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Wednesday 1 April 2020

ओ री सरिता

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

तुझ संग, लहरों सा जीवन बीता,
कल-कल करते, कोलाहल,
ज्यूँ, छन-छन, बज ऊठते पायल,
कर्ण प्रिय, तेरी वो भाषा,
फिर बोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

पथ के काटों से, तू लड़ती आई,
हर बाधाओं से, तू टकराई,
संग बहे तेरे, पथ के लाखों कण,
लहरों में, तेरी है आशा,
फिर डोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

सावन था, जब बरसे थे बादल,
पतझड़ ने, धोए ये काजल!
मौसम के बदले से, रीते लम्हों में,
रंग सुनहरा, इंद्रधनुष सा,
फिर घोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

अल्हड़ सी, यौवन की चंचलता,
शीलत सी, मृदु उत्श्रृंखलता,
कल-कल धारा, बूँदें फिर से लाएंगी, 
छलका दे, मदिरा के पैमाने,
फिर बोल जरा सा!

तू चुप क्यूँ है, री सरिता?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 22 February 2020

लहर! नहीं इक जीवन!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

इक ज्वार, नहीं इक जीवन,
उठते हैं इक क्षण, फिर करते हैं गमन,
जैसे, अनुभव हीन कोई जन,
बोध नहीं, कुछ भान नहीं,
लवणित पीड़ा की, पहचान नहीं, 
सागर है, सुनसान नहीं,
छिड़के, मन की छालों पर लवण,
टिसते, बहते ये घन,
हलचल है, श्मशान नहीं,
रुकना होता है, थम जाना होता है,
भावों से, वेदना को, 
टकराना होता है,
तिल-तिल, जल-कर, जी जाना होता है!
जीवन, तब बन पाता है!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

रह-रह, आहें भरता सागर,
इक-इक वेदना, बन उठता इक लहर,
मन के पीड़, सुनाता रो कर,
बदहवास सी, हर लहर,
पर, ये जीवन, बस, पीड़ नहीं,
सरिता है, नीर नहीं,
डाले, पांवों की, छालों पर मरहम,
रोककर, नैनों में घन,
यूँ चलना है, आसान नहीं,
रहकर अवसादों में, हँसना होता है,
हाला के, प्यालों को,
पी जाना होता है,
डूब कर वेदना संग, जी जाना होता है!
जीवन, फिर कहलाता है!

वेदना ही है जीवन, व्यथा किसने ना सहा!
क्यूँ भागते हो जीवन से?
लहरों को, कब मैंने जीवन कहा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 16 February 2020

भटकाव - इक होड़

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कविताओं से दूर, इक धार बही है,
जितना जो दूर, पार वही है!
भटकावे का, द्वार यही है,
लेकिन, कविताओं को है बहना,
पाँच सात पाँच, भी गिनना,
क्यूँ बंधकर बहना!
बंधने की, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कहते हैं वो, यह कोई बिंब नही है,
मैं जो समझूँ, बिंब वही है!
भाव, इशारों में मत कहना,
बिंब ना बने, तो यूँ, चुप ही रचना,
पाँच सात पाँच, का चक्कर,
फिर ना करना,
चारो ओर, यही शोर मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

समझाते हैं वे, नियम कह-कह कर,
समीक्षाओं के, हठीले भँवर!
खो जाते हैं, भाव हो मुखर,
बहते ये भाव, नियमबद्ध हो कैसे,
पाँच सात पाँच, ही कहना,
या चुप ही रहना!
हर ओर, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 3 June 2016

वादियों में कहीं

कहीं दूर तन्हा हसीन वादियों में,
गा रहा है ये दिल अब तन्हाईयों के गीत,
चौंक कर जागता है मन बावरा,
सोचता यहीं कही पे है मेरे मन का मीत।

कहीं दिल की लाल सरिताओ में,
खिल उठ्ठे हैं जैसे असंख्य कमल के फूल,
कह रहा है मुझसे दिल ये बावरा,
धड़केगा एक दिन वो पत्थर भी जरूर।

जैसे फूल खिल उठते हैं पत्थरों पे,
ताप से पिघलतेे है मोम के ये सुलगते दिए,
हो जाएंगे वो भी ईश्क मे बावरा,
मेेरी तन्हा रातों में कभी वो जलाएंगे दिए।

ये वादियाँ हैं इंतजार की फूल के,
झूम उठते हैं जो इन तन्हाईयों के गीत पे,
तन्हा लम्हों में छुपा है वो बावरा,
इन वादियों में कहीं वो इंतजार में प्रीत के।

Friday 15 April 2016

तन्हाई के ख्याल

मैं और मेरा मन, तन्हाई मे जाने किन ख्यालो के संग?

ख्यालों के निर्झर सरिता मे वो बहती,
कलकल छलछल पलपल हरपल वो करती,
जाने किन शिखरों से चलकर वो आती,
झिलमिल सांझ ढ़ले किस सागर में मिल जाती,
ख्यालों के विरान महल में बस मैं और मेरी तन्हाई।

टकराती रह रह कर हृदय के इस तट पर,
शिलाओं सा टूटता रहता मैं तिल तिल घिस-घिस कर,
यादों के सैकत बिछ जाते हृदय के तल पर,
गहरा सा मन मेरा शिलाचूर्ण से फिर जाता भर,
कभी रुक जाते वो झील सी ख्यालों में बह बहकर।

खिल उठती कमल सी वो उस ठहरी झील मे,
समेटती अपनी चंचलता पलभर को अपने मन में,
बिखेरती वो सुंदर सी आभा उस उपवन में,
सपनों का वो घन सदियों से मेरे मन प्रांगण में,
इक ख्याल बन कर उभरता हर पल मेरी तन्हाई में।

मैं और मेरा मन, तन्हाई मे जाने किन ख्यालो के संग?

Monday 28 March 2016

सांझ प्रहर फिर से दुखदाई

सांझ प्रहर आज फिर से दुखदाई,
अस्ताचल की किरणें विरहाग्नि लेकर आई,

मन के आंगन तम सा घन छाया,
मिलनातुर मन, विरह की अग्नि मे काया,

नैन निर्झर सरिता से कलकल छलके,
सुर हृदय विलाप कीे घन तड़ित सा कड़के,

विरह की यह वेला युगों से जीवन में,
साँझ प्रहर अब लगते संगी से जीवन के,

वो निष्ठुर दूर कहीं पर सदा हृदय में,
निर्दयी वो दूर पर प्यारा मुझको जीवन में,

रात दिन ज्युँ कभी मिल नहीं पाते,
सांझ घङी किन्तु दोनो नित मिलने को आते,

अगन इस विरह की ऐसे ही संग मेरे,
सांझ ढ़ले नित आ जाते ये लगने गले मेरे।