Friday 24 February 2023

मतलबी

अबकी भी, बड़ी, प्रीत लगी मतलबी!

ऐ सखी, किन धागों से मन बांधूं?
कित ओर, इसे ले जाऊं,
कैसे बहलाऊं!
अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

जीर्ण-शीर्ण, मन के दोनों ही तीर,
ना ही, चैन धरे, ना धीर,
बांध कहां पाऊं!
यूं बींध सी गई, ये प्रीत बड़ी मतलबी!

किंचित भान न था, छल जाएगा!
दु:ख देकर, खुद गाएगा,
अब, यूं घबराऊं!
यूं दुस्वार लगे, ये प्रीत, बड़ी मतलबी!

ऐ सखी, कित मन को समझाऊं?
इसे और कहां, ले जाऊं,
कैसे दोहराऊं!
अबकी भी, लगी, प्रीत बड़ी मतलबी!

अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 February 2023

रंग-बेरंग फागुन

रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!

हँसते, वे लम्हे, बहते, वे लम्हे,
कुछ कहते-कहते, रुक जाते वे लम्हे,
यूं रिक्त, न हो जाते,
सिक्त पलों से,
कुछ रंग भरे, पल चुन लेता!

तो यूं, फागुन न होता!

हवाओं की, सरगोशी सुनकर,
यूं न हँसती, बेरंग खामोशी डसकर,
गीत, कई बन जाते,
गर, वो गाते,
राग भरे, आस्वर चुन लेता!

तो यूं, फागुन न होता!

यूं तो बिखरे सप्तरंग धरा पर,
पथराए नैन, कितने बेरंग यहां पर,
स्वप्न, वही भरमाते,
जो भूल चले,
स्वप्न वो ही, फिर रंग लेता!

रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 20 February 2023

आसार

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना फूल खिले, 
ना खिलने के आसार!
ठूंठ वृक्ष, ठूंठ रहे सब डाली,
पात -पात सब सूख रहे,
सूख रही हरियाली,
ना बूंद गिरे, 
ना ही, बारिश के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना रात ढ़ले, 
ना किरणों के आसार!
गहन अंधियारे, डूबे वो तारे,
उम्मीदों के आसार कहां,
उम्मीदों से ही हारे,
ना चैन मिले,
ना ही, नींदिया के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना मीत मिले,
ना मनसुख के आसार!
रूखा-रूखा, हर शै रूठा सा,
मधुकण के आसार कहां,
मधुबन से ही हारे,
ना रास मिले,
ना ही, रसबूंदो के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 19 February 2023

पल सारे

गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

शान्त थे बड़े, बड़े निष्काम थे,
पल वो ही, तमाम थे,
बह चली थी, जिस ओर, जिन्दगी,
ठहरी, वक्त की वो ही धार,
बनी आधार थी,
बस, गिनता रहा मैं ....

थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

असीमित चंचलता, यूं सिमेटे,
समय, खुद में लपेटे,
देकर, ठहरी जिंदगी को, चपलता,
एक सूने मन को, चंचलता,
रही यूं रोकती,
बस, देखता रहा मैं .....

थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

मंत्रमुग्ध करते, वो स्निग्ध पल,
ओढ़े, होठों पे छल,
रही खींचती, बस, अपनी ही ओर,
कैसी, अनोखी सी वो डोर,
कैसा ये ठौर,
बस, ठहरा रहा मैं .....

गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 February 2023

दबी परछाईयां

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं जम गए, गम के बादल,
ढ़ल चुका, बेरंग आंचल सांझ का,
चुप रह गई, मुझ संग,
तन्हाईयां मेरी!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं विहंसते, वो फूल कैसे,
मुरझाते रहे, आस में जो धूप के,
बिन खिले ही, रह गए,
रंग सारे कहीं!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

छुप गई, रुत किस ओर,
रुख-ए-रौशन, ज्यूं बन गए बुत,
यूं बुलाते ही, रह गए,
ये ईशारे कहीं!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं थम गए, बढ़ते ये कदम,
ज्यूं थक चुके, ये बादल, वो गगन,
सिमटकर, संग रह गई,
परछाईयां मेरी!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 5 February 2023

उस ओर

भोर, कहीं उस ओर!
अलसाई सी जग रही, इक किरण,
उठ रहा शोर!

उस ओर, कहीं ढ़ल रही विभा,
संतप्त पलों के, हर निशां,
बदल रही दिशा,
अब न होंगे, दग्ध ये ह्रदय,
जग उठेंगे हर शै,
हो विभोर!

भोर, कहीं उस ओर....

जिधर, कई धुंधली परछाईयां,
लेने लगी, नव अंगड़ाइयां,
जन्मी संभावनाएं,
अंकुरित हुई, कई आशाएं,
सपने पाने लगे,
नए ठौर!

भोर, कहीं उस ओर....

नयन कोटिशः, कर उठे नमन,
कर दोऊ जोड़े, हुए मगन,
जागी कण-कण,
कुसुमित हो चली, ये पवन,
उठे कदम कितने,
उसी ओर!

भोर, कहीं उस ओर!
अलसाई सी जग रही, इक किरण,
उठ रहा शोर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 2 February 2023

तुम या भ्रम


भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

अभी-अभी, इन लहरों में, तुम ही तो थे,
गुम थे हम, उन्हीं घेरों में,
पर, यूं लौट चले वो, छूकर मुझको,
ज्यूं, तुम कुछ कह जाते हो!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

रह जाती है, एकाकी सी तन्हा परछाईं,
और, आती-जाती, लहरें,
मध्य कहीं, सांसों में, इक एहसास,
ज्यूं, फरियाद लिए आते हों!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

अनायास बही, इक झौंके सी, पुरवाई,
खुश्बू, तेरी ही भर लाई,
कुहू-कुहू कूकते, लरजाते कोयल,
ज्यूं, मुझको पास बुलाते हों!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)