कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!
बज रही हो जैसे, कोई रागिनी,
गा उठी हो, कोयल,
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन,
बलखाती, निश्छल धार सी तुम!
और, मैं चुप सा!
गगन पर, जैसे लहराते बादल,
जैसे डोलते, पतंग,
धीरे से, ढ़लका हो आँचल,
फुदकती, मगन मयूरी सी तुम!
और, मैं चुप सा!
कह गई हो, जैसे हजार बातें,
मुग्ध सी, वो रातें,
आत्ममुग्ध, होता ये दिन,
गुन-गुनाती, हर क्षण हो तुम!
और, मैं चुप सा!
कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार शुक्रवार 24 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-01-2020) को "बेटियों एक प्रति संवेदनशील बने समाज" (चर्चा अंक - 3591) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
सादर आभार आदरणीय
Deleteमधुर मौन..
ReplyDeleteसुंदर रचना, प्रणाम अग्रज।
सादर आभार आदरणीय
Deleteसुंदर
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर मित्र !
ReplyDeleteचुप रहने का दावा करते-करते इतना कुछ तो उनकी तारीफ़ में बोल गए आप. अगर बोलते तो फिर क्या होता?
सर, मुझे लगा चुप रहना ही बेहतर है। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका ।
Deleteबहुत सुंदर चुप रह कर इतनी सुंदर कविता लिख दी, प
ReplyDeleteपहले बोल देते तो शब्द से बिखर जाते,
ये भाव कहां रच पाते ।
अभिनव सृजन।
सुन्दर प्रेरक शब्दों हेतु आभारी हूँ आदरणीया।
ReplyDelete