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Saturday 11 September 2021

टीस

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

अर्थहीन सभी लगते, यूँ, चेहरे सारे,
टिमटिम से, नैनों के दो तारे,
अपलक, जाने किसकी, राह निहारे!

यूँ, अन्तः सौ-सौ अन्तर्द्वन्द्व संभाले,
पग-पग, राहों नें द्वन्द डाले,
लगाए, चंचल से, एहसासों पे ताले!

घूंघट तले, कितने ही, सावन जले,
चुप-चुप, सारे अरमान पले,
वो अनकहे, बिन कहे, कोई सुन ले!

तड़पाए मन, भावों के आवागमन,
उलझाए, अन्तः अवलोकन,
लब कैसे दे, यूँ, शब्दों को थिरकन!

शिकन, यूँ चेहरों पे, भाव न गढ़ते,
नैनों में, यूँ न, बहाव उतरते,
टीस भरे, गहरे से ये घाव ना रहते!

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 17 February 2021

कैसा भँवर

जाने क्यूँ? बह पड़े हैं, सारे भाव!
अन्तः, जाने कैसा है भँवर!
पीड़ असहज, दे रहे हृदय के घाव!
ज्यूँ फूट पड़े हैं छाले!

पर, अब तक, बड़ा सहज था मैं!
या, कुछ ना-समझ था मैं?
शायद, अंजाना सा, यह प्रतिश्राव,
आ लिपटा है मुझसे!

शायद, जाग रही, सोई संवेदना,
या, चैतन्य हो चली चेतना!
या, हृदय चाहता, कोई एक पड़ाव,
आहत होने से पहले!

जाने क्यूँ, अनमनस्क से हैं भाव!
अन्तः, उठ रहा कैसा ज्वर!
कंपित सा हृदय, पल्पित सा घाव!
ज्यूँ छलक रहे प्याले!

भँवर या प्रतिश्राव, तीव्र ये बहाव,
समेट लूँ, सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ, ऊँचे किनारों पर,
बिखर जाने से पहले!

जरा, समेट लूँ, यह आत्म-चेतना,
फिर कर पाऊंगा विवेचना!
व्याकुल कर जाएगा, ये प्रतिश्राव,
संभल जाने से पहले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 14 July 2020

स्वप्न हरा भरा

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

अर्ध-मुकम्मिल से, कुछ क्षण,
थोड़ा सा,
आशंकित, ये मन,
पल-पल,
बढ़ता,
इक, मौन उधर,
इक, कोई सहमा सा, कौन उधर?
कितनी ही शंकाएँ,
गढ़ता,
इक व्याकुल मन,
आशंकाओं से, डरा-डरा,
वो क्षण,
भावों से, भरा-भरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

शब्द-विरक्त, धुंधलाता क्षण,
मौन-मौन,
मुस्काता, वो मन,
भाव-विरल,
खोता,
इक, हृदय इधर,
कोई थामे बैठा, इक हृदय उधर!
गुम-सुम, चुप-चुप,
निःस्तब्ध,
निःशब्द और मुखर,
उत्कंठाओं से, भरा-भरा,
हर कण,
गुंजित है, जरा-जरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 27 April 2020

हर बार - (1200वाँ पोस्ट)

बाकी, रह जाती हैं, कितनी ही वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

कभी, चुन कर, मन के भावों को,
कभी, सह कर, दर्द से टीसते घावों को,
कभी, गिन कर, पाँवों के छालों को,
या पोंछ कर, रिश्तों के जालों को,
या सुन कर, अनुभव, खट्ठे-मीठे, 
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर, सोचता हूँ, हर बार,
शायद, फिर से ना दोहराए जाएंगे, 
वो दर्द भरे अफसाने,
शायद, अब हट जाएंगे, 
रिश्तों से वो जाले,
फिर न आएंगे, पाँवों में वो छाले,
उभरेगी, इक सोंच नई,
लेकिन! हर बार,
फिर से, उग आते हैं,
वो ही काँटें,
वो ही, कटैले वन,
मन के चुभन,
वो ही, नागफनी, हर बार!
अधूरी, रह जाती हैं,
लिखने को,
कितनी ही बातें, हर बार!

फिर, चुन कर, राहों के काँटों को,
फिर, पोंछ कर, पाँवों से रिसते घावों को,
फिर, बुन कर, सपनों के जालों को,
देख कर, रातों के, उजालों को,
या, तोड़ कर, सारे ही मिथक,
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर भी, रह जाती हैं कितनी वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 11 March 2020

पुकार लो

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

जीर्ण हो, या नवीन सा श्रृंगार हो,
नैन से नैन का, चल रहा व्योपार हो,
फिर ये शब्द, क्यूँ मौन हों?
ये प्रेम, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, होंठ ये खोल दो,
पुकार लो, फिर उसे!

गर्भ में समुद्र के, दबी कितनी ही लहर,
दर्प के दंभ में, जले भाव के स्वर,
डूब कर, गौण ही रह गए, 
वो लहर, वो भँवर, मौन जो रह गए, 
तैर कर, पार वे कब हुए!
उबार लो, फिर उसे!

अतिवृष्टि हो, अल्प सा तुषार हो,
मेघ से मेह का, बरस रहा फुहार हो,
फिर आकाश, क्यूँ मौन हो?
प्रकाश, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, गांठ ये खोल दो,
निहार लो, फिर उसे!

छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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दर्प: - अहंकारघमंडगर्व; मन का एक भावजिसके कारण व्यक्ति दूसरों को कुछ न समझे; अक्खड़पन। 


Sunday 16 February 2020

रचनाओं की विधा

जीते हैं, शायद वे कुंठाओं में,
या फिर सरस्वती, अवकुंठित हैं उनमें,
यूँ ही वाणी, अमर्यादित न होती,
यूँ अहम, प्रभावी न होते!

घोल कर, अपनी बातों में अहम,
कहते हैं वो, करते गर्जन, 
गर हो आपकी, कोई विधा-प्रकाशन,
चाहते हैं, पढ़ना हम-
- कुंडलियाँ, दोहा, रोला, सवैया,
- चौपाई, सायली, लावणी, धनाकरी, 
- मत्तगयंद, कवित्त, पंच चामर!

विद्या से परे, ना कोई विधा,
सुंदर से सुंदरतम, होती हर इक विधा,
यूँ ही ये विधाएं, प्लावित न होती,
यूँ कवि, चारण न बनते!

हर रचना, बुनती इक भाव,
तुलसी ने, कब लिखी गजल, लावणी,
दिनकर ने, कब लिखी कव्वाली,
यूँ रचना, प्रखर ना होते!

मेरी साधारण सी, रचनाएँ,
मन की यमुना है, बस बहती ही जाए,
गंगा है, कल-कल करती जाए,
यूँ धारा बन, ना बहते!

मन भर जाए, लिखता हूँ, 
विधा जो कहलाए, भाव बुन लेता हूँ,
जिनको पढ़ना हो, वे पढते हैं,
यूँ ही,भावों में बहते हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

भटकाव - इक होड़

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कविताओं से दूर, इक धार बही है,
जितना जो दूर, पार वही है!
भटकावे का, द्वार यही है,
लेकिन, कविताओं को है बहना,
पाँच सात पाँच, भी गिनना,
क्यूँ बंधकर बहना!
बंधने की, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

कहते हैं वो, यह कोई बिंब नही है,
मैं जो समझूँ, बिंब वही है!
भाव, इशारों में मत कहना,
बिंब ना बने, तो यूँ, चुप ही रचना,
पाँच सात पाँच, का चक्कर,
फिर ना करना,
चारो ओर, यही शोर मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

समझाते हैं वे, नियम कह-कह कर,
समीक्षाओं के, हठीले भँवर!
खो जाते हैं, भाव हो मुखर,
बहते ये भाव, नियमबद्ध हो कैसे,
पाँच सात पाँच, ही कहना,
या चुप ही रहना!
हर ओर, इक शोर सी मची है!

होड़ लगी है, हर ओर लगी है...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 19 January 2020

कवि-मन

श्रृंगार नही यह, किसी यौवन का,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!
पीड़-प्रसव है, उमरते मनोभावों का,
तड़पता, होगा कवि!
जब भाव वही, लिखता होगा!

हर युग में, कवि-मन, भींगा होगा,
करे चीर हरन, दुस्साशन,
युगबाला का हो, सम्मान हनन,
सीता हर ले जाए, वो कपटी रावण,
विलखता, होगा कवि!
जब पीड़ कोई, लिखता होगा!

खुद, रूप निखरते होंगे शब्दों के,
शब्द, न वो गिनता होगा, 
खिलता होगा, सरसों सा मन,
बरसों पहर, जब, बंजर रीता होगा,
विहँसता, होगा कवि!
जब प्रीत वही, लिखता होगा!

क्या, मोल लगाएँ, कवि मन का,
देखो उसकी, निश्छलता,
अनमोल हैं उनका, हर लेखन,
लिख-लिख कर, सुख पाता होगा,
रचयिता, होगा कवि!
निःस्वार्थ वही, लिखता होगा!

किसी यौवन का, ये श्रृंगार नहीं,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
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रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 21 September 2018

ब्रम्ह और मानव

सुना है! ब्रम्ह नें, रचकर रचाया ये रचना....
खुद हाथों से अपने,
ब्रम्हाण्ड को देकर विस्तार,
रचकर रूप कई,
गढ़ कर विविध आकार,
किया है साकार उसने कोई सपना...

सुना हैं! उन सपनों के ही इक रूप हैं हम....
अंश उसी का सबमें,
रंग विविध से दिए है उसने,
भरकर भाव कई,
देकर मन रुपी संसार,
किया है हृदय में ममता का श्रृंगार....

सुना है! ब्रम्हलोक गए वे सब कुछ देकर...
दे कर विशाल सपने,
एहसास उपज कर मानव में,
इच्छाएं दे कई,
किए बिन सोच विचार,
सृष्टि पर सौंप दिया था अधिकार....

सुना है! अब पश्चाताप कर रहा वो ब्रम्ह...
श्रेष्ठ ज्ञान दिया जिसे,
योनियों में उत्तम रचा जिसे,
भूला राह वही,
कपट क्लेश व्यभिचार,
सृष्टि की संहार पर तुला है मानव...

सुना है! टूट चुकी है अब ब्रम्ह की तन्द्रा...
रूठ चुका है वो सबसे,
त्रिनेत्र खोल दिए है शिव ने,
प्रलय न हो कहीं!
प्रकृति में है हाहाकार,
हो न हो, है विनाश का ये हुंकार...

सुना है! अब भी नासमझ बना है मानव...

Tuesday 8 May 2018

सम्मोहन

हो बिन देखे ही जब भावों का संप्रेषण,
उत्सुक सा रहता हो जब-तब ये मन,
कोई संशय मन को तड़पाताा हो हर क्षण,
पल पल फिर बढता है ये सम्मोहन....

ये सम्मोहन के अनदेखे मंडराते से घन,
नभ पर घनन-घनन गरजाते ये घन,
शायद उन नैनों के तट से आए है ये घन,
निष्ठुर कितना है ये प्रश्नमय संप्रेषण.....

भावों का ये प्रश्नमय अन्जाना संप्रेषण,
अनुत्तरित प्रश्नों में उलझा ये प्रश्न,
इन अनसुलझे प्रश्नो से भरमाया है मन,
ओ अपरिचित, ये कैसा है सम्मोहन....

शायद ये किसी विधुवदनी का आवेदन,
या हो यह विधुलेखा का सम्मोहन,
सम्मोहित करती हो शायद वो विधुकिरण,
ओ विधुवदनी,ये कैसा है सम्मोहन....

ओ मन रजनी, विधुवदनी ओ विधुलेखा,
ओ साजन, ओ अन्जाना, अनदेखा,
मन की भावो में लिपटा ये भावुक संप्रेषण,
पल पल बढ़ता ये तेरा है सम्मोहन....

Sunday 3 December 2017

परिवेश

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ उड़ते हों, फिजाओं में भ्रमर,
उर में उपज आते हों, भाव उमड़कर,
बह जाते हों, आँखो से पिघलकर,
रोता हो मन, औरों के दु:ख में टूटकर.....
सुखद हो हवाएँ, सहज संवेदनशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ खुलते हों, प्रगति के अवसर,
मन में उपजते हो जहाँ, एक ही स्वर,
कूक जाते हों, कोयल के आस्वर,
गाता हो मन, औरों के सुख में रहकर......
प्रखर हो दिशाएँ, प्रबुद्ध प्रगतिशील परिवेश....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

जहाँ बहती हों, विचार गंगा बनकर,
विविध विचारधाराएं, चलती हों मिलकर,
रह जाते हों, हृदय हिचकोले लेकर,
खोता हो मन, अथाह सिन्धु में डूबकर.....
नौ-रस हों धाराएँ, खुला उन्नतशील परिवेश.....

ख्वाहिशों में है विशेष, मेरा मनचाहा परिवेश....

Sunday 24 September 2017

किंकर्तव्यविमूढ

गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार!
मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार,
झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर,
किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार!

हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार!
जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली!
झुंझलाहट होती दिशाहीन मन की गति पर,
ठिठककर दबे पाँवों फिर देखता, समय का विस्तार!

हूँ मैं इक लघुकण, क्या पाऊँगा अभिसार?
निर्झर है यह समय, कर पाऊँगा मैं केसे अधिकार?
अकुलाहट होती संहारी समय की नियति पर,
निःशब्द स्थिरभाव  फिर देखता, समय का विस्तार!

रच लेता हूँ मन ही मन इक छोटा सा संसार,
समय की बहती धारा में मन को बस देता हूँ उतार,
सरसराहट होती, नैया जब बहती बीच धार,
निरुत्तर भावों से मैं फिर देखता, समय का विस्तार!

Sunday 17 April 2016

मिथ्या अहंकार

बिखरे पड़े हैं कण शिलाओं के उधर एकान्त में,
कभी रहते थे शीष पर जो इन शिलाओं के
वक्त की छेनी चली कुछ ऐसी उन पर,
टूट टूटकर बिखरे हैं ये, एकान्त में अब भूमि पर ।

टूट जाती हैं ये कठोर शिलाएँ भी घिस-घिसकर,
हवाओं के मंद झौकों में पिस-पिसकर,
पिघल जाती हैं ये चट्टान भी रच-रचकर,
बहती पानी के संग, नर्म आगोश मे रिस-रिसकर।

शिलाओं के ये कण, इनकी अहंकार के हैं टुकड़े,
वक्त की कदमों में अब आकर ये हैं बिखरे,
वक्त सदा ही किसी का, एक सा कब तक रहता,
सहृदय विनम्र भाव ने ही, दिल वक्त का भी है जीता।

ये अहम भाव तो, मिथ्या भ्रम होते हैं मन के,
टूट जातेे हैं अहंकार यहाँ हम इन्सानों के,
मृदुलता मन की, सर्वदा ही भारी अहम पर,
कोमलता हृदय की, राज करती सर्वदा इस जग पर।

Friday 25 March 2016

विह्वल भाव

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल इस मन में...,!

कुछ भाव सरल भाषाविहीन, कुछ जटिल अंतहीन,
कुछ उद्वेलित घन जैसे व्यक्त अन्तःमानस में आसन्न,
कुछ हृदय में हरपल घुलते, कुछ अव्यक्त अन्त:स्थ मौन!

भाव पनपते भावनाओं से, भावना वातावरण से,
संग्यांहीन, संग्यांशून्य, निरापद भाव कुछ मेरे मन के,
मैं प्रेमी जीवन के हर शय का प्रेम ही दिखता हर मन में,

भिन्नता क्युँ भावों में इतनी मानव मन क्युँ विभिन्न,
रिक्तता तो है अंग जीवन का भाव क्युँ हुए दिशाविहीन,
कभी तैरती भावों मे विह्वलता कभी कभी ये मतिविहीन।

विह्वलता सुन्दरतम भाव मन की अभिव्यक्ति का,
माता हो जाती विह्वल पुत्र के निष्कपट भाव देखकर,
हृदय पुत्र का हो जाता विह्वल माँ की छलके नीर देखकर।

हृदय दुल्हन का विह्वल बाबुल का आँगन छोड़कर,
विदाई के क्षण नैन असंख्य विह्लल आँसूओं में डूबकर,
पत्थर हृदय पिता हो जाता विह्वल बेटी के आँसू देखकर।

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल मन में...,!
कैद कर लेना चाहता विह्वल भावों को मैं "जीवन कलश" में.!