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Friday 4 March 2022

जीवटता

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
शायद, लम्बा है जरा, पतझड़ों का ये मौसम!
रोके रखी हैं, सांसें थामकर अन्दर,
ये हवाएं, बस जरा जाएं गुजर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
ग़म के समुन्दर, बहे जा रहे, अन्दर ही अन्दर!
छाले, जो पत्तियां, दें गईं बदन पर,
उठती हैं, कभी, टीस बन कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
चुप ही चुप, आँकती हैं, मौसमों का मिजाज!
सोंचती हैं, मूंद कर अपनी पलकें,
गुजर जाए, वक्त के ये भंवर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
उनकी ये जीवटता, मिटने भी कहां देगी उन्हें!
जगाएंगे, पलकों तले पलते सपने,
नीरवता भरी, उन राहों पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
संघर्ष एक लम्बा, इस जिन्दगी का है अधूरा!
लौट ही आएंगे, आस के वो पंछी, 
चहक उठेंगे, इसी डाल पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 30 July 2021

तिश्नगी

चलो चलें कहीं, उन फिजाओं में.....

इक तड़प, इक तिश्नगी, सी है छाई,
सिमट सी आई, है ये तन्हाई,
घुटन सी है, इन हवाओं में,
चलो चलें कहीं.......

कितनी बातें, करती हैं ये खामोशी,
हवाओं नें, की है ये सरगोशी,
चुभन सी है, ऐसी बातों में,
चलो चलें कहीं.......

यूँ, कब तलक, तरसाए, ये तिश्नगी,
मार ही डाले, न ये, आवारगी,
अगन सी है, इन सदाओं में,
चलो चलें कहीं.......

इक गिरह सी, बंध चुकी है अन्दर,
रुक पाए, पर कहाँ ये समुन्दर,
सीलन सी है, इन दरारों में, 
चलो चलें कहीं.......

चलो चलें कहीं, उन फिजाओं में.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
.....................................................
तिश्नगी: प्यास, लालसा, तड़प, उत्कंठा, तमन्ना, तीव्र इच्छा, अभिलाषा

Tuesday 25 May 2021

अनुभूत

रह-रह, कुछ उभरता है अन्दर,
शायद, तेरी ही कल्पनाओं का समुन्दर,
रह रह, उठता ज्वार,
सिमटती जाती, बन कर इक लहर,
हौले से कहती, पाँवों को छूकर,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

अनुभूतियों का, ये कैसा सागर,
उन्मत्त किए जाती है, जो, आ-आ कर,
उभरती, ये संवेदनाएं,
यदा-कदा, पलकों पर उतर आएं,
बूँदों में ढ़ल, नैनों में कह जाए,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

हो जैसे, लहरों पे सांझ किरण,
झूलती हों, पेड़ों पे, इक उन्मुक्त पवन,
हल्की सी, इक सिहरन,
अनुभूतियों के, गहराते से वो घन,
कह जाती है, छू कर मेरा मन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

रह-रह, कुछ सिमटता है अंदर,
शायद, ज्वार-भाटा की वो लौटती लहर,
चिल-चिलाती दोपहर,
रुपहला, सांझ का, बिखरा प्रांगण,
कह जाता है, रातों का आंगन,
एकाकी क्यूँ हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 4 May 2021

श्रद्धासुमन


आदरणीया डा. वर्षा जी के निधन  (निधन तिथि 03.05.2021), की खबर पाकर स्तब्ध हूँ। श्रद्धांजलि के रूप में पेश है, उनकी ही लिखी कुछ पंक्तियों से प्रभावित, एक कविता, मेरी ओर से एक श्रद्धासुमन-

जब भी खिल आएंगी, कहकशाँ,
वो याद आएंगे, बारहां!

बारिशों से, नज्म उनके, बरस पड़ेंगे,
दरख्तों के ये जंगल, उनकी ही गजल कहेंगे,
टपकती बूँदें, घुँघरुओं सी बज उठेंगी,
सुनाएंगी, कुछ नज्म उनके,
उनकी ही कहानियाँ!

वो याद आएंगे, बारहां!

इक नदी, बहती थी अंदर ही अंदर,
या छुपा कर उसने भी रखा था, इक समंदर,
वो ही प्रवाह, बन उठी थी लहर-लहर,
भिगोएंगी, रह-रहकर सदा,
उनकी ही रवानियाँ!

वो याद आएंगे, बारहां!

कहकशाँ, पूछेंगी चांदनी का पता,
जब कभी भूल जाएगी, वो अंधेरों में रास्ता,
उनकी चाँदनी मैं भी, रख लेता चुरा,
ढूढ़ेंगी, अब मेरी ये निगाहें,
उनकी ही निशांनियाँ!

जब भी खिल आएंगी, कहकशाँ,
वो याद आएंगे, बारहां!
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कई बार उनकी रचनाओं और मेरी ब्लॉग पर उनकी प्रतिकियाओं ने मुझे प्रेरित किया है।

उद्धृत है चर्चामंच पर उनके लिए आदरणीया कामिनी जी द्वारा लिखी गई एक प्रतिक्रिया का अंश जो उनके बारे में सबकुछ कह जाती है: - असाधारण लेखिका, कवयित्री, शायरा एवं कला-प्रेरिका वर्षा जी नहीं रहीं?  क्या यह विदुषी अब केवल स्मृति-शेष है? 

उनकी ब्लाॅग के लिंक्स-
https://varshasingh1.blogspot.com/
https://ghazalyatra.blogspot.com/
https://vichar-varsha.blogspot.com/

पेश है, स्व. वर्षा  जी की लिखी, कुछ पंक्तियाँ:
एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर
बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर 

साथ गया कब कौन किसी के, रिश्तों की माया है 
बाहर आंखें पानी-पानी, आग दबी है भीतर 

एक लय है ख़ुशी, गुनगुनाओ ज़रा 
मुझको मुझसे कभी तो चुराओ ज़रा 

कौन जाने कहां सांस थम कर कहे -
"अलविदा !" दोस्तो, मुस्कुराओ जरा..
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उनके बारे में ज्यादा व्यक्तिगत जानकारी तो नहीं है, पर रचनाओं और उनकी लेखन कलाओं के माध्यम से उन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी है मुझ पर। उनकी सशक्त रचनाएँ ब्लॉग जगत में एक मील के पत्थर की तरह अंकित रहेंगी।
उनकी असामयिक मृत्यु ब्लॉग जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।
ईश्वर से उनकी दिवंगत आत्मा हेतु शांति की प्रार्थना करता हूँ।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 20 May 2019

तलाश

अपना कोई रहगुजर, तलाशती है हर नजर...

वो रंग है, फिर भी वो कितनी उदास है!
उसे भी, किसी की तलाश है...
दिखना है उसे भी, निखर जाना है उसे भी!
बिखर कर, संग ही किसी के....
जीना है उसे भी!

प्रखर है वो, लेकिन कितनी निराश है!
साथी बिना, रंग भी हताश है...
आँचल ही किसी के, विहँसना है उसे भी!
लिपट कर, अंग ही किसी के.....
मिटना है उसे भी!

खुश्बू है वो, उसे साँसों की तलाश है!
तृप्त है, फिर कैसी ये प्यास है?
मन में किसी के, बस उतरना है उसे भी!
सिमट कर, जेहन में किसी के....
रहना है उसे भी!

वो श्रृंगार है, उसे नजर की तलाश है!
सौम्य है, पर चाहत की आस है...
नजर में किसी के, रह जाना है उसे भी!
निखर कर, बदन पे किसी के...
दिखना है उसे भी!

रिक्तता है, जिन्दा सभी में पिपास है!
बाकि, नदियों में भी प्यास है...
इक समुन्दर से, बस मिलना है उसे भी!
उतर कर, दामन में उसी के....
मिटना है उसे भी!

अपना कोई रहगुजर, तलाशती है हर नजर...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 11 November 2018

खुद लिखती है लेखनी

मैं क्या लिखूं! खुद लिख पड़ती है लेखनी....

गीत-विहग उतरे जब द्वारे,
भीने गीतों के रस, कंठ में डारे,
तब बजते है, शब्दों के स्तम्भ,
सुर में ढ़लते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

भीगी है जब-जब ये आँखें,
अश्रुपात कोरों से बरबस झांके,
तब डोलते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
स्खलित होते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

समुंदर की अधूरी कथाएं,
लहरें, तट तक कहने को आएं,
तब टूटते हैं, शब्दों के स्तम्भ,
बिखर जाते हैं, शब्द-शब्द!

मैं क्या लिखूं! फिर खुद लिखती है लेखनी...

Monday 28 March 2016

साहिलों से भटकी लहर

इक लहर भटकी हुई जो साहिलों से,
मौज बनकर भटक रही अब इन विरानियों में,
अंजान वो अब तलक अपनी ही मंजिलों से।

सन्नाटे ये रात के कटते नही हैं काटते,
मीलों है तन्हाईयाँ जिए अब वो किसके वास्ते,
साहिलों का निशाँ दूर उस लघु जिन्दगी से।

सिसकियों से पुकारती साहिल को वो दूर से,
डूबती नैनों से निहारती प्रियतम को मजबूर सी,
खो गई आवाज वो अब मौज की रानाईयों में।

इक लहर वो गुम हुई अब समुंदरों में,
मौज असंख्य फिर भी उठ रही इन समुंदरों में,
प्राण साहिल का भटकता उस प्रियतमा में।

पुकारता साहिल उठ रही लहरों को अब,
आकुल हृदय ढूंढता गुम हुई प्रियतमा को अब,
इंतजार में खुली आँखें हैं उसकी अब तलक।

टकरा रही लहर-लहर सागर हुई वीरान सी,
चीरकर विरानियों में गुंजी है इक आवाज सी,
तम तमस घिर रहे साहिल हुई उदास सी।

वो लहर जो लहरती थी कभी झूमकर,
अपनी ही नादानियों में कहीं खो गई वो लहर,
मंजिलों से दूर भटकी प्यासी रही वो लहर।

Saturday 19 March 2016

झील का कोई समुंदर नहीं

कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता!
मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता!

अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव है उस झील का,
आभा अद्भुद, छटा निराली, चारो तरफ हरियाली,
प्रकृति की प्रतिबिम्ब को खुद में लपेटे हुए,
अपने आप में पूरी पूर्णता समेटे हुए झील का किनारा।

प्यार है मुझको उस ठहरे हुए झील से,
रमणीक लगती मन को सुन्दरता तन की उसके।

कमल कितने ही जीवन के खिलते हैं इसकी जल में,
शान्त लगती ये जितनी उतनी ही प्रखर तेज उसके,
मौन आहट में उसकी स्वर छुपते हैं जीवन के,
बात अपने मन की कहने को ये आतुर नही समुन्दर से।

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से।

Saturday 5 March 2016

रेत का समुन्दर

सब कहते हैं मुझको रेत का समुन्दर,
उन्हे नहीं पता क्या-क्या है मेरे अन्दर,
हूँ तो समुन्दर ही,भले रेत का ही सही,
एक दुनियाँ पल रही है मेरे अन्दर भी।

रेत तपकर ही बनती है मृग-मरिचिका,
तपती रेत पाँवों को देती असह्य पीड़ा,
चक्षु दिग्भ्रमित कर देती मृगमरीचिका,
समुंदर रेत का ही पर अस्तित्व है मेरा।

गर्मी रेत की शीतल हो जाती रातों में,
मरीचिका रेत की, है सुन्दर ख्वाबों में,
पल जाती है नागफनी भी  इस रेत में,
विशाल रेगिस्तान दिखती है सपनों में।

गर्भ में रेत के रहती हैं जिन्दगियाँ कई,
गर्भ में रेत की जीवन सुंदर नई नवेली,
करोड़ों आशाएँ  दफन रहती रेत में ही,
समुन्दर रेत का मगरअस्तित्व मेरा भी।

उथली जल धार टिकती मुझ पर नहीं,
सोख लेता हूँ प्राण, मैं उथले जल की,
स्नेह नहीं स्वीकार, मुझको बूंदों जैसी,
रेत का समुन्दर अपार जलधार प्यारी।