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Tuesday 19 September 2017

निशिगंधा

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ,
अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें,
बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें,
महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा?
प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ?
मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

है कोई चाँद खिला, या है वो कोई रजनीचर?
या चातक है वो, या और कोई है सहचर!
क्युँ निस्तब्ध निशा में खुश्बू बन रही वो बिखर!
शायद ये हैं उसकी निमंत्रण के आस्वर!
क्या प्रतीक्षा के ये पल अब हो चले हैं दुष्कर?
मन कहता है जाकर देखूँ, बिखरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

यूँ हर रोज बिखरती है टूटकर वो निशिगंधा?
जैसे कोई विरहन, महकती गीत विरह की हो गाती!
आशा के दीप प्राणों में खुश्बू संग जलाती,
सुबासित नित करती हो राहें उस निष्ठुर साजन की,
प्रतीक्षा में खुद को रोज ही वो सजाती....
मन कहता है जाकर देखूँ, सँवरी क्युँ ये निशिगंधा?

घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?

Sunday 10 April 2016

रात

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

Monday 21 March 2016

विरहन की होली

फिजाओं में हर तरफ धूल सी उड़ती गुलाल,
पर साजन बिन रंगहीन चुनर उस गोरी के।

रास न आई उसको रंग होली की,
मुरझाई ज्यों पतझड़ में डाल़ बिन पत्तों की,
रंगीन अबीर गुलाल लगते फीकी सी,
टूटे हृदय में चुभते शूल सी ये रंग होली की।

वादियों में हर तरफ रंगो की रंगीली बरसात,
लेकिन साजन बिन कोरी चुनर उस विरहन के।

कोहबर में बैठी वो मुरझाई लता सी,
आँसुओं से खेलती वो होली आहत सी,
बाहर कोलाहल अन्दर वो चुप चुप सी,
रंगों के इस मौसम में वो कैसी गुमसुम सी।

कह दे कोई निष्ठुर साजन से जाकर,
बेरंग गोरी उदास बैठी विरहन सी बनकर,
दुनियाँ छोटी सी उसकी लगती उजाड़ साजन बिन,
धानी चुनर रंग लेती वो भी, गर जाती अपने साजन से मिल।

Sunday 20 March 2016

सहमी सहमी सी खुशी

बरसों बीते, एक दिन खुशी को अचानक मैने भी देखा था राह में,
शक्ल कुछ भूली-भूली, कुछ जानी-पहचानी सी लगी थी उसकी,
दिमाग की तन्तुओं पर जोर डाला, तो पहचान मिली उस खुशी की,
बदहवास, उड-उड़े़े होश, माथे पे पसीने की बूंदे थी छलकी सी।

उदास गमगीन अंधेरों के साए में लिपटी, गुमसुम सी लगती थी वो,
इन्सानों की बस्ती से दूर, कहीं वीहट में शायद गुम हो चुकी थी वो,
खुद अपने घर का पता ढ़ूढ़ने, शायद जंगल से निकली थी वो,
नजरें पलभर मुझसे टकराते ही, कहीं कोने मे छुपने सी लगी थी वो।

सहमी-सहमी सी आवाज उसकी, बिखरे-बिखरे से थे अंदाज,
उलझे-उलझे लट चेहरे पे लटकी, जैसे झूलती हुई वटवृक्ष के डाल,
कांति गुम थी उसके चेहरे से, कोई अपना जैसे बिछड़ा था उससे,
या फिर किसी अपनों नें ही, दुखाया था दिल उस विरहन के जैसे।

इंसानों की बस्ती में वापस, जाने से भी वो घबराती थी शायद,
पल पल बदलते इंसानों के फितरत से, आहत थी वो भी शायद,
आवाज बंद हो चुकी थी उसकी, कुछ कह भी नही पाती वो शायद,
टूटकर बिखरी थी वो भी, छली गई थी इन्सानों से वो भी शायद।

व्यथा देख उसकी मैं, स्नेहपूर्वक विनती कर अपने घर ले आया,
क्षण भर को आँखे भर आई उसकी, पर अगले ही क्षण यह कैसी माया,
अपनों मे से ही किसी की मुँह से "ये कौन है?" का स्वर निकल आया,
विरहन खुशी टूट चुकी थी तब, जंगल में ही खुश थी वो शायद....!

Thursday 14 January 2016

विरहन का विरह

पूछे उस विरहन से कोई! 
क्या है विरह? क्या है इन्तजार की पीड़ा?

क्षण भर को उस विरहन का हृदय खिल उठता,
जब अपने प्रिय की आवाज वो सुनती फोन पर,
उसकी सिमटी विरान दुनियाँ मे हरितिमा छा जाती,
बुझी आँखों की पुतलियाँ में चमक सी आ जाती,
सुध-बुध खो देती उसकी बेमतलब सी बातों मे वो,
बस सुनती रह जाती मन मे बसी उस आवाज को ,
फिर कह पाती बस एक ही बात "कब आओगे"!

पूछे उस विरहन से कोई! 
कैसे गिनती वो विरह के इन्तजार की घड़ियाँ?

आकुल हृदय की धड़कनें अगले ही क्षण थम जाती,
जब विरानियों के साए में, वो आवाज गुम हो जाती,
चलता फिर तन्हाईयों का लम्बा पहाड़ सा सिलसिला,
सूख जाते आँसू, बुझ जाती चमक पुतलियों की भी,
काटने दौड़ती मखमली मुलायम चादर की सिलवटें,
इन्तजार के अन्तहीन अनगिनत पल उबा जाते उसे,
सपनों मे भी पूछती बस एक ही बात "कब आओगे"!

पूछे उस विरहन से कोई! 
कैसा है विरह के दर्द का इन्तजार भरा जीवन?

Saturday 9 January 2016

एक जोगन या विरहन?


एक अधेर औरत!
शायद जोगन या विरहन?
नदी किनारे बैठी वर्षों से,
अपलक देखती धारों के उस पार,
आँखें हैं उसकी पथराई सी,
होंठ सूखे हुए कपड़े चीथड़े से,
पर बाल बिलकुल सँवरे से,
शायद उसे किसी के लौटने का,
अन्तहीन, अनथक इंतजार है।

हजारों आने-जाने वाले,
कई सिर्फ उसे देख गुजर जाते,
पर कोई उसे टोकता नही,
उसके अन्दर छुपे,
मर्म पीड़ा को सुनने समझने की,
शायद किसी को जरूरत नही।

इलाके में नया था मैं,
कुछ दिनों से रोज,
मैं देखता उसकी ओर
और आनेजाने वालों को भी,
अकुलाहट सी होती, कई प्रश्न उठते,
मन के अन्दर, फिर सोचता,
शायद मनुष्य के अन्दर इंसान,
या उसके जज्बात पूर्णतः मर चुके हैं!

इस उधेड़बुन में मैने सोचा,
क्युँ न मैं खुद पूछ लूँ,
उसकी व्यथा, पीड़ा, कहानी?

हिम्मत जुटाई खुद को तैयार किया,
उसके समीप जाकर ठहर गया,
अनायास ही वो मेरी ओर मुड़ी,
उसकी पथराई आँखें चौंध सी गई,
कई भाव एकसाथ उसके
चेहरे पर तैरने लगे थे,
जुबान अवरुद्ध थी उसकी,
सजल हो उठी थी आँखे,
मानो सारी व्यथा उसने कह दी थी,
और मेरी ओर एकटक देखी जा रही थी।

उसका मुख देख मै हतप्रभ था,
मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद बह गए,
मेरी संवेदना समझ चुकी थी,
शायद उसके उपर दुखों का
भीषण सैलाब टूटा होगा कभी,
मर्माहत हुए होंगे उसके अरमान,
पर वो तो ज्जबातों को शब्द भी नही दे सकती!

जैसे तैसे अपने मन को काबू में कर,
मैंने उसे एक आश्रम मे छोड़ दिया था,
मैं समझ गया था शायद,
एक जोगन या विरहन ही है वो!
पर उसे थी जरूरत मानवीय संवेदना की!