शक्ति कुम्हलाई है उसकी शायद,
बाँध दिए गए है नथ जैसे नथुने में सारे।

झांकने दो बिटिया को भी दहलीज के बाहर,
साँसे खुल के उसे भी लेने दो नर मानव जैसे,
अभिव्यक्त पूर्ण खुद को कर पाएगी वो तब शायद,
अस्तित्व स्वतंत्र बना निखरेगी जग मे सारे।

दहलीज पर कदम

दहलीज पर रखती कदम,
हसींन उम्मीदों की डोर संग,
मृदुल साँसें हृदय में बाँधे,
क्यारियों सी खुद को सजाए,
आँचल में कुछ याद छुपाए।

दहलीज वही जीवन की,
नेपथ्य की गूँज अब वहाँ नहीं,
समक्ष भविष्य की आवाजें,
दीवारों में चुनी हुई कुछ सांसें,
तू सोचती क्या आँचल फैलाए।

इक नई दुनियाँ यह तेरी,
करनी है रचना खुद तुमको ही,
बिखेरनी है खुशबु अपनी,
रंग कई भरने हैं तुझको ही,
दहलीज कहती ये दामन फैलाए।